विजय दर्डा का ब्लॉग: रिश्तों की इस डोर को आखिर क्या नाम दूं..?
By विजय दर्डा | Published: May 4, 2020 07:34 AM2020-05-04T07:34:11+5:302020-05-04T07:34:11+5:30
न इरफान की उम्र ज्यादा थी और न ही ऋषि कपूर बहुत उम्रदराज थे. दोनों को कैंसर ने हमसे छीन लिया. इन दोनों के बैकग्राउंड और हालात बिल्कुल अलग थे लेकिन दोनों को एक बात बहुत बड़ा बनाती थी और वह थी इंसानियत. दोनों बेहतरीन इंसान थे.
हमने बीते सप्ताह दो शानदार इंसान और हरफनमौला कलाकार खो दिए. इरफान और ऋषि कपूर. दोनों ही एक दूसरे से अंदाज में बिल्कुल अलग लेकिन दोनों ही एक जैसे प्यारे, न्यारे और दर्शकों के दुलारे! हर किसी को लग रहा है जैसे अपने परिवार का ही कोई हिस्सा चला गया हो. इसका कारण यह है कि रोजाना की आपाधापी, चिंताओं और गम के बीच उन्हीं से हमें सुकून मिलता है. जहां सुकून मिलता है, वहां करीबी स्वाभाविक रूप से पैदा हो जाती है. उनके साथ गहरे रिश्ते बन जाते हैं. इसलिए किसी भी कलाकार का जाना हमें बहुत दर्द देता है. न केवल कलाकार बल्कि राष्ट्रीय पुरुष हों या अन्य विधाओं के हीरो, उन्हें हम गहराई से चाहने लगते हैं और जब वे चले जाते हैं तो हम सब शोक में डूब जाते हैं. आखिर रिश्तों की इस डोर को आप क्या नाम देंगे?
लेकिन जब कम उम्र में लोग चले जाते हैं तो तकलीफ ज्यादा होती है. न इरफान की उम्र ज्यादा थी और न ही ऋषि कपूर बहुत उम्रदराज थे. दोनों को कैंसर ने हमसे छीन लिया. इन दोनों के बैकग्राउंड और हालात बिल्कुल अलग थे लेकिन दोनों को एक बात बहुत बड़ा बनाती थी और वह थी इंसानियत. दोनों बेहतरीन इंसान थे. इरफान एक बिल्कुल साधारण से परिवार के थे. उन्हें विरासत में कुछ भी नहीं मिला था. न वे खूबसूरत थे और न ही चॉकलेट ब्वॉय थे लेकिन अभिनय उनका लाजवाब था. उनकी आंखें बोलती थीं. वे किरदार में समा जाते थे और किरदार उनके भीतर समा जाता था. वे बगैर किसी सहारे के मुंबई पहुंचे थे और अपना बड़ा मुकाम उन्होंने अपने दम पर पाया. उनकी निजी जिंदगी बड़ी साफ-सुथरी थी. उनके पिता यासीन अली खान तो कहा करते थे कि पठान के घर में ये ब्राह्मण पैदा हो गया.
उनकी सहजता का एक उदाहरण मैं आपके साथ शेयर करना चाहूंगा. मेरी उनसे केवल एक बार मुलाकात हुई लेकिन वह मुलाकात उनकी सहजता की छाप मुझ पर छोड़ गई. मैं मुंबई से दिल्ली जा रहा था. एयरपोर्ट टर्मिनल से एयरक्राफ्ट तक जाने के लिए बस में सवार हुआ तो उसमें इरफान भी थे. वे थोड़े परेशान लग रहे थे क्योंकि फ्लाइट थोड़ी डिले हो चुकी थी. उन्होंने मुझसे पूछा कि फ्लाइट मिस तो नहीं हो जाएगी? मैंने कहा कि जब बस में सवार हो गए हैं तो फ्लाइट हमें लेकर ही जाएगी! वे बड़ी सहजता से बोले- मैं तो कनेक्टिंग फ्लाइट के बारे में बात कर रहा हूं. तो इतने बाल सुलभ मन के थे हम सबके इरफान. राजेंद्र और आशू ने उन्हें जब औरंगाबाद लोकमत परिसर में बुलाया तो वे बिना ना-नुकुर किए चले आए. वहां सजी महफिल में खूब ठहाके भी लगाए.
जहां तक ऋषि कपूर का सवाल है तो उन्हें फिल्मी और संस्कारों से परिपूर्ण परिवार विरासत में मिला था. लेकिन संघर्ष तो उन्हें भी करना पड़ा क्योंकि आम आदमी के दिलों में जगह बनाने के लिए अपने हुनर को मांजना होता है. पृथ्वीराज कपूर और राज कपूर से लेकर रणबीर कपूर तक को भी दर्शकों का प्यार इसलिए मिला क्योंकि उनके अभिनय में जान रही है. उन्होंने अभिनय में महारत हासिल करने के लिए बहुत मेहनत की और खुद को निखारा.
ऋषि कपूर में उनके दादा और पिता बसते थे. बड़ा सहज अभिनय होता था उनका. यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि उन्होंने रोमांस को एक नई दिशा दी. ऋषि कपूर से मुझे उनके पिता राज कपूर ने मिलवाया था. उसके बाद हमारे रिश्ते बनते चले गए. मुझे उनकी मित्रता पर हमेशा गर्व रहा क्योंकि वे सच्चे दोस्त थे. मेरी आवाज पर हाजिर रहने की उनकी अदा ने मुझे उनका मुरीद बना दिया.
उन्होंने कभी नहीं सोचा कि कितना काम है और चला गया तो काम का कितना नुकसान होगा! बस वे चले आते थे. बॉबी फिल्म हिट होने के बाद जब वे अपने कैरियर के शिखर पर थे और उनका एक-एक मिनट कीमती था तब भी मेरे बुलावे पर वे यवतमाल आए. ये उनके संस्कार थे जिसने उन्हें इतना विनम्र और सहज बनाया. उनके दादाजी पृथ्वीराज कपूर भी मेरे बाबूजी के निमंत्रण पर दो बार यवतमाल आए.
एक बार तो वे अपनी नाटक कंपनी लेकर आए थे और दूसरी बार बाबूजी ने उन्हें झंडावंदन के लिए बुलाया था. बस मुझे मलाल इस बात का है कि ऋषि कपूर की अंतिम इच्छा पूरी नहीं हो सकी. कुछ दिन पहले ही फोन पर उनसे चर्चा हो रही थी. उन्होंने कहा कि रणबीर की शादी हो जाए, मैं बहू देख लूं तो सारी तमन्नाएं पूरी हो जाएंगी. काश ऋषि कपूर अपनी बहू को देख पाते!
एक बात और बताना चाहूंगा कि ऋषि कपूर बहुत पढ़ने-लिखने वाले इंसान थे. उन्होंने अपनी किताब ‘खुल्लमखुल्ला ऋषि कपूर अन्सेन्सर्ड’ अपने हस्ताक्षर के साथ मुझे भेजी और मैंने उन्हें पार्लियामेंट में अपने कार्यकाल पर लिखी किताब ‘पब्लिक इश्यूज बिफोर पार्लियामेंट’ उन्हें भेजी तो उन्होंने उसे पढ़ा और मुझसे चर्चा भी की. बहरहाल, ऋषि कपूर और इरफान अब भले ही हमारे बीच नहीं हैं लेकिन वे अपने काम की बदौलत हमेशा जिंदा रहेंगे. उन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता.
ऋषि कपूर का जाना तो बस ऐसा लगता है कि कमरा बंद हो गया है और चाबी खो गई है.