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संत सूरदास जयंती: दृष्टिहीन होकर भी रचा बाल कृष्ण की लीलाओं का मनोहर संसार

By गुलनीत कौर | Updated: April 20, 2018 08:33 IST

संत सूरदास का जन्म 1478 ईस्वी में रुनकता नामक गांव में हुआ जो वास्तव में उत्तर प्रदेश के मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है।

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भगवान विष्णु के 8वें मानव अवतार श्रीकृष्ण के अनेकों भक्त हैं। उनकी भक्ति में ना जाने कितने ही दीवाने हैं। कृष्ण दीवानों में से एक नाम 'संत सूरदास' का भी आता है जिन्होंने श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम और भक्ति को अपनी रचनाओं के माध्यम से पूरी दुनिया के सामने प्रस्तुत किया है। आज यानी 20 अप्रैल को संत सूरदास जयंती है। आइए इस उपलक्ष्य में संत सूरदास के जीवन और उनकी प्रसिद्ध रचनाओं के जरिए कृष्ण लीलाओं के बारे में जानते हैं। 

संत सूरदास जीवन परिचय

संत सूरदास का जन्म 1478 ईस्वी में रुनकता नामक गांव में हुआ जो वास्तव में उत्तर प्रदेश के मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। उनके पिता का नाम रामदास गायक थे। कहा जाता है कि सूरदास जन्म से नेत्रहीन थे। हालाँकि कुछ लोग मानते हैं कि सूरदास जन्म से दृष्टिहीन नहीं रहे होंगे। विभिन्न प्राचीन ग्रंथों में संत सूरदास के जन्मांध होने का उल्लेख मिलता है किन्तु जिस प्रकार से उन्होंने बाल कृष्ण, और राधा-कृष्ण के रूप का वर्णन किया है उसे पढ़कर लोगों के लिए ये यकीन करना मुश्किल होता है कि सचमुच उन्होंने कभी मानवीय रूप और प्रकृति के दर्शन नहीं किये थे।

प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे जहां उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। अपने गुरु की छत्र छाया में ही उन्होंने ज्ञान की प्राप्ति की। उन्हीं के आदेश से सूरदास ने कृष्णा भक्ति से जुड़कर दुनिया को बाल कृष्ण के रूप का महत्व समझाया। संत सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में 1580 ईस्वी में हुई। माना जाता है कि उस समय उनकी उम्र 100 वर्ष से अधिक रही होगी।

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कृष्ण भक्त संत सूरदास

भगवान कृष्ण के कई भक्तों ने उनकी रास लीलाओं और युद्ध में उनके पराक्रमों का वर्णन किया है। कृष्ण भक्ति में लेने होकर उनके दीवानों ने उनके बारे में कई श्लोक और दोहे लिखे। किन्तु संत सूरदास के दोहों ने भगवान कृष्ण के एक नए रूप को दुनिया के सामने उजागर किया। केवल संत सूरदास की रचनाओं ने ही दुनिया का कृष्ण के बाल रूप से परिचय करवाया। लोगों ने कृष्ण के बाल रूप से प्रेम किया, उसे 'नंदलाल' कहकर खुद के बच्चे की तरह अपने घरों में स्थान दिया।

जसोदा हरि पालनैं झुलावै। हलरावै दुलरावै मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै॥ मेरे लाल को आउ निंदरिया काहें न आनि सुवावै। तू काहै नहिं बेगहिं आवै तोकौं कान्ह बुलावै॥ 

अर्थ: संत सूरदास यहां कह रहे हैं कि भगवान कृष्ण की मां उन्हें पालने में झूला रही हैं। मां यशोदा पालने को हिलाती हैं, फिर अपने 'लाल' को प्रेम भाव से देखती हैं, बीच बीच में नन्हे कृष्ण का माथा भी चूमती हैं। कृष्ण की यशोदा मैया उसे सुलाने के लिए लोरी भी गा रही हैं और गीत के शब्दों में 'नींद' से कह रही हैं कि तू कहाँ है, मेरे नन्हे लाल के पास आ, वह तुझे बुला रहा है, तेरा इन्तजार कर रहा है।

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सुत-मुख देखि जसोदा फूली। हरषित देखि दुध को दँतियाँ, प्रेममगन तन की सुधि भूली। बाहिर तैं तब नंद बुलाए, देखौ धौं सुंदर सुखदाई। तनक तनक सों दूध-दँतुलिया, देखौ नैन सफल करो आई।

अर्थ: इस दोहे में संत सूरदास उस घटना का वर्णन कर रहे हैं जब पहली बार मां यशोदा ने कान्हा के मुंह में दो छोटे-छोटे दांत देखे। यशोदा मैया नन्हे कृष्ण का मुख देखकर फूली नहीं समा रही हैं। मुख में दो दांत देखकर वे इतनी हर्षित हो गई हैं कि सुध-बुध ही भूल गई हैं। खुशी से उनका मन झूम रहा है। प्रसन्नता के मारे वे बाहर को दौड़ी चली जाती हैं और नन्द बाबा को पुकार कर कहती हैं कि ज़रा आओ और देखो हमारे कृष्ण के मुख में पहले दो दांत आए हैं। 

संत सूरदास की रचनाएं

संत सूरदास की रचनायों में बाल कृष्ण के रूप का वर्णन और उन्ही की बाल लीलाओं का जिक्र मिलता है। कृष्ण प्रेम के इस सागर में किस तरह से एक दीवाना डूब सकता है, उसकी व्याख्या की है। 'सूरसागर' संत सूरदास की प्रसिद्ध रचना है। इसके अलावा सूरसारावाली, साहित्य-लहरी भी उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में हैं। 

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