अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: देश में दलित राजनीति का संकट और समस्याएं

By अभय कुमार दुबे | Published: July 13, 2021 12:28 PM2021-07-13T12:28:59+5:302021-07-13T12:30:24+5:30

सारे देश में फैले हुए पूर्व-अछूतों के वोटों को गोलबंद करके एक राष्ट्रीय दलित गोलबंदी करने का इरादा आखिरी बार 1993 में कांशीराम ने दिखाया था.

Abhay Kumar Dubey blog crisis and problems of Dalit politics in country | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: देश में दलित राजनीति का संकट और समस्याएं

भारत में दलित राजनीति का हाल

हाल ही में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं हैं जिन्होंने देश में दलित राजनीति के मौजूदा स्वरूप पर नए सिरे से प्रकाश डाला है. इनमें पहली घटना थी पंजाब के आने वाले चुनावों के लिए अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी के बीच गठजोड़ का ऐलान. 

दूसरी घटना थी उत्तरप्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के कुछ विधायकों का टूटकर समाजवादी पार्टी में जाना. तीसरी घटना थी वहां के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा डॉ. आंबेडकर की विशाल प्रतिमा बनवाने की घोषणा. चौथी घटना थी केंद्रीय मंत्रिमंडल में उत्तरप्रदेश से तीन दलित सांसदों को राज्यमंत्री बनाना और बिहार से पशुपतिनाथ पारस को मंत्री पद देना. 

इसमें केवल पहली घटना ही ऐसी है जो दलित नेतृत्व के लिए कुछ आशा जगाती है. बाकी तीनों घटनाएं बताती हैं कि दलित राजनीति में सबकुछ ठीक नहीं है. इन प्रकरणों पर एक-एक करके विचार करने से दलित राजनीति की समस्याएं स्पष्ट होकर सामने आ सकती हैं.

बात तो यह है कि बसपा की राजनीति पंजाब-केंद्रित न होकर उ.प्र. केंद्रित है. बावजूद इसके कि उसका जन्म पंजाब में हुआ था और पंजाब में इस देश की सबसे बड़ी दलित आबादी भी रहती है. कांशीराम ने शुरुआती दिनों को छोड़ कर पंजाब को कभी अपनी रणनीति में प्राथमिकता नहीं दी. उनके बाद मायावती ने भी पंजाब की ओर ठीक से नहीं देखा. 

इसलिए पंजाब में बसपा के पास वह नेटवर्क नहीं है जो उसे इस गठजोड़ से ज्यादा फायदा दिला सके. दूसरी बात यह है कि अगर उ.प्र. में बसपा का हाल ठीक होता तो वह पंजाब में अधिक विश्वासपूर्वक हस्तक्षेप कर सकती थी. लेकिन, उ.प्र. में उसकी हालत खस्ता है. जहां तक बसपा विधायकों के सपा में जाने का मसला है, यह कोई नई बात नहीं है. 

बसपा के विधायक और नेता कभी भाजपा में तो कभी सपा में जाते रहते हैं. जब तक मायावती की साख अच्छी थी, उस समय तक ऐसे सभी विभाजनों को उनकी व्यक्तिकेंद्रित राजनीति पचा लेती थी. लेकिन आज की तारीख में ऐसे विभाजन की उन्हें बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है. 

उनके लिए यह समय ‘करो या मरो’ का है. अगर उ.प्र. के चुनाव में उन्होंने सम्मानजनक प्रदर्शन न किया तो उनकी राजनीति का तकरीबन अंत हो जाएगा. आखिर 2007 के बाद यह लगातार पांचवां चुनाव होगा जब उन्हें नाकामी हाथ लगेगी.

बसपा का यह हाल क्यों कैसे हुआ? और, क्या केवल बसपा का ही ऐसा हाल हो रहा है? बाकी दलित पार्टियां किस दशा में हैं? इसका उत्तर पाने के लिए हमें थोड़ा इतिहास को कुरेदना पड़ेगा. डॉ. आंबेडकर ने अपने देहांत से कुछ पहले रिपब्लिकन पार्टी की स्थापना करके जिस दलित राजनीति का आगाज किया था, वह आज की तारीख में अपने अस्तित्व के संकट का सामना कर रही है. 

2007 में मायावती के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी ने उत्तरप्रदेश में केवल अपने दम पर पूर्ण बहुमत प्राप्त करके इस राजनीति को शिखर पर पहुंचाया था. आज उसी बसपा के सामने खुद को प्रासंगिक बनाए रखने की चुनौती है. बिहार के सर्वाधिक प्रभावी दलित नेता रामविलास पासवान के निधन के बाद उनकी लोक जनशक्ति पार्टी अंतर्कलह के कारण पूरी तरह से विभाजित हो चुकी है.

महाराष्ट्र में चाहे रिपब्लिकन पार्टी के छोटे-छोटे धड़े हों, या दलित पैंथर की बची हुई निशानियां हों— उनके जनाधार को या तो कांग्रेस ने निगल लिया है, या शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी ने. दक्षिण भारत में हुई दलित संघर्ष समिति जैसी पहलकदमियां अब इतिहास की बात बनकर रह गई हैं.

सारे देश में फैले हुए पूर्व-अछूतों के वोटों को गोलबंद करके एक राष्ट्रीय दलित गोलबंदी करने का इरादा आखिरी बार 1993 में कांशीराम ने दिखाया था. वे उ.प्र. को मायावती के भरोसे छोड़ कर सारे देश का दौरा करने निकल गए थे. आज हम कह सकते हैं कि कांशीराम कहीं भी उ.प्र. वाला जादू नहीं दोहरा पाये. 

लोकतंत्र में प्रभावी दलित दावेदारी के रूप में उनके पास जो कुछ बचा, वह उ.प्र. की राजनीति ही थी. लेकिन, अब उनकी मृत्यु के सत्रह साल बात वह उत्तरप्रदेश भी उनकी पार्टी के लिए ‘उर्वर प्रदेश’ नहीं रह गया है. 2007 की असाधारण जीत के बाद मायावती का ग्राफ हर चुनाव में नीचे गिर रहा है. 

तीस फीसदी वोट घटकर बीस फीसदी से कुछ ही ज्यादा रह गए हैं. जाहिर है कि बसपा का जिस तरह का जनाधार है, उसमें उसे ‘जाटव प्लस-प्लस’ की राजनीति करनी होती है. केवल जाटव वोट उसे ज्यादा-से-ज्यादा बीस से पचास सीटों के बीच ही दिला सकते हैं. 

फिलहाल ऐसे कोई संकेत नहीं दिखाई पड़ते कि मायावती के पास जाटवों के अलावा अतिपिछड़ों, अतिदलितों के प्रतिबद्ध समर्थन के साथ-साथ ऊंची जाति के कुछ मतदाताओं की हमदर्दी जीतने की युक्तियां हैं.

भाजपा इस समय एक ऐसी नीति पर चल रही है जिसमें वह दलित बिरादरियों के नेताओं को पटाने के बजाय सीधे अपनी पार्टी में से चेहरे खोज कर उनके मतदाताओं के साथ सीधा संवाद करना चाहती है. 

उ.प्र. में एक धनगर और एक पासी नेता को मंत्री बना कर उसने यही संदेश दिया है. बिहार में पारस को मंत्री बना कर उसने दिखा दिया है कि वह बिहार की एक अहम दलित पार्टी को पूरी तरह से अपना मोहताज बना सकती है.

Web Title: Abhay Kumar Dubey blog crisis and problems of Dalit politics in country

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे