अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: उत्तर प्रदेश में चुनावी लाइन पकड़ ली है भाजपा ने
By अभय कुमार दुबे | Published: November 3, 2021 09:26 AM2021-11-03T09:26:52+5:302021-11-03T09:28:54+5:30
अमित शाह ने लंबे इंतजार के बाद अपने एक भाषण में स्पष्ट रूप से कह दिया कि अगर 2024 में मोदी को प्रधानमंत्री बनाना है तो उसका रास्ता योगी को मुख्यमंत्री बनाकर ही साफ हो सकता है.
उत्तर प्रदेश में अभी तक माहौल कुछ इस तरह का था कि जब केंद्रीय आलाकमान के सदस्य सार्वजनिक मंचों पर योगी आदित्यनाथ की तारीफ करते थे तो समीक्षकों द्वारा मतलब यह निकाला जाता था कि इस तरह की प्रशंसा करने के लिए तो वे मजबूर हैं. आखिरकार वे मौजूदा मुख्यमंत्री की आलोचना या निंदा तो नहीं कर सकते.
समीक्षकों द्वारा कहा जाता था कि जब तक स्पष्ट रूप से योगी को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया जाएगा, तब तक नेतृत्व का सवाल हल नहीं होगा. कुछ न कुछ भ्रम बना रहेगा. इस भ्रम में उत्तर प्रदेश के कम से कम दो नेताओं द्वारा की जाने वाली बयानबाजी ने भी इजाफा किया. इनमें एक थे उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और दूसरे थे पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह.
मौर्य ने दावा किया था कि अगला मुख्यमंत्री विधायक दल के सदस्य तय करेंगे. इसके उलट सिंह का कहना था कि दिल्ली में मोदी रहेंगे और लखनऊ में योगी. इस तरह एक-दूसरे को काटने वाली बातों से संघ परिवार भी चिंतित हो रहा था. उसकी तरफ से कहा जा रहा था कि इस तरह का भ्रम पार्टी और सरकार को नुकसान पहुंचाने वाला है. काफी इंतजार के बाद जब आलाकमान ने योगी का नाम घोषित नहीं किया तो उन्होंने स्वयं खुद को अगला मुख्यमंत्री बताना शुरू कर दिया. लेकिन इससे भी समस्या का समाधान नहीं हो पाया.
जाहिर है कि भाजपा आलाकमान भी इस दुविधा के बारे में सोच रहा था. इसे दूर वह इसलिए नहीं कर पा रहा था कि कहीं न कहीं दुविधा उसके भीतर भी थी.
अंतत: इस हफ्ते की शुरुआत में अमित शाह ने लंबे इंतजार के बाद अपने एक भाषण में स्पष्ट रूप से कह दिया कि अगर 2024 में मोदी को प्रधानमंत्री बनाना है तो उसका रास्ता 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में योगी को मुख्यमंत्री बनाकर ही साफ हो सकता है. अमित शाह के इस वक्तव्य को पार्टी की कार्यनीति संबंधी बयान के तौर पर भी देखा जा सकता है.
इसके मुख्य तौर पर तीन मतलब निकाले जा सकते हैं- पहला, भाजपा निरंकुशता की हद तक जा चुकी योगी की उस छवि के आधार पर वोट मांगेगी जिसके तहत मुख्यमंत्री ‘बोली नहीं तो गोली’ जैसी भाषा बोलते रहे हैं. यानी भाजपा आलाकमान ने मान लिया है कि योगी सरकार ने अपराधियों पर अंकुश लगाने के लिए जो युक्तियां अपनाईं, वे कामयाब रही हैं और इसके कारण पार्टी की छवि अच्छी हुई है.
दूसरा, योगी को मोदी के साथ जोड़ने से विधानसभा चुनाव में ‘मोदी डिविडेंड’ को ज्यादा सफलता से गोलबंद किया जा सकता है. तीसरा, उत्तर प्रदेश के चुनाव के ऊपर राष्ट्रीय मुद्दों को हावी करके लड़ने से फायदा यह होगा कि विधानसभा चुनाव एक तरह का मिनी राष्ट्रीय चुनाव हो जाएगा और विकास के मोर्चे पर योगी सरकार की विफलताएं उसके पीछे-पीछे जाएंगी. अगर विधानसभा चुनाव में जोर कश्मीर और राम मंदिर जैसे मुद्दों पर रहेगा तो पूरी चुनावी मुहिम को राष्ट्रवाद के नाम पर हिंदुत्ववादी रंग देने की सुविधा
भी रहेगी.
अमित शाह के इस अनौपचारिक रणनीतिक वक्तव्य के प्रभाव में हमें भाजपा द्वारा उत्तर प्रदेश में जातिगत समीकरण साधने की कोशिशों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. इस बार धर्मेद्र प्रधान को इंचार्ज बनाया गया है और उन्होंने आते ही निषादों के राजनीतिक प्रतिनिधियों को भाजपा के साथ जोड़ लिया है. और भी छोटी-छोटी जातियों की कई पार्टियों के साथ भाजपा अपने संबंधों को पुख्ता करने में लगी हुई है.
यह जरूर कहा जा सकता है कि अतिपिछड़ी राजभर जाति के नेताओं ने इस बार भाजपा के बजाय समाजवादी पार्टी का साथ देने का फैसला किया है. इससे भाजपा को नुकसान हो सकता है. दूसरे, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा जाट मतदाताओं की बड़े पैमाने पर नाराजगी का सामना कर रही है. किसान आंदोलन से जुड़े गूजर मतदाता भी कहीं-कहीं भाजपा से फिरंट हो सकते हैं. किसान आंदोलन के कारण भाजपा अभी तक जाटों को साधने का जुगाड़ नहीं खोज
पाई है.
सवाल यह है कि क्या भाजपा राष्ट्रीय मुद्दों को हावी करके प्रदेश सरकार की वैकासिक उपलब्धियों और विफलताओं के सवाल को रेखांकित होने से रोक सकती है? मुझे लगता है कि ऐसा होना नामुमकिन है. 2017 में उत्तर प्रदेश की जातियों और समुदायों को नहीं पता था कि अगले पांच साल भाजपा कैसी सरकार चलाएगी. उन्हें यह भी नहीं पता था कि योगी को मुख्यमंत्री बनाया जाएगा. इस बार 2022 में यह असंभव है कि जातियां और समुदाय योगी की सरकार चलाने की शैली को ध्यान में रखे बिना वोट देने का फैसला कर लें.
अमित शाह द्वारा योगी को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा हर कीमत पर अपना असर डालेगी. कई समुदाय (विशेष तौर से ब्राह्मण समुदाय और कुछ पिछड़ी जातियां) अपनी मतदान प्राथमिकताओं पर पुन: विचार किए बिना नहीं रह सकतीं. कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश का चुनाव फैसला करेगा कि क्या केवल किसी प्रदेश का चुनाव मुख्य तौर पर राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जा सकता है?