वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉगः मंदी- साहसिक कदम की दरकार
By वेद प्रताप वैदिक | Published: August 30, 2019 07:22 AM2019-08-30T07:22:36+5:302019-08-30T07:22:36+5:30
26 अगस्त को रिजर्व बैंक ने भारत सरकार को 1.7 लाख करोड़ रु. देने की घोषणा कर दी और 28 अगस्त को वित्त मंत्नी ने ऐसी घोषणाएं कर दीं, जिनसे भारत में विदेशी विनियोग में आसानी होगी. इसके अलावा गन्ना किसानों को छह हजार करोड़ रु. से ज्यादा की सहायता दे दी और 75 नए मेडिकल कॉलेज खोलना भी तय कर लिया.
यदि अगस्त का पहला हफ्ता भारत में कश्मीर के पूर्ण विलय का हफ्ता माना जाएगा तो अगस्त का यह आखिरी डेढ़ हफ्ता भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का माना जाएगा. वित्त मंत्नी निर्मला सीतारमण ने मंदी को सुधारने के 32 उपाय प्रतिपादित किए. उद्योगपति और व्यवसायी लोग अपने धंधों को गति दे सकें और बैंक उनकी मदद कर सकें, इसलिए बैंकों को सरकार ने 70 हजार करोड़ रु. देना तय किया.
26 अगस्त को रिजर्व बैंक ने भारत सरकार को 1.7 लाख करोड़ रु. देने की घोषणा कर दी और 28 अगस्त को वित्त मंत्नी ने ऐसी घोषणाएं कर दीं, जिनसे भारत में विदेशी विनियोग में आसानी होगी. इसके अलावा गन्ना किसानों को छह हजार करोड़ रु. से ज्यादा की सहायता दे दी और 75 नए मेडिकल कॉलेज खोलना भी तय कर लिया. शीघ्र ही सरकार भवन-निर्माण के क्षेत्न में और आयकर में भी बहुत-सी रियायतों की घोषणा करनेवाली है.
यह सब सरकार को इतनी हड़बड़ी में क्यों करना पड़ रहा है? इसीलिए करना पड़ रहा है कि देश का सकल उत्पाद काफी घटने का डर है. बेरोजगारी पिछले 6-7 साल में बहुत बढ़ गई है. अकेले मोटर-कार उद्योग में साढ़े तीन लाख लोग घर बैठ गए हैं. बिस्कुट कंपनी पार्ले ने 10 हजार कर्मचारी छांट दिए हैं. भवन-निर्माण उद्योग लगभग दिवालिया हो गया है. हजारों फ्लैट खाली पड़े हैं. उन्हें खरीददार नहीं मिल रहे हैं.
आम आदमी की क्रय-शक्ति घट गई है. नोटबंदी ने लाखों मजदूरों और व्यापारियों के घुटने तोड़ दिए हैं. जीएसटी भी ऐसे लचर-पचर ढंग से लागू की गई कि उससे लोगों को फायदा कम, नुकसान ज्यादा हो गया. बैंकों का अरबों-खरबों रु. नेताओं और कर्जदारों की मिलीभगत के कारण डूब गया है.
उम्मीद है कि अभी वित्त मंत्नालय आनन-फानन जो कदम उठा रहा है, उससे स्थिति कुछ संभलेगी, वरना ज्यों ही बेरोजगारी और महंगाई और बढ़ी कि देश में हाहाकार मचना शुरू हो जाएगा. विरोधी दलों की आवाजें बुलंद होती चली जाएंगी. पांच-खरब की अर्थव्यवस्था का सपना देखनेवाली सरकार की सारी ताकत खुद को बचाए रखने में खर्च हो जाएगी. राजनीति पर रुपया भारी पड़ जाएगा. इस समय जरूरी है कि सरकार देश के प्रमुख अर्थशास्त्रियों के साथ मुक्त संवाद कायम करे और अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए साहसिक कदम उठाए.