ब्लॉग: क्या पिछड़ी जातियां कांग्रेस की तरफ देखेंगी...आबादी के मुताबिक आरक्षण देने की मांग कितनी जायज?

By अभय कुमार दुबे | Published: May 9, 2023 08:57 AM2023-05-09T08:57:15+5:302023-05-09T08:58:15+5:30

Abhay Kumar Dubey Blog: Will backward castes look towards Congress? | ब्लॉग: क्या पिछड़ी जातियां कांग्रेस की तरफ देखेंगी...आबादी के मुताबिक आरक्षण देने की मांग कितनी जायज?

ब्लॉग: क्या पिछड़ी जातियां कांग्रेस की तरफ देखेंगी...आबादी के मुताबिक आरक्षण देने की मांग कितनी जायज?

पिछड़ी जातियों ने कांग्रेस का साथ साठ के दशक में छोड़ना शुरू किया था. उत्तर भारत में यह प्रक्रिया बेरोकटोक चलती रही. कांग्रेस ने भी इसकी परवाह नहीं की. यादवों को समाजवादी खींच ले गए, और लोधियों-काछियों को तत्कालीन जनसंघ ने अपनी तरफ कर लिया. हां, दक्षिणी और पश्चिमी भारत में कांग्रेस के पास प्रभावी पिछड़े नेता बने रहे. मसलन, देवराज अर्स ने कर्नाटक में पिछड़ों, दलितों और मुसलमानों के ‘अहिंदा’ गठजोड़ की नीति अपनाई. 

माधव सिंह सोलंकी ने गुजरात में ‘खाम’ की ऐसी ही रणनीति के जरिये कांग्रेस के लिए बहुमत जीता. यह अलग बात है कि इन रणनीतियों की समाज के दूसरे समुदायों (खासकर ऊंची जातियों) पर विपरीत प्रतिक्रिया हुई. ये जातियां भी धीरे-धीरे कांग्रेस से नाराज होती चली गईं. अभी भी कांग्रेस खाम और अहिंदा जैसी रणनीतियां अपनाने की कोशिश करती है, पर उसके परिणाम या तो मिलेजुले निकलते हैं या पूरी तरह से विपरीत. संभवत: अर्जुन सिंह एकमात्र नेता थे जिन्होंने अपने प्रभुत्व के दिनों में कांग्रेस की तरफ पिछड़ों को खींचने के लिए कुछ राजनीतिक कदम उठाए थे. लेकिन उनके बाद कांग्रेस ने फिर उस तरफ से ध्यान हटा लिया.

राहुल गांधी अगर यह समझते हैं कि वे पिछड़ी जातियों को उनकी आबादी के मुताबिक आरक्षण देने की मांग करके भारतीय जनता पार्टी के चुनावी समीकरण को गड़बड़ा देंगे, तो वे गलतफहमी में हैं. उन्हें समझना चाहिए कि वे बहुत देर कर चुके हैं. अगर कांग्रेस ने यह मांग नब्बे के दशक में की होती तो हो सकता था कि पिछड़ी जातियां एक बारगी कांग्रेस की तरफ हमदर्दी से देखतीं. पर इस समय तो हाल यह है कि इन वोटरों की राजनीतिक निष्ठाएं तय और स्थिर हो चुकी हैं. इनमें भाजपा का हिस्सा सामाजिक न्याय की तथाकथित पार्टियों के मुकाबले धीरे-धीरे बड़ा होता जा रहा है. जाहिर है कि गुजरे हुए वक्त की मांगों और नारों से आज की राजनीति में ऊंचा मुकाम नहीं पाया जा सकता.

आज राहुल गांधी वही नारा दोहरा रहे हैं जो साठ के दशक में डॉ. लोहिया और उनके अनुयायी लगाया करते थे. वे पिछड़ी जातियों को उनकी आबादी के मुताबिक आरक्षण देने की मांग कर रहे हैं. इसी के साथ जातिगत जनगणना की मांग भी जुड़ी है. यानी, पहले जातिगत जनगणना करके पिछड़ों की जातिगत संख्या का ठीक-ठीक पता लगाया जाए, और फिर आबादी में उनके प्रतिशत के अनुसार आरक्षण की व्यवस्था की जाए. 

इसका व्यावहारिक मतलब यह हुआ कि अगर जनगणना के जरिये पिछड़ों की संख्या 45 से 55 फीसदी के बीच निकलती है, तो कांग्रेस उन्हें 27 फीसदी से बढ़ाकर उतना ही आरक्षण देने का दबाव डालेगी. इस तरह संविधान के अनुसार 15 फीसदी दलितों के लिए, नौ फीसदी आदिवासियों के लिए और करीब पचास फीसदी पिछड़ों के लिए नया आरक्षण मिलाकर लगभग 75 फीसदी आबादी आरक्षित हो जाएगी. ऊपर से प्रभुत्वशाली जातियां (मराठा, जाट, गूजर वगैरह) अपने लिए आरक्षण का दबाव डाल ही रही हैं. 

किसी न किसी रूप में उनकी मांग भी थोड़ी-बहुत माननी पड़ेगी. यानी, अगर ये सभी मांगें मान ली जाएं, तो देश की आबादी का पचासी-नब्बे फीसदी हिस्सा किसी न किसी प्रकार आरक्षित हो जाएगा. पहली नजर में ही लगता है कि यह स्थिति त्रासदी से आगे बढ़कर आरक्षण या सामाजिक न्याय के प्रहसन (फूहड़ और बेअसर नौटंकी) में बदल जाएगी. कहना न होगा कि यह आरक्षण प्रगतिशील, समतामूलक और रैडिकल नीति का व्यावहारिक रूप  से अंत होगा.

आरक्षण की नीति के हश्र को एक बार छोड़ भी दें तो यह सोचने की बात है कि क्या राहुल गांधी को इसके जरिये कोई राजनीतिक लाभ हो सकता है? क्या जातिगत जनगणना की मांग करने वाले नेताओं और दलों को इससे कोई लाभ हो सकता है? भाजपा ने आरक्षण के सवाल पर कई दशक तक तनी हुई रस्सी पर चलने के बाद इस नीति के प्रभाव को तितर-बितर कर दिया है. आज सामाजिक न्याय और ब्राह्मणवाद विरोध की बड़ी-बड़ी बातें उसे पिछड़े वोट लेने से नहीं रोक पा रही हैं. वह पिछड़ों और अगड़ों का गठजोड़ ही नहीं बना रही, बल्कि दलितों को भी उसमें जोड़ कर पचास से साठ फीसदी की हिंदू एकता बना पा रही है.

हमें नहीं भूलना चाहिए कि आबादी के मुताबिक आरक्षण देने का आग्रह आखिर में एक ऐसी मांग की तरफ भी ले जाता है जो हमारे लोकतंत्र को चूंचूं का मुरब्बा बना देगी. इस आग्रह के भीतर जो मांग छिड़ी हुई है, वह पिछड़ी जातियों को राजनीतिक आरक्षण देने की है. संविधान सभा में भी यह मांग की गई थी, लेकिन इसे खारिज कर दिया गया था.

महिला आरक्षण पर होने वाली बहस में स्त्रियों के बहाने यह मांग की गई थी कि पिछड़ी जातियों की स्त्रियों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र बनाए जाएं. अगर कभी यह मांग मान ली गई तो अभी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसके कारण हमारा लोकतंत्र व्यापक होने के बजाय और सीमित होता चला जाएगा.

Web Title: Abhay Kumar Dubey Blog: Will backward castes look towards Congress?

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