क्रिकेट में ‘लड़कर’ हारे क्यों, जीते क्यों नहीं?
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: October 10, 2018 01:09 AM2018-10-10T01:09:31+5:302018-10-10T01:09:31+5:30
अगर किसी एक मुख्य वजह से भारतीय टीम हारी, तो वह थी 11 की टीम बनाने में सही खिलाड़ियों का चुनाव न करना, और न ही अपने गलत चुनाव की गलती को स्वीकार करने की उदारता दिखाना।
अभय कुमार दुबे
विलायती जमीन से टेस्ट श्रृंखला हार कर आई भारतीय टीम अब घरेलू पिचों पर वेस्टइंडीज से खेल रही है। दो मैचों की सीरीज से उसे केवल इतना लाभ होगा कि अंग्रेजों के हाथों पिटने के बाद अंतर्राष्ट्रीय रैंकिंग में हुई उसकी गिरावट में कुछ सुधार आ जाएगा। वेस्टइंडीज की टीम तो इतनी कमजोर है कि बड़ोदरा, मुंबई या दिल्ली की रणजी ट्रॉफी टीमें भी उसे हरा सकती हैं। इस सीरीज को न कोई देखेगा, न कोई उसमें हुई बल्लेबाजी और गेंदबाजी पर ध्यान देगा।
केवल रिकॉर्ड बुक में शतक और विकेट दर्ज हो जाएंगे। ऐसी टेस्ट श्रृंखला होने से बेहतर है कि न होती। लेकिन, भारतीय क्रिकेट में यह एक पैटर्न बन गया है। विदेश में हार कर आओ और अपने मैदानों पर जीत कर उसकी भरपाई करो। इस तरह विश्व में नंबर एक या दो बने रहो। भारत के कई कप्तान तो ऐसे हैं जिनकी विदेशी धरती पर उपलब्धियां शून्य हैं। एक माने में तो हमारी टीम को श्रीलंका में भी जीतने में बहुत मुश्किल होती थी।
दिक्कत की बात यह है कि इस पैटर्न की कहीं कोई खास आलोचना नहीं होती, क्योंकि तकनीकी रूप से इस पर आपत्ति नहीं की जा सकती। लेकिन, इस तरह के मुकाबले ऐसे हैं कि जैसे किसी हैवीवेट चैम्पियन को किसी लाइटवेट या फैदरवेट मुक्केबाज से भिड़ा दिया हो। इस क्रिकेट में न कोई गुणवत्ता है, न ही स्पर्धा। ऐसा लग रहा है कि क्रिकेट न हो कर उसकी मिमिक्री चल रही हो।
जहां स्पर्धा थी, वहां भारतीय टीम इसके बावजूद हार गई कि उसे बल्लेबाजी का पॉवरहाउस माना जाता है और उसके पास अपने इतिहास का सबसे बेहतरीन, संतुलित और विविधतापूर्ण बॉलिंग अटैक है। गेंदबाजों ने तो अच्छा खेल दिखाया, पर बल्लेबाज जरूरत के वक्त वह नहीं कर पाए जिसकी उनसे उमीद थी। इसी मुकाम पर भारतीय कप्तान और कोच रणनीति के मैदान में भी चूक गए।
अगर किसी एक मुख्य वजह से भारतीय टीम हारी, तो वह थी 11 की टीम बनाने में सही खिलाड़ियों का चुनाव न करना, और न ही अपने गलत चुनाव की गलती को स्वीकार करने की उदारता दिखाना। जिन-जिन खिलाड़ियों को शुरू में खिलाने से परहेज किया गया, वे ही वहां की पिचों पर बेहतर खिलाड़ी साबित हुए। और, जो समीक्षक और क्रिकेट कमेंटेटर हैं, वे राष्ट्रवाद के मारे हुए हैं।
उन्होंने मानो कसम खा ली है कि वे किसी भी तरह से भारतीय कप्तान और टीम के प्रबंधन की आलोचना करने से बचते रहेंगे। सुनील गावस्कर ने पराजय के बाद टीम के नेतृत्व की जो आलोचना की, वह अगर पहले की गई होती तो उससे टीम को अपने रवैये में संशोधन करने में मदद मिल सकती थी।
जहां तक वैश्विक स्तर का सवाल है, भारतीय टीम केवल सीमित ओवरों की प्रतियोगिता में उपमहाद्वीप से बाहर की टीमों को नियमित रूप से हराने की क्षमता रखती है। टेस्ट मैच क्रिकेट में केवल सौरव गांगुली के जमाने में विदेशी जमीन पर उसकी दावेदारियां कुछ मजबूत हुई थीं। सौरव से पहले और सौरव के बाद हम लोग यदाकदा ही विदेशी धरती पर जीतते थे। मुङो तो लगता है कि आजकल उपमहाद्वीप में भी पाकिस्तान की टीम से भारत की टेस्ट श्रृंखलाएं न होने और श्रीलंका की टीम का स्तर बहुत ज्यादा गिर जाने कारण भारत को अपनी रैंकिंग सुधारने में कुछ अधिक आसानी होती है।
दूसरी तरफ भारत के सीमित ओवरों की प्रतियोगिता में प्रभुत्व को जल्दी ही एक बहुमुखी चुनौती मिलने का अंदेशा पैदा हो गया है। यह चुनौती बांग्लादेश और अफगानिस्तान की तरफ से आने वाली है। बांग्लादेश एक पुराना प्रतियोगी है और भारत को विश्व कप तक में हरा चुका है। लेकिन, अफगानिस्तान एक नई ताकत है जिसने पिछले दिनों सीमित ओवर क्रिकेट की युक्तियों पर तेजी से महारत हासिल करके दिखाई है। भारत को उससे सतर्क रहना होगा।
टेस्ट मैच में उसकी असली परीक्षा एक बार फिर ऑस्ट्रेलिया में होगी। इंग्लैंड की पराजय को हल्का दिखाने के लिए ‘लड़कर हारे’ वाला तर्क वहां न चलाना पड़े, यह भारत के हर क्रिकेट प्रेमी की उम्मीद है। अगर यह उम्मीद पूरी न हुई तो यह सवाल लाजिमी तौर पर पूछा जाएगा कि विदेशी जमीन पर हम ‘लड़ कर’ हारते ही क्यों हैं, जीतते क्यों नहीं हैं ?