JNU के PhD छात्रों की थीसिस के मूल्यांकन में क्यों लग रहे हैं डेढ़-दो साल, पूर्व छात्र ने शेयर किया अपना तजुर्बा

By विनीत कुमार | Published: September 8, 2021 12:32 PM2021-09-08T12:32:32+5:302021-09-08T12:36:10+5:30

JNU के पूर्व शोधछात्र शुभनीत कौशिक ने फेसबुक पर पोस्ट लिखा है और बताया है कि कैसे पीएचडी की पूरी प्रक्रिया में देरी हो रही है। उन्होंने खुद अपना अनुभव साझा किया है।

Why evaluation process for PhD in JNU gets very slow former student shares his experience | JNU के PhD छात्रों की थीसिस के मूल्यांकन में क्यों लग रहे हैं डेढ़-दो साल, पूर्व छात्र ने शेयर किया अपना तजुर्बा

JNU के PhD छात्रों की थीसिस के मूल्यांकन में क्यों लग रहे हैं डेढ़-दो साल, पूर्व छात्र ने शेयर किया अपना तजुर्बा

दिल्ली के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) में छात्रों की पीएचडी डिग्री में देरी को लेकर को लेकर सवाल उठ रहे हैं। छात्रों के अनुसार कई ऐसे मामले पिछले कुछ सालों में सामने आए हैं जहां थीसिस जमा किए जाने के बाद वाइवा और डिग्री देने तक में डेढ़ से दो साल गुजर जा रहे हैं। JNU के पूर्व शोधछात्र शुभनीत कौशिक ने इस संबंध में फेसबुक पर पोस्ट लिखा है और बताया है कि कैसे पूरी प्रक्रिया में देरी हो रही है। उन्होंने खुद अपना अनुभव भी साझा किया है।

JNU के पूर्व शोधछात्र का बयान-

''पिछले चार-पाँच सालों में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में शोधार्थियों के लिए त्रासद स्थिति बन गई है। पीएचडी सबमिशन, वाइवा और डिग्री अवार्ड होने की जो प्रक्रिया जेएनयू जैसे केंद्रीय विश्वविद्यालय में समय से सम्पन्न होनी चाहिए। वही प्रक्रिया इन कुछ वर्षों में जेएनयू प्रशासन की घोर लापरवाही के चलते असह्य रूप से लंबी, बोझिल और हताशपूर्ण बन गई है। जेएनयू के मूल्यांकन विभाग (इवैलुएशन ब्रांच) की मनमानी का आलम यह है कि थीसिस सबमिट किए जाने के एक साल बाद भी उसे परीक्षकों के पास नहीं भेजा जाता।

ख़ुद मैं और मेरे कई दोस्त मूल्यांकन विभाग की इन कारस्तानियों के भुक्तभोगी रहे हैं। मैंने 28 जून 2018 को सेंटर फॉर हिस्टॉरिकल स्टडीज़ (जेएनयू) में अपनी थीसिस सबमिट की। अगले एक साल तक मूल्यांकन विभाग ने मेरी थीसिस परीक्षकों के पास नहीं भेजी। वे कभी सीडी न होने, कभी कोई दूसरा दस्तावेज़ न होने का बहाना करते रहे। जबकि सच्चाई ये है कि सीडी और अन्य दस्तावेज़ों के अभाव में थीसिस सबमिट ही नहीं हो सकती। मैंने इसके बारे में जेएनयू के कुलपति जगदीश कुमार को भी लिखा, लेकिन उन्होंने कोई कार्यवाही करना तो दूर, ईमेल पर कोई प्रतिक्रिया देना भी ज़रूरी नहीं समझा!

आखिरकार थीसिस सबमिट किए जाने के 15 महीने बाद सितंबर 2019 में मेरी थीसिस परीक्षकों के पास मूल्यांकन के लिए भेजी गई। दोनों ही परीक्षकों ने चार महीने के भीतर जनवरी 2020 में रिपोर्ट सौंप दी। 17 मार्च 2020 को मेरा वाइवा हुआ। इस तरह जून 2018 में सबमिट की गई थीसिस का वाइवा 21 महीने बाद हुआ।

मेरे एक मित्र मनीष जो कि सेंटर फ़ॉर पोलिटिकल स्टडीज़ के शोधार्थी रहे, उनके साथ भी यही वाक़या पेश आया। मनीष ने जुलाई 2019 में पीएचडी सबमिट की। लेकिन उनका वाइवा चौबीस महीने बाद जुलाई 2021 में जाकर हुआ। 

इसी तरह मंदाकिनी हालदार ने सीएचएस में जुलाई 2019 में थीसिस जमा की। मंदाकिनी ने 1971 के भारत-पाक युद्ध, बांग्लादेश मुक्ति संग्राम और शरणार्थी शिविरों के इतिहास पर बेहतरीन काम किया था। थीसिस जमा करने के चौदह महीने बाद सितम्बर 2020 में मंदाकिनी का असमय निधन हो गया। किंतु तब तक मंदाकिनी का वाइवा नहीं हो सका था। मेरी एक अन्य मित्र सुधा ने सिनेमा और भारतीय राज्य पर अपना शोध ग्रंथ दिसम्बर 2019 में जमा किया। पर बीस महीने बीत जाने के बाद भी अब तक सुधा का वाइवा नहीं हो सका है। 

कुल मिलाकर यह छात्रों को तंग करने, उनके मानसिक शोषण का एक आजमाया हुआ तरीका है, जो जेएनयू प्रशासन अपना रहा है। इसका सबसे बुरा शिकार वे शोधार्थी हो रहे हैं जो नौकरियों के लिए पीएचडी की डिग्री पर निर्भर हैं। वे अपनी आँखों के सामने तमाम अवसर निकलते जाते  देखने को अभिशप्त हैं।

जेएनयू प्रशासन का यह रवैया ऐसे शोधार्थियों के लिए और मुश्किलें खड़ी करता है जो दिल्ली में नहीं रहते हैं। उनके लिए यह संभव नहीं है कि वे नियमित तौर पर जेएनयू जाकर पीएचडी के बारे में अपडेट ले सकें। दुर्भाग्य तो यह भी है कि ऐसे शोधार्थियों का मुद्दा उठाना जेएनयू छात्रसंघ को भी गवारा नहीं क्योंकि ये छात्र उनकी निगाह में वोटर नहीं रह जाते।''

Web Title: Why evaluation process for PhD in JNU gets very slow former student shares his experience

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