Blog: इस डूबते सिनेमा को कोई तो बचा ले
By ऐश्वर्य अवस्थी | Published: January 18, 2018 10:40 AM2018-01-18T10:40:32+5:302018-01-18T10:41:20+5:30
आज सिनेमा का स्तर गिरता जा रहा है। अगर मैं 60, 70 के दशक की बात करूं तो शायद कहा जा सकता है कि मैं बहुत पीछे जा रही हूं लेकिन मैं अब बात 90 के ही दशक की करती हूं।
जीवन को नए रंगों से भरने का नाम है बॉलीवुड, जहां हंसने, गाने, प्यार, मौत और जीवन के हर पल को बॉलीवुड ने फिल्मों के रूप में पर्दे पर पेश किया है। 1913 की हरिश्चन्द्र से लेकर मुक्काबाज तक अनगिनत फिल्में पर्दे पर आ चुकी हैं, लेकिन क्या हमने कभी सोचा है सिनेमा का स्तर ऊपर जा रहा है या फिर नीचे। पता नहीं ले लाजमी है या नहीं, लेकिन ये कड़वा सच है आज सिनेमा का स्तर गिरता जा रहा है। अगर मैं 60, 70 के दशक की बात करूं तो शायद कहा जा सकता है कि मैं बहुत पीछे जा रही हूं लेकिन मैं अब बात 90 के ही दशक की करती हूं। अभी के सिनेमा से कुछ समय पहले का ये दशक था जहां, फैंस को फिल्म में स्टोरी, डांस , गाना हर को चीज मिलती थी तो एक परफेक्ट फिल्म के लिए जरूरी होती है।
सिने जगत का इतिहास
पहली बार फरवरी, 1901 में कलकत्ता के क्लासिक थियेटर में मंचित ‘अलीबाबा’, ‘बुद्ध’, ‘सीताराम’ नामक नाटकों की पहली बार फोटोग्राफी हीरालाल सेन ने की। सिनेना को लेकर भारतीय बाजार यूरोपीय और अमेरिकी फिल्मों से पटा हुआ था, लेकिन बहुत कम दर्शक इन फिल्मों को देखते थे क्योंकि आम दर्शक इनसे अपने को अलग-थलग पाते थे। मई 1912 में आयातित कैमरा, फिल्म स्टॉक और यंत्रों का प्रयोग करके हिंदू संत ‘पुण्डलिक’ पर आधारित एक नाटक का फिल्मांकन आर. जी. टोरनी ने किया जो शायद भारत की पहली फुललेंथ फिल्म है। पहली फिल्म थी 1913 में दादासाहेब फालके द्वारा बनाई गई राजा हरिश्चन्द्र पहली फिल्म बनीं। फिल्म काफी जल्द ही भारत में लोकप्रिय हो गई और साल 1930 तक लगभग 200 फिल्में प्रतिवर्ष बनीं। पहली बोलती फिल्म थी अरदेशिर ईरानी द्वारा बनाई गई आलम आरा। यह फिल्म काफी ज्यादा लोकप्रिय रही। आज हरिश्चन्द्र से लेकर अब तक की फिल्मों में जमीं-आंसमा का अंतर आ गया है।
कहां जा रहा हिन्दी सिनेमा
जिस तरह से बॉलीवुड में फिल्मों का रूप बदल रहा है उससे यही लग रहा है कि आज सिनेमा अपने मोटो से भटक रही है। फिल्मों की शुरुआत लोगों के मनोरंजन के लिए हुई थी लेकिन आज ये मनोरंजन का रूप कहीं और ही चला गया है फिल्मों में जिस तरह से क्राइम और भव्यता को पेश किया जा रहा है उससे फैंस के जीवन भी प्रभावित हो रहे हैं। लोग निजी जीवन में फिल्मों को उतारने लगे हैं जिसको प्रभाव नकारात्मक हो रहा है। आज फिल्मों में जिस तरह से बोल्डनेस को परोसा जा रहा है वो मार्डन सोच को तो शायद नहीं पेश कर रहा है। मार्डन सोच को पेश करने के लिए बोल्डनेस के तड़के की जरूरत शायद नहीं होती है। 21 सदी के सिने में अब जिस तरह से एक के बाद एक बोल्ड फिल्मों को निर्माता-निर्देशक पेश कर रहे हैं उससे तो ये जगह अश्लीलता को भी बुलावा दे रहा है।
जिस तरह से फिल्मों में पार्न स्टार्स को लाया जा रहा है उससे तो अब डरने लगने लगा है कि कहीं ऐसा ना हो जाए कि थोड़े दिनों में बॉलीवुड की जगह पोर्न फिल्में ले लें। सनी लियोन के बाद अब मिया को बॉलीवुड में जगह मिली है। इससे ऐसा लग रहा है कि फैंस अब सिर्फ पार्न स्टार्स को ही पर्दे पर देखना चाहते हों, लेकिन ऐसा शायद नहीं है। पता नहीं समझ ये नहीं निर्माता- निर्देशक क्या सोच रहे हैं बॉलीवुड सिनेमा को लेकर क्या चाहते हैं कहां लेकर जाना चाहत हैं?
एक वो दशक था जिसमें गानों में ही जीवन के हर पल को पिरो दिया जाता था और आज गाड़ी, दारू और लड़की का प्रचल गानों में जबरदस्त तरीके से हो रहा है, मेरे लिए तो इससे बुरा दशक सिनेमा के लिए हो ही नहीं सकता। वहीदा, माधुरी जैसी अभिनेत्रियों के डांस की बात करें तो आज डांस के रूप में फिल्मों में जिमनास्ट देखने को मिल रहा है। हममें से कौन है जो इस तरह के डांस को घर के फंक्शन या रोजमर्रा में करते हैं।
खैर कुछ स्टार्स और निर्देशक अभी हैं जो बॉलीवुड की असली पहचान को खोने नहीं दे रहे हैं। इनकी फिल्में ही हैं जो अभी भी लोगों को थिएटर तक बेफिक्री से ले जाने का कारण बन रही है। खैर मुझे तो लगता है सिनेमा के स्तर ये वक्त नीचा गिराने का नहीं ऊंचा उठाने का है। मन में बस ये सवाल है कि इस डूबते सिनेमा को कोई तो बचा ले।