मुकुल वासनिक
रोजगार गारंटी योजना का स्वरूप बदलने वाले नए विधेयक के परिणाम न सिर्फ दूरगामी होंगे, बल्कि भारत के करोड़ों-करोड़ गरीब जरूरतमंद लोगों के ऊपर इसका असर होगा. ग्रामीण रोजगार से संबंधित एक कानून, जो संसद में 2004 में आया था, उसके संदर्भ में मैं कुछ बातों की तरफ ध्यान खींचना चाहूंगा. 2004 में राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना पर एक विधेयक सदन के सामने रखा गया. यह विधेयक बनाने में तत्कालीन प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) की अध्यक्ष सोनिया गांधी की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी.
यह विधेयक बनने के बाद, सदन के सामने रखने के बाद इसे स्टैंडिंग कमेटी के सामने भेजा गया और जब आखिर में यह फिर सदन के सामने आया, तो 18 अगस्त, 2005 को सदन में बोलते हुए सोनिया गांधी ने यह बात कही, ‘‘यह विधेयक सामाजिक कार्यकर्ताओं, स्वयंसेवी संस्थाओं, अनुभवी प्रशासकों और ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों के साथ व्यापक विचार-विमर्श करने के बाद तैयार हुआ है.
एनएसी को इसकी मुख्य बातों को विस्तार से देखने और समझने का मौका मिला. स्टैंडिंग कमेटी और संबंधित मंत्रालयों ने भी इस पर गंभीरता से विचार किया. इस पर सार्वजनिक बहस भी हुई. राजनीतिक भेदभाव के बगैर समाज और सरकार के बीच आपस में किस तरह सहयोग के साथ काम हो सकता है, मैं समझती हूं कि यह विधेयक उसका एक जीवंत उदाहरण है.’’
यह बात 2005 की है. इस कानून को आम सहमति से संसद ने मंजूरी दी. भारत के करोड़ों-करोड़ लोगों को उसका लाभ पहुंचा. मैं वर्तमान ग्रामीण विकास मंत्री से कहना चाहता हूं कि दिल पर हाथ रख कर कहिए कि जो बात सोनिया गांधी ने 2005 में कही थी, क्या आप यह बात यहां पर सदन में दोहरा सकते हैं?
मैं प्रधानमंत्री जी से पूछना चाहूंगा कि एक ऐसा विधेयक, जिसका असर भारत के गरीबों पर होगा, भारत की गरीब महिलाओं पर होगा, जरूरतमंद लोगों पर होगा, तो क्या वैसी आम सहमति, जो पहले संसद में बनी थी, उस दिशा में आपने कोई पहल की? दुर्भाग्य से इस तरह की कोई पहल इस सरकार ने नहीं की और मैं समझता हूं कि भारत के करोड़ों-करोड़ लोगों के ऊपर इसका बहुत गंभीर असर होगा.
‘मनरेगा’ के जरिए काम करने के सार्वभौमिक अधिकार की स्थापना हुई. मनरेगा एक मांग आधारित गारंटी योजना बनी, जिसमें हर ग्रामीण मजदूर को मांग करने के 15 दिनों के भीतर काम मिलना अनिवार्य था और अगर उसे काम नहीं मिलता है तो उसमें उसको बेरोजगारी भत्ता देने का एक प्रावधान था. मनरेगा पूरे साल चलने वाली योजना थी.
इस योजना में केंद्रीय आवंटन की कोई सीमा नहीं रखी गई थी और उसमें मजदूरी का 100 प्रतिशत भुगतान केंद्र सरकार करती थी. लागत साझा करने के मामले में 90:10 का अनुपात रखा गया था, जिसमें 100 प्रतिशत मजदूरी भारत सरकार की और 75 प्रतिशत मटेरियल का खर्च भारत सरकार का था. इसके साथ ही, मनरेगा में कौन-से कामों का चयन करना है,
उसमें ग्राम सभा और पंचायत की प्रमुख भूमिका रखी गई थी. लेकिन आज इसके स्थान पर जो विधेयक आया है, वह किस तरह का विधेयक है? पंचायती राज व्यवस्था की जो प्रमुख भूमिका मनरेगा में रही, उसको अब समाप्त कर दिया गया है. अब भारत सरकार इसमें प्राथमिकता तय करेगी और उन प्राथमिकताओं के अनुरूप पंचायती व्यवस्थाओं में काम चलाने का इरादा इस विधेयक में रखा गया है.
सरकार इस तरह का विधेयक संसद के सामने लाई है, लेकिन इस पर लोगों के बीच कोई चर्चा नहीं, स्वयंसेवी संस्थाओं में कोई चर्चा नहीं, विशेषज्ञों के साथ कोई चर्चा नहीं, स्टैंडिंग कमेटी में भेजने की मांग उठी, तो उसे ठुकरा दिया गया. मुझे लगता है कि इससे भारत सरकार की मंशा समझ में आती है. यह लोगों की भलाई के लिए नहीं है, बल्कि इसको एक राजनीतिक हथियार बनाकर सामने लाया गया है.
मनरेगा में 90:10 के अनुपात में लागत साझा करने की व्यवस्था थी, लेकिन आज लागत साझा करने में 60:40 का अनुपात रखा गया है. यह तय करने से पहले, क्या भारत सरकार ने राज्य सरकारों से कोई बातचीत की? उनके ऊपर बोझ पड़ेगा, उनकी आर्थिक स्थिति और कमजोर होगी, तो क्या भारत सरकार ने प्रदेशों को विश्वास में लेने का काम किया? प्रदेशों से बात नहीं होगी और उनके ऊपर बोझ डालने का काम होगा, तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है. एक फेडरल व्यवस्था में इस तरह से काम नहीं हो सकता.
केंद्र सरकार साल की शुरुआत में तय करेगी कि राज्यों को कितना आवंटन होगा. राज्यों की जरूरत और मजदूरों की जरूरत के हिसाब से नहीं बल्कि केंद्र सरकार अपनी मर्जी से साल की शुरुआत में तय करेगी कि इस प्रदेश को इतने करोड़ और उस प्रदेश को उतने करोड़ मिलेगा. अगर वहां पर महामारी फैली, वहां पर सूखा होगा, वहां पर अकाल होगा, वहां पर अतिवृष्टि होगी, वहां पर बाढ़ होगी,
लोगों का नुकसान होगा, उनको काम की जरूरत होगी, तो भारत सरकार कहेगी हमने तय कर लिया है कि आपको इतना ही धन मिलेगा और अगर इससे अधिक खर्च करना हो, तो प्रदेश सरकार कर सकती है, लेकिन प्रदेश सरकार को उसका खर्च वहन करना होगा, भारत सरकार उसका भुगतान नहीं करेगी, लेकिन यह खर्च करते हुए भी भारत सरकार के मापदंडों के मुताबिक ही वह खर्च करना होगा,
इस तरह की व्यवस्था इस विधेयक के जरिए सामने लाने का प्रयास होगा. भारत सरकार कहां पर, किसको, कितना, कब काम मिलेगा यह सारा का सारा तय करेगी और प्रदेशों के ऊपर बोझ डालने का काम करेगी. इससे ज्यादा और कोई दुर्भाग्यपूर्ण बात नहीं हो सकती है. जब बुआई का समय होगा या जब खेती का पीक सीजन होगा, तो प्रदेश सरकारों को वहां पर 60 दिनों तक का पूरा-का-पूरा ब्लैकआउट पीरियड नोटिफाई करना होगा, यानी वहां पर इन 60 दिनों के अंदर महिलाओं, जरूरतमंदों, गरीबों को काम नहीं मिलेगा. इसके पीछे इरादा क्या है?
क्या वहां के लोगों की परेशानियों की आपको किसी तरह से कोई चिंता नहीं है? अगर इससे आगे बढ़ते हैं, तो इसमें अटेंडेंस लेने के लिए बायोमेट्रिक की व्यवस्था सुझाई गई है. लेकिन देहात में सड़कों पर मिट्टी में पत्थरों पर काम करने वाले जिस मजदूर के हाथों पर उसकी लकीरें मिट गई हैं, पत्थर तोड़ते-तोड़ते उसके हाथ भी पत्थर बन गए हैं और आप समझते हैं कि आप बायोमेट्रिक के जरिए उसकी अटेंडेंस कामों पर लेंगे! कानून में इस तरह के प्रावधान एक बड़ी परेशानी का सबब बन सकते हैं. ‘मनरेगा’ ने देश की बहुत सेवा की है.
जब देश में कोविड की महामारी थी, तो दो ही योजनाएं मुल्क के सामने ऐसी थीं- ‘नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट’ और ‘मनरेगा’ - जिसने लोगों को राहत देने का काम किया. लेकिन ‘नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट’ का नाम बदल दिया गया. ‘मनरेगा’ के बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 27 फरवरी, 2015 को कहा था कि ‘मनरेगा’ हम चलने देंगे, यह योजना कांग्रेस की विफलताओं का एक जीता-जागता स्मारक है.
यह कांग्रेस पार्टी की विफलताओं का स्मारक नहीं है, यह हमारी उपलब्धियों का प्रतीक है. जिन घरों में अंधेरा छाया हुआ था, वहां रोशनी फैलाने का काम ‘मनरेगा’ के जरिए हुआ. जब 2005 में ग्रामीण रोजगार पर विधेयक संसद में पारित हुआ था, तो ‘रोजगार गारंटी जिंदाबाद’ के नारे लगे थे. उसी सदन में आज अगर मायूसी छाई है, तो सरकार को इस पर गौर करना चाहिए,
इस विधेयक को वापस लेना चाहिए और सेलेक्ट कमेटी के पास भेजना चाहिए. जल्दबाजी करने की जरूरत नहीं है. समय लीजिए, हो सकता है कि इसमें बुनियादी बदलाव करना हो, तो कीजिए. आप लाइए अच्छा विधेयक, हम भी पूरा समर्थन देंगे. हम मिलकर भारत के मजदूरों को, भारत के गरीबों को ऊपर उठाने का काम करेंगे. यह इरादा रखो, तो साथ में मिलकर आगे चलेंगे.
योजना का नाम बदलने से नहीं मिटेगा ‘गांधी’ का नाम
केंद्र सरकार ‘मनरेगा’ का नाम बदल रही है. इस योजना से महात्मा गांधी का नाम मिटा कर कोई दूसरी योजना बनाने की कोशिश की जा रही है. महात्मा गांधी से इतनी परेशानी, नाम से इतनी नफरत, नाम से इतना द्वेष ! यह पहली बार नहीं हो रहा है, बल्कि इस सरकार ने इससे पहले भी गांधीजी के साथ 2017 में ऐसा ही किया था.
2012 में महात्मा गांधी के नाम से प्रवासी भारतीयों के लिए एक सुरक्षा योजना बनी थी, उसे 2017 में इस सरकार ने बदल दिया और अटल पेंशन योजना में इसको सम्मिलित कर दिया. अगर अटल जी के नाम से कोई योजना बनती है, तो हमें परेशानी नहीं है. अटल जी भारत के माननीय प्रधानमंत्री रहे, उनके नाम से आप योजनाएं बनाइए.
ये वही अटल बिहारी वाजपेयी हैं, जिन्होंने कभी नेहरूजी के निधन पर कहा था कि भारत ने आज अपना सबसे लाडला राजकुमार खो दिया. आप अटलजी के नाम पर स्कीम बनाएंगे तो परेशानी नहीं है, लेकिन गांधीजी का नाम क्यों हटाते हैं! पुराने संसद भवन के सामने गांधीजी की एक मूर्ति जो प्रमुख द्वार पर लगी हुई थी, आज वह मूर्ति कहां चली गई?
याद रखिए कि इस मिट्टी के कण-कण में गांधी बसा हुआ है, इस मिट्टी के कण-कण में सरदार पटेल, जवाहर नेहरू और मौलाना आजाद बसे हैं. आप स्कीमों से नाम हटा सकते हैं, लेकिन भारत के लोकतंत्र की बुनियाद रखने वाले इन महानुभावों को, भारत रत्न बाबासाहब आंबेडकर को - आप लोकतंत्र को चोट पहुंचाने की लाख कोशिश करते रहें, लेकिन यह कभी संभव नहीं हो सकता.
नाम बदलकर अगर आप सोच रहे हो कि इतिहास बदल जाएगा तो याद रखो, जिस मिट्टी में मजदूर का पसीना गिरा है, वहां गांधी लिखा है. तुम्हारा डर साफ है. एक आदमी जिसके पास न तख्त था, न ताज, आज भी तुम्हारी नींद उड़ाता है, इसलिए कभी किताबों से हटाते हो, कभी योजनाओं से हटाते हो, कभी चुप्पी से मारते हो, कभी नाम बदलकर, पर सुन लो, गांधी न पोस्टर है, न योजना का शीर्षक. मिटाने की कोशिश के बावजूद गांधी जिंदा रहेगा.