भारत में ग्लोबल ब्रांड्स के सामने चुनौतियां, अमेरिका और चीन के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा ऑटोमोबाइल बाजार भारत

By ऋषभ मिश्रा | Updated: August 1, 2025 05:17 IST2025-08-01T05:17:05+5:302025-08-01T05:17:05+5:30

कार निर्माताओं को भारत हमेशा लुभाते आया है. दुनियाभर की अनेक कंपनियों ने यहां अपने उत्पाद लांच किए हैं.

Challenges faced global brands in India third largest automobile market world after US and China blog rishabh mishra | भारत में ग्लोबल ब्रांड्स के सामने चुनौतियां, अमेरिका और चीन के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा ऑटोमोबाइल बाजार भारत

सांकेतिक फोटो

Highlightsकई विदेशी ब्रांड्स खासकर अमेरिकी और यूरोपीय फेल हो गए.भारत में संभावित प्रदर्शन पर सबकी नजरें टिक गई हैं.इसके बारे में अभी कुछ भी अनुमान लगाना जल्दबाजी होगा.

टेस्ला ने हाल ही में भारत में अपनी बहुप्रतीक्षित कार लांच कर दी है. हालांकि इससे पहले बीते दो दशक के दौरान  अनेक ग्लोबल ब्रांड्स भारत में नाकाम हो चुके हैं. भारत आज अमेरिका और चीन के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा ऑटोमोबाइल बाजार है. यही वजह है कि कार निर्माताओं को भारत हमेशा लुभाते आया है. दुनियाभर की अनेक कंपनियों ने यहां अपने उत्पाद लांच किए हैं.

हालांकि इनमें से कई विदेशी ब्रांड्स खासकर अमेरिकी और यूरोपीय फेल हो गए और उन्हें अपना कारोबार समेटकर जाना पड़ा. अमेरिकी और यूरोपीय ब्रांड्स के बनिस्बत जापान और कोरियाई ब्रांड्स अपेक्षाकृत सफल रहे. अब जबकि अमेरिका के एक और ग्लोबल ब्रांड्स ने भी अपनी कार लांच कर दी है, उसके भारत में संभावित प्रदर्शन पर सबकी नजरें टिक गई हैं.

वैसे इसके बारे में अभी कुछ भी अनुमान लगाना जल्दबाजी होगा. वस्तुतः किसी भी प्रोडक्ट की सफलता के लिए सबसे जरूरी है कि वह मार्केट फिट हो. यानी वह उस बाजार के उपभोक्ताओं की जरूरतों और प्राथमिकताओं के अनुसार ढला हो. ऐसा न होने पर उसकी विफलता तय रहती है.  गौरतलब है कि जापानी और कोरियाई कंपनियां पहले से ही छोटी और किफायती कारें बना रही थीं,

जो भारत के बाजार की मांग के अनुरूप था. चूंकि वे छोटी कारें बना रही थीं इसलिए उनके लिए 4-मीटर नियम में फिट होना भी आसान था. इस नियम के अनुसार कोई छोटी पैसेंजर कार 4-मीटर से छोटी हो और उसमें 1.2 लीटर तक का पेट्रोल इंजन या 1.5 लीटर तक का डीजल इंजन हो तो उस पर कम टैक्स लगता है. इस तरह जापानी-कोरियाई कंपनियों को टैक्स का फायदा मिला.

इससे वे किफायती कारें बना सकीं. उन्हें बाजार पर कब्जा करने में आसानी हुई. इन कंपनियों ने समय रहते सर्विस इंफ्रास्ट्रक्चर भी अच्छा खड़ा किया. वहीं दूसरी तरफ अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियां एक अलग तरह के माहौल में काम करती हैं. वे अमूमन छोटी कारें नहीं बनाती हैं. भारत के हिसाब से देखें तो मार्केट फिट के पैमाने पर सबसे बड़ी खामी तो यहीं हो गई.

इनके उत्पाद पहले से ही महंगे थे और फिर 4-मीटर नियम का पालन न करने की वजह से इसे टैक्स के फायदे भी नहीं मिले.  इससे भी वे अपनी कारों के दाम कम नहीं कर सकीं. इन कंपनियों के लगभग तमाम मॉडलों के माइलेज भी बहुत कम थे.

वस्तुतः माइलेज किसी ऑटोमोबाइल प्रोडक्ट को चुनने का भारतीय उपभोक्ताओं के पीछे एक अहम फैक्टर होता है.  सर्विस व आफ्टर सेल्स के बुनियादी ढांचे पर भी इन्होंने काम नहीं किया. फिर जब शुरुआती मॉडल विफल हुए तो कंपनियों के हेड ऑफिस ने नए निवेश से दूरी बना ली. नतीजा यह हुआ कि भारत में उनके ऑपरेशन धीरे-धीरे बंद होते गए.    

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