हकीकत और दावे के बीच सब माया ही माया!
By पवन के वर्मा | Published: August 27, 2018 07:22 AM2018-08-27T07:22:29+5:302018-08-27T07:22:29+5:30
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा देकर कहा था कि इस वादे को पूरा नहीं किया जा सकता है। अब चार साल बाद वादे को निभाया गया है।
माया है सब माया है! हाल ही में कोलकाता में चेंबर ऑफ कॉमर्स को संबोधित करते हुए। अपने देश की अर्थव्यवस्था की आज की स्थिति को समझने के लिए मैंने माया की दार्शनिक अवधारणा का उपयोग करने की कोशिश की। माया भ्रम की एक लौकिक शक्ति है। जो चीजों की सच्चाई को ओट में छिपाए भी रखती है और उसे विकृत भी करती है। फलस्वरूप सत्य खुद भी भ्रम में बदल जाता है। हमारी अर्थव्यवस्था की स्थिति भी माया जैसी ही है।
ऐसा नहीं कि एनडीए के चार साल के शासनकाल में कुछ भी हासिल नहीं हुआ है। किसी भी सरकार का रिकॉर्ड पूरी तरह श्वेत या श्याम नहीं होता। लेकिन वास्तव में कितना हासिल हुआ है और कितने का दावा किया जा रहा है।
यह बहस का विषय है। उदाहरण के लिए। सरकार का आंकड़ों के साथ दावा है कि उच्चतम जीडीपी विकास दर के साथ भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बन गया है। लेकिन आलोचकों का कहना है कि यदि हम वास्तव में दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था हैं तो क्यों नहीं इस विकास के नतीजे वास्तविकता के धरातल पर दिखाई पड़ते हैं?
उदाहरण के लिए। क्यों हम अभी भी विश्व भूख सूचकांक में 119 देशों की सूची में सौवें स्थान पर हैं और 2016 तथा 2017 के बीच आगे बढ़ने के स्थान पर तीन पायदान नीचे ही फिसले हैं और यहां तक कि नेपाल व बांग्लादेश से भी पीछे हैं?
अन्य पहेलियां भी हैं। सरकार का दावा है कि कई योजनाओं के तहत बड़ी संख्या में किसानों को कर्ज दिया गया है। लेकिन अगर ऐसा है तो फिर क्यों किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं? सरकार का कहना है कि कई क्षेत्रों में कृषि उत्पादन बहुत अधिक हो गया है और इस रिकॉर्डतोड़ उत्पादन के लिए हमें अपने किसानों पर गर्व होना चाहिए।
यह कुछ हद तक ही सच है। लेकिन अगर ऐसा है तो फिर क्यों हमारे किसान यह कहते हुए अपनी उपज सड़कों पर फेंक रहे हैं कि उन्हें अपनी कड़ी मेहनत का समुचित लाभ नहीं मिल रहा है? बीमा फसल योजना एक नेकनीयत पहल थी। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि इस योजना के कार्यान्वयन के तरीके से किसानों के बजाय बीमा कंपनियां ही अधिक लाभान्वित हुई हैं।
यही बात एमएसपी के बारे में भी है। सरकार ने घोषणा की है कि वह किसानों को वादे के अनुसार उनकी उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य देगी। वादा किसानों को उनकी फसल लागत पर 50 प्रतिशत अधिक भुगतान करने का था। यह सकारात्मक कदम है। लेकिन क्या यह देरी से उठाया गया और बहुत छोटा कदम नहीं है? यह वादा 2014 के चुनाव के समय किया गया था। 2015 में।
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा देकर कहा था कि इस वादे को पूरा नहीं किया जा सकता है। अब चार साल बाद। वादे को निभाया गया है। लेकिन यहां पर महत्वपूर्ण सवाल यह है कि उत्पादन लागत की गणना कैसे की जाएगी और ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि भंडारण तथा सरकारी खरीद के लिए बुनियादी सुविधाओं के अभाव में क्या खरीद की बढ़ी हुई कीमतें किसानों तक पहुंच पाएंगी?
सच्चाई और दावे तथा प्रतिदावे का यह खेल कई अन्य क्षेत्रों में भी है। सरकार का दावा है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश रिकॉर्ड उच्च स्तर पर है। लेकिन डॉलर के मुकाबले रुपए की दर अपने न्यूनतम स्तर को पार कर गई है। इस सरकार के प्रारम्भिक वर्षो में तेल की कीमतें ऐतिहासिक रूप से कम थीं। लेकिन उसका लाभ उपभोक्ताओं तक नहीं पहुंचाया गया और अब वे अस्वीकार्य उच्च स्तर पर हैं।
जन धन योजना के अंतर्गत रिकॉर्ड संख्या में लोगों के खाते खुलवाए गए। लेकिन यह पता लगाने की आवश्यकता है कि उनमें से कितनों में लेनदेन हुआ है। इसमें कोई संदेह नहीं कि गैस सिलेंडर के लिए उज्ज्वला योजना एक अच्छी पहल है। लेकिन लोगों का कहना है कि दिए गए सिलेंडरों में करीब आधे दुबारा भराए ही नहीं गए हैं। बुलेट ट्रेन की परियोजना जब कार्यान्वित होगी तो वास्तव में भारतीयों को उस पर गर्व होगा।
लेकिन साधारण ट्रेनों में। जिनमें सामान्य लोग यात्र करते हैं। दुर्घटनाएं होती रहती हैं। क्योंकि उनकी सुरक्षा और रखरखाव को अपग्रेड करने के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं है। स्वच्छ भारत एक प्रशंसनीय लक्ष्य है। लेकिन इसके लिए एक ईमानदार सामाजिक लेखा परीक्षण करने की जरूरत है कि जितने करोड़ शौचालयों के निर्माण का दावा किया गया है।
वास्तव में उनमें से कितनों का उपयोग हो रहा है और क्यों इस अभियान के चार वर्षो के बावजूद। देश की राजधानी में भी कचरा निपटान की समस्या इतनी ज्यादा है कि सुप्रीम कोर्ट को यह टिप्पणी करने पर बाध्य होना पड़ा कि गाजीपुर लैंडफिल में जमा होने वाला कचरा जल्द ही ऊंचाई में कुतुब मीनार को पीछे छोड़ देगा?
सरकार का कहना है कि विकास रोजगार विहीन नहीं है। करोड़ों लोगों को मुद्रा लोन दिए गए हैं और स्वरोजगार करने वालों की संख्या बढ़ी है। लेकिन आम लोगों का दावा है कि एक साल में दो करोड़ नौकरियों का वादा स्पष्ट रूप से झूठा साबित हुआ है और वास्तव में न केवल नौकरियां मिलना कठिन साबित हो रहा है। बल्कि जो लोग नौकरी पर हैं। उनकी भी छंटनी की जा रही है।
कॉर्पोरेट नेता टीवी कैमरों के सामने सरकार की प्रशंसा करते हैं। लेकिन निजी बातचीत में खराब निवेश वातावरण और व्यावसायिक आत्मविश्वास के क्षरण की बात कहते हैं। भ्रष्टाचार के स्तर के बारे में दावा किया जाता है कि इसमें कमी आई है। लेकिन हजारों करोड़ रु का चूना लगाकर विदेश भागने वाले आर्थिक अपराधियों की संख्या बढ़ी है। जबकि बैंक एनपीए के पहाड़ से जूझ रहे हैं।
माया है सब माया है! इसकी भ्रामक शक्ति को कौन कम आंक सकता है? पूर्ण सत्य कहीं ओट में छिपा है। कौन उसे बाहर निकालेगा। यह लाख टके का सवाल है।