आध्यात्मिक साधकों के पथप्रदर्शक बने हुए हैं नैष्ठिक ब्रह्मचारी प्रेमानंद जी महाराज
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: February 6, 2024 09:59 PM2024-02-06T21:59:18+5:302024-02-06T22:00:16+5:30
Pujya Shri Premanand ji Maharaj: महाराज वृन्दावन का अखंड वास स्वीकार कर चुके हैं और उनके उपदेशपूर्णतः शास्त्र सम्मत, स्पष्ट, बुद्धि को तत्क्षण संशय रहित व चित्त का समाधान करने वाले होते हैं।
Pujya Shri Premanand ji Maharaj: वृन्दावन धाम में विराजमान परम पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण महाराज वर्तमान में वृंदावन रसोपासना के मूर्धन्य रसिक संत हैं। वह अपने वचनामृतों से लाखों आध्यात्मिक साधकों के पथप्रदर्शक बने हुए हैं। प्रेमानन्द जी महाराज का जन्म एक धार्मिक ब्राह्मण परिवार में कानपुर के समीपवर्ती ग्राम में हुआ। उनका बचपन का नाम अनिरुद्ध कुमार पांडे था। बचपन से ही उन्हें अपने धर्मात्मा पिता शंभू पांडे के द्वारा व अतिथि रूप में पधारे संतजनों के द्वारा शास्त्र सम्मत आचरण करने की विधिवत शिक्षा प्राप्त हुई।
परिणामस्वरूप महाराज अपना अधिकांश समय उपनयन संस्कार के उपरांत गायत्री मंत्र जप, विभिन्न स्तुति, चालीसा आदि के पाठ एवं धार्मिक ग्रन्थों के स्वाध्याय व भगवान्नाम संकीर्तन में व्यतीत करने लगे। इससे उनके हृदय में परमात्म साक्षात्कार की भावना बढ़ने लगी। 13 वर्ष की आयु में अकेले ही ईश्वर के भरोसे गृहत्याग कर निकल पड़े।
गंगा किनारे भजन-साधन परायण एक संत की सन्निधि में वे रहे, जहां उन्होंने नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा ग्रहण की। उस समय उनका नाम रखा गया आनंदस्वरूप ब्रह्मचारी। आगे चलकर उन्होंने संन्यास स्वीकार कर लिया। महावाक्य को स्वीकार करने पर उनका नाम स्वामी आनंदाश्रम हुआ और उन्होंने शारीरिक चेतना से ऊपर उठने के सख्त सिद्धांतों का पालन करते हुए पूर्ण त्याग-वैराग्यमय जीवन व्यतीत किया।
एकः आध्यात्मिक साधक के रूप में उनका अधिकांश जीवन गंगा के तट पर बीता। वह भोजन, वस्त्र या सर्दी-गर्मी आदि की परवाह किए बिना वाराणसी में गंगा के घाटों पर रहने लगे। कई दिन तक वह बिना भोजन के ही रहते। भीषण सर्दी में भी गंगा में तीन बार स्नान करते और प्रणव का जप करते हुए हर क्षण ब्रह्माकार वृत्तिके अभ्यास में तल्लीन रहते थे।
कहा जाता है कि कुछ वर्ष व्यतीत होने पर उन्हें भगवान शिव के दर्शन व उनका आशीर्वाद प्राप्त हुआ। वर्तमान में महाराज वृन्दावन का अखंड वास स्वीकार कर चुके हैं और उनके उपदेशपूर्णतः शास्त्र सम्मत, स्पष्ट, बुद्धि को तत्क्षण संशय रहित व चित्त का समाधान करने वाले होते हैं।
उनका जोर घर-परिवार छोड़कर साधु-सन्यासी का वेश बना लेने पर नहीं बल्कि घर में ही रहकर, अपने परिवारीजनों की व समाज की भगवद्भाव से सेवा करते हुए व निरंतर भगवान्नाम जप करने एवं निषिद्ध खान-पान, व्यभिचार प्रवृत्ति को छोड़कर जितेंद्रिय होकर रहने पर होता है।