अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: महाराष्ट्र का राष्ट्र के नाम स्पष्ट संदेश
By अभय कुमार दुबे | Published: November 28, 2019 07:26 AM2019-11-28T07:26:11+5:302019-11-28T07:26:11+5:30
समय आ गया है कि संविधान-विशेषज्ञ, दूरंदेशी रखने वाले राजनेता और नागरिक जीवन की बड़ी हस्तियां एक साथ बैठ कर गठजोड़ राजनीति के व्यापक मानकों का सूत्रीकरण करें
आश्वस्ति भाव से कहा जा रहा है कि संविधान दिवस पर महाराष्ट्र में संविधान की जीत हुई है. बात सही है, लेकिन सोचना तो यह होगा कि महाराष्ट्र में संविधान खतरे में पड़ा ही क्यों था? सुप्रीम कोर्ट के आदेश में इस प्रश्न की ओर सा$फ तौर पर इशारा दिखाई पड़ता है. लेकिन, यह भी मुख्य तौर पर राज्यपाल की भूमिका और शपथ दिलाने के तरीके तक सीमित है.
समस्या कहीं अधिक गहन और व्यापक होने के साथ-साथ धीरे-धीरे अपनी प्रकृति में लाइलाज हो चुकी है. समस्या यह है कि हमारे संविधान के पास गठजोड़ राजनीति के लिए मोटे तौर पर कोई आचारसंहिता नहीं है. हर नया राज्यपाल अस्पष्ट बहुमत की स्थिति में अपने फैसलों से नई विकृतियां पैदा करता है. पार्टियों के नेता मनचाही रणनीतियों का इस्तेमाल करके विचित्र और बेमेल किस्म के गठजोड़ बनाते रहते हैं.
चुनाव तो जनता के दरबार में होते हैं, लेकिन लक्जरी रिजॉर्ट और पांच सितारा होटलों में होने वाला लोकतंत्र में सत्ता का खेल ‘हमाम में सब नंगे’ की स्थिति में पहुंच जाता है. ऐसा बार-बार होता है, फिर भी हम नहीं चेतते. हम चुनाव से ठीक पहले लागू होने वाली आचार संहिता से भी नहीं सीखते. टी.एन. शेषन ने इसे बनाया और लागू किया था जिसके कारण हमारी चुनाव-प्रक्रिया की खासी सफाई हो गई. इसी तरह अगर गठजोड़ राजनीति की भी कोई आचार-संहिता बन जाए तो कुछ -न-कुछ संयम और कोई-न- कोई नैतिक मानक राज्यपालों से लेकर पार्टियों तक लागू हो जाएगा. अब यह स्पष्ट हो गया है कि सिर्फ बोम्मई केस का फैसला आचारसंहिता का विकल्प नहीं हो सकता.
महाराष्ट्र में यह तक स्पष्ट नहीं था कि विधानसभा में वोटिंग होते समय राष्ट्रवादी कांग्रेस का चीफ व्हिप कौन होगा? क्या वह जो विधायक दल का नेता (यानी अजित पवार) है, और जिसने राज्यपाल के सामने भाजपा को समर्थन देने का दावा किया है? या वह जिसकी सूचना (जयंत पाटिल) राष्ट्रवादी कांग्रेस ने विधानसभा के सचिवालय को भेजी है? तकनीकी रूप से यह तक सा$फ नहीं है कि शक्तिपरीक्षण और विश्वासमत दो अलग-अलग श्रेणियां हैं, या दोनों एक ही बात हैं?
क्या विश्वासमत के समय सबको भाषण देने का अधिकार होता है, और शक्तिपरीक्षण के समय वोट पड़ने के अलावा और कोई गतिविधि नहीं हो सकती? इस बात का भी कोई जवाब नहीं है कि अगर चीफ व्हिप के आदेश को दो-तिहाई या उससे ज्यादा विधायक मानने से इंकार कर दें, तो क्या होगा? सवाल और भी हैं. जैसे, क्या विधायक दल का नेता कोई और, चीफ व्हिप कोई और हो सकता है? यह भी पूछने लायक है कि क्या प्रो-टेम स्पीकर को (जो राज्यपाल द्वारा नियुक्त किया जाता है) को मतविभाजन जैसी निर्णायक गतिविधि का संचालन करने का मौका दिया जाना चाहिए?
दरअसल, महाराष्ट्र के घटनाक्रम ने इस मसले को और जटिल बना दिया है. पहले समझा जाता था कि गठजोड़ राजनीति में सरकार बनाने का सर्वाधिक नैतिक अधिकार चुनाव-पूर्व गठजोड़ का होता है. इसी लिहाज से मेरे जैसे लोग सलाह देते थे कि गठबंधन सरकार बनाने का मौका चुनाव-उपरांत गठबंधन को मिलना ही नहीं चाहिए. लेकिन, महाराष्ट्र पूछ रहा है कि अगर चुनाव-पूर्व गठजोड़ बहुमत जीतने के बाद सत्ता के बंटवारे के सवाल पर टूट जाए तो क्या स्थिति बनेगी? इस सवाल का एक संभावित जवाब यह हो सकता है कि किसी भी तरह का गठजोड़ बनाने के भी कुछ कानूनी मानक होने चाहिए.
उसी तरह जैसे पार्टी बनाने के होते हैं, जैसे पार्टी को मान्यताओं के विभिन्न स्तर होते हैं और जैसे पार्टियों को एक निश्चित स्तर की संवैधानिक व$फादारियों की कसम खानी होती है. अगर चुनाव-पूर्व गठजोड़ चुनाव जीतने के बावजूद सरकार बनाने से पहले भंग हो जाता है, तो उनके ‘मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टेंडिंग’ सरीखे किसी दस्तावेज के आधार पर यह पता लगाया जा सकेगा कि उनमें से किस पक्ष ने गड़बड़ी की.
अब यह तकरीबन स्पष्ट हो चुका है कि भाजपा और शिवसेना ने मिल कर चुनाव लड़ा, लेकिन वे दोनों एक-दूसरे को ठिकाने लगाने के मंसूबे के साथ काम कर रहे थे. भाजपा चाहती थी कि वह अकेले दम पर बहुमत के करीब पहुंच जाए, ताकि उसे हरदम कोसने वाली शिव सेना को हमेशा के लिए फिट किया जा सके.
दूसरी तरफ शिव सेना पहले से तय किए बैठी थी कि जैसे ही नतीजे आएंगे, वह फडणवीस के नीचे से ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी छीन लेगी. उसने यह भी सोच लिया था कि भाजपा उसकी मांग नहीं मानेगी और उस सूरत में उसे कांग्रेस या शिव सेना से साजबाज करना होगा.
इसके लिए उद्धव ठाकरे ने एकदम शुरू से ही भाजपा के लिए अपने दरवाजे पूरी तरह से बंद कर दिए. मिलना तो दूर, एक बार भी फडणवीस का $फोन तक नहीं उठाया. दरअसल, यह एक ऐसी चुनाव-पूर्व दोस्ती थी जिसमें दोनों पक्ष प्रारंभ से ही एक-दूसरे को बर्बाद करने के लिए पेशबंदी कर रहे थे. इन दोनों के बीच सत्ता के बंटवारे पर झगड़ा होने के अंदेशे पहले से थे.
अब समय आ गया है कि संविधान-विशेषज्ञ, दूरंदेशी रखने वाले राजनेता और नागरिक जीवन की बड़ी हस्तियां एक साथ बैठ कर गठजोड़ राजनीति के व्यापक मानकों का सूत्रीकरण करें. यही महाराष्ट्र का संदेश है.