चमकदार शहरों का अंधेरा कोना
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: July 30, 2018 05:31 AM2018-07-30T05:31:04+5:302018-07-30T05:31:04+5:30
प्रशासन यह भी कह रहा है कि बच्चियों के पिता ने कोई दवा उन्हें दी थी। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में किसी जानलेवा या साइड इफेक्ट वाली दवा की बात नहीं है।
(अवधेश कुमार)
राजधानी दिल्ली के मंडावली इलाके में तीन बहनों की मौत ने हमें अंदर से हिला दिया है। हालांकि जैसा होता है इस घटना पर प्रशासन की लीपापोती की कोशिश जारी है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में तीनों बच्चियों का पेट खाली मिला है, लेकिन एसडीएम अपनी रिपोर्ट में कह रहे हैं कि बच्चों को मध्याह्न् भोजन योजना से खाना मिला था। स्वयं उपमुख्यमंत्नी मनीष सिसोदिया वहां जाकर बच्चों को खाना न मिलने की बात स्वीकार चुके हैं। प्रशासन यह भी कह रहा है कि बच्चियों के पिता ने कोई दवा उन्हें दी थी। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में किसी जानलेवा या साइड इफेक्ट वाली दवा की बात नहीं है।
पुलिस ने मौत के कारणों की पुष्टि करने के लिए दूसरा पोस्टमार्टम कराया। उसमें मौत का कारण भले स्पष्ट नहीं हो, लेकिन पेट में अन्न न होने की फिर पुष्टि हुई। उनके चेहरे पर चोट के कोई निशान नहीं हैं। कोई बड़ी बीमारी भी पोस्टमार्टम रिपोर्ट में नहीं आई है। वास्तव में अभी तक की स्थिति में तो हमारे सामने सारे पक्ष यही साबित करते हैं कि उनको खाना नहीं मिला था। दो, चार और आठ साल की बच्चियों की राजधानी में इस तरह मौत केवल पूरे सरकारी तंत्न नहीं, समाज का अंग होने के नाते हमें भी शर्मसार करने के लिए पर्याप्त है।
वो लड़कियां जिस घर में रह रही थीं उसकी मालकिन ने बताया है कि तीन दिनों से उन्होंने उनके यहां चूल्हा जलते हुए नहीं देखा। यह किस बात की ओर इशारा करता है? लड़कियों की मां मानसिक रूप से बीमार है। उनका पिता काम ढूंढने बाहर गया और वह इन पंक्तियों के लिखे जाने तक वापस नहीं आया है। खबर है कि वह किसी का रिक्शा चलाता था जो चोरी हो गया। उसके पास काम नहीं था जिससे वह किराया चुका सके और उसे मकान से बाहर कर दिया गया। वह परिवार के साथ अपने एक दोस्त के किराये के कमरे में आ गया।
इन सबका विवरण यहां इसलिए जरूरी है ताकि हम समझ सकें कि भारत की दुनिया भर में दिखती और प्रदर्शित हो रही चमचमाहट के दूसरी तरफ आज भी कैसा अंधियारा है। दूरस्थ इलाकों से हर स्तर के लोग दिल्ली और पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्न में काम की तलाश में आते हैं। दिल्ली में जिनके पास घर नहीं उनके लिए आश्रय स्थल बने हुए हैं। वे वहां रह सकते हैं किंतु इसका भी पता यहां आने वाले सब लोगों को नहीं हो पाता। यह परिवार भी वैसा ही था। पश्चिम बंगाल से दिल्ली में पेट भरने आया था। हो सकता है परिवार में कुछ न होने की स्थिति में वह बाहर गया और उसको काम नहीं मिला तो यह सोचकर घर नहीं लौटा हो कि खाली हाथ कैसे जाएं। हो सकता है कि कुछ कमाया हो तो उसे नशे की याद आ गई हो। नशे की हालत में कहीं पड़ा हो। यह भी संभव है कि कहीं किसी अपराध के आरोप में पुलिस ने पकड़ लिया हो। बिना अपराध किए भी या परिवार का पेट भरने के लिए कुछ ऐसा वैसा कर दिया हो। यह भी संभव है दिल्ली की किसी सड़क ने उसे लील लिया हो या पेट में कुछ न होने के कारण वह भी दम तोड़ चुका हो। दिल्ली सहित महानगरों या महानगर का रूप लेते शहरों में यह सब संभव है।
दिल्ली और ऐसे शहरों की चमचमाहट हमें आकर्षित करती है लेकिन उसके पीछे का अंधियारा नहीं दिखता। वर्षो से अनेक सरकारी योजनाओं की घोषणाएं हमारे सामने आती हैं, जिनसे ऐसा लगता है कि गरीब अब पेट में अन्न से वंचित नहीं होगा तथा उसके सिर पर अपनी छत नहीं हो तो भी उसे आश्रय मिल जाएगा। कम से कम राजधानी होने के कारण दिल्ली को तो इस मायने में आदर्श होना ही चाहिए था कि यहां भूख और सामान्य बीमारी से कोई न मरे। सरकार ने न्यूनतम मजदूरी इतनी कर दी है कि गरीब परिवार उसमें जी सकता है। किंतु प्रतिदिन मजदूरी मिले तब न। शहरों पर बढ़ता बोझ और खाली होते गांव देश को असंतुलित कर रहे हैं। इसे बदलने के लिए जो भी संभव हो किया जाना चाहिए। आखिर हम कब चेतेंगे? क्या सब कुछ नष्ट हो जाने के बाद?
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