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सीओपी26: क्या कहता है जलवायु समझौते का मसौदा, क्यों हो रही है इसकी आलोचना

By भाषा | Updated: November 11, 2021 13:21 IST

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माइकल जैकब्स : प्रोफेसरियल फैलो, शेफील्ड पॉलिटिकल इकोनॉमी रिसर्च इंस्टीट्यूट (एसपीईआरआई), शेफ़ील्ड विश्वविद्यालय

लंदन, 11 नवंबर (द कन्वरसेशन) ग्लासगो में सीओपी26 जलवायु शिखर सम्मेलन में प्रतिनिधियों का नेतृत्व करते हुए अंतिम समझौते का पहला मसौदा मंगलवार की मध्यरात्रि में प्रकाशित करने का विश्वास दिलाने के बाद यूके प्रेसीडेंसी द्वारा इसमें देरी करते हुए इसे बुधवार सुबह 6 बजे तक जारी करने का फैसला करने से बहुत से लोग नाराज हुए होंगें ।

बहुत सारे वार्ताकार रहे होंगे - पत्रकारों का उल्लेख न करें तो - जिन्होंने पूरी रात बेवजह इंतजार किया होगा।

दरअसल, सीओपी26 के अध्यक्ष आलोक शर्मा का यह मसौदा भी ज्यादा लोगों को कुछ खास पसंद नहीं आया होगा। शिखर सम्मेलन के मेजबान और अध्यक्ष के रूप में, यह ब्रिटेन की जिम्मेदारी है कि वह तमाम वार्ता सामग्री को एक साथ रखे, जिसपर पिछले सप्ताह चर्चा और सहमति हुई है ताकि इसे एक सुसंगत समग्र समझौते के रूप में प्रस्तुत किया जा सके।

लेकिन मैंने जिन प्रतिनिधियों से बात की है, उनके बीच व्यापक सहमति यह है कि उन्होंने जो मसौदा तैयार किया है, वह विभिन्न देश समूहों के हितों और ओहदों के बीच पर्याप्त रूप से ‘‘संतुलित’’ नहीं है। और ऐसी नाजुक बातचीत के अध्यक्ष के लिए, ऐसा होना किसी खतरनाक पाप से कम नहीं है।

आइए पूर्वावलोकन कर लें। यह सीओपी (जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के पक्षों का सम्मेलन) 2015 के पेरिस समझौते के तहत निर्दिष्ट क्षण है, जब देशों को कार्य करने के लिए मजबूत प्रतिबद्धताओं के साथ आगे आना चाहिए।

इसके लिए दो मुख्य क्षेत्र हैं। एक है 2030 तक उत्सर्जन में कटौती। दूसरा, विकसित देशों के लिए, सबसे कम विकसित देशों को वित्तीय सहायता।

सीओपी के सामने समस्या यह है कि हम पहले से ही जानते हैं कि, जब एक साथ जोड़ा जाता है, तो देशों के उत्सर्जन लक्ष्य दुनिया को पूर्व-औद्योगिक समय से 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म रखने के लिए पर्याप्त नहीं हैं, जैसा कि पेरिस समझौते का लक्ष्य है। और वित्तीय वादे 100 अरब अमरीकी डालर तक भी नहीं पहुंचते हैं, जिसे 2020 में हासिल किया जाना था, जबकि सबसे कमजोर देशों को इससे कहीं ज्यादा बड़ी रकम की जरूरत है।

तो सबसे गरीब देश - और ग्लासगो में प्रदर्शन करने वाले मुखर नागरिक समाज संगठन - क्या मांग कर रहे हैं? पहला, कि 2025 की निर्धारित तिथि से पहले ‘‘राष्ट्रीय तौर पर निर्धारित’’ एनडीसी योगदान को मजबूत किया जाना चाहिए। और दूसरा, 2025 तक जलवायु वित्त में कम से कम 500 अरब अमरीकी डालर प्रदान किए जाने चाहिएं। इसमें से आधी राशि इन देशों को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने में मदद करेगी, जो इसे पहले से ही महसूस कर रहे हैं।

यूके का मसौदा पाठ क्या कहता है? यह केवल देशों से अपने एनडीसी को मजबूत करने का आग्रह करता है, अगले साल मंत्रियों की एक बैठक और 2023 में नेताओं के शिखर सम्मेलन का प्रस्ताव करता है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र ‘‘आग्रह’’ की बात करते है: ‘‘यदि आप चाहें तो आप ऐसा कर सकते हैं, लेकिन आप नहीं चाहते तो आपको ऐसा नहीं करना पड़ेगा।’’ यह देशों को 1.5 डिग्री सेल्सियस-संगत पथ पर जाने के लिए मजबूर करने के लिए पर्याप्त नहीं है। मसौदे में उनके लिए ऐसा करने की आवश्यकता होनी चाहिए।

वित्त पर, पाठ और भी कमजोर है। 500 अरब अमेरिकी डालर की मांग का कोई उल्लेख नहीं है, हालांकि यह अनुकूलन निधि को दोगुना करने के लिए कहता है।

विशेष आहरण अधिकार (एक प्रकार की वैश्विक मुद्रा आपूर्ति) का उपयोग करने का कोई उल्लेख नहीं है जिसे आईएमएफ ने हाल ही में जलवायु-संगत विकास के लिए जारी किया है। और इस बात का भी पर्याप्त उल्लेख नहीं है कि सबसे कमजोर देशों को उपलब्ध धन तक बेहतर पहुंच की आवश्यकता है।

बेशक, विकासशील देशों को यह उम्मीद नहीं है कि वार्ता में उन्हें उनके मन मुताबिक कुछ मिलेगा। लेकिन विभिन्न देशों की स्थितियों के बीच पाठ के समग्र संतुलन पर टिप्पणी करते हुए, एक यूरोपीय प्रतिनिधि ने मुझसे कहा:‘‘हो सकता है कि इसे अमेरिकियों द्वारा लिखा गया हो।’’

यह निश्चित रूप से सच है, जैसा कि आलोक शर्मा ने अपनी दोपहर की प्रेस कॉन्फ्रेंस में जोर दिया, कि पाठ को अभी भी बदला जा सकता है। ऐसे कई मुद्दे हैं जिन पर बातचीत जारी है और पाठ में अभी तक उनकी प्रगति नहीं दिखाई गई है। शर्मा ने सभी दलों से मसौदे में अपने सुझाए गए संशोधन भेजने और अपनी प्रतिक्रियाओं पर चर्चा करने के लिए उनसे मिलने को कहा है।

लेकिन यह मायने रखता है कि इस शुरुआती पाठ को दो कारणों से कैसे तैयार किया गया है। सबसे पहले, संतुलन की कमी का मतलब है कि यह सबसे कम विकसित देश हैं जिन्हें इसे बदलने के लिए सबसे अधिक काम करना होगा। पेरिस में फ्रांसीसी राष्ट्रपति कार्यालय ने दूसरे तरीके से काम किया। उन्होंने एक महत्वाकांक्षी पाठ का मसौदा तैयार किया और सबसे बड़े उत्सर्जकों को इसका विरोध करने की चुनौती दी।

दूसरा, कथित असंतुलन ब्रिटिश मेजबानों में विश्वास को प्रभावित कर सकता है। शर्मा ने पिछले कुछ वर्षों में सीओपी की तैयारी के लिए खुद की एक मजबूत प्रतिष्ठा बनाई है। जाहिर है वह आने वाले महत्वपूर्ण अंतिम दिनों में इसे खोना नहीं चाहेंगे।

Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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