Navratri 2019: 50 किलो सोने से बनी मां दुर्गा की प्रतिमा हुई स्थापित, पंडाल का इंटीरियर शीश महल की रिप्लिका जैसा
By ज्ञानेश चौहान | Published: October 3, 2019 01:17 PM2019-10-03T13:17:54+5:302019-10-03T13:17:54+5:30
इससे पहले कोलकाता में साल 2017 में, पूजा के आयोजकों ने मां दुर्गा को सोने की साड़ी में लपेटा था तो वहीं 2018 में उन्हें चांदी के रथ पर सवार किया था।
मां दुर्गा के कई रूपों को आपने देखा होगा लेकिन 50 किलो सोने से बनी मां दुर्गा की प्रतिमा शायद ही देखी होगी। हम जिस प्रतिमा की बात कर रहे हैं यह कोलकाता में ही बनाकर यहां स्थापित की गई है। इस प्रतिमा की कीमत जानकर तो आपके होश ही उड़ जाएंगे। इस मूर्ति की कीमत 20 करोड़ रुपए है... जी हां 20 करोड़ रुपए।
मूर्ति की ऊंचाई की 13 फीट
सोने की इस मूर्ति को संतोष मित्र स्क्वेयर दुर्गोत्सव समिति ने बनवाया है। यह प्रतिमा दुर्गा पूजा के लिए स्थापित की गई है। इस मूर्ति को समिति ने 'कनक की दुर्गा' नाम दिया है, जिसकी ऊंचाई 13 फीट है। इस मूर्ति को बनाने के लिए कई ज्वैलर्स ने सोना दिया है। मां दुर्गा की मूर्ति के विसर्जन के बाद इस सोने को ज्वैलर्स वापस ले लेंगे।
250 मजदूरों ने किया था काम
मां दुर्गा की 50 किलो सोने वाली इस मूर्ति को बनाने में पूरे 3 महीने लगे। और एक खास बात यह भी है कि मां दुर्गा के लिए जिस पंडाल को बनाया गया था उसमें 250 मजदूरों ने काम किया था। यह पहली बार नहीं है जब कोलकाता में मां दुर्गा की इतनी महंगी प्रतिमा का निर्माण किया गया है। इससे पहले साल 2017 में, पूजा के आयोजकों ने मां दुर्गा को सोने की साड़ी में लपेटा था तो वहीं 2018 में उन्हें चांदी के रथ पर सवार किया था। लेकिन इस बार एक कदम और आगे जाते हुए मां दुर्गा की 50 किलो सोने की भव्य मूर्ति स्थापित की है।
पंडाल का इंटीरियर शीश महल की रिप्लिका जैसा
समिति के महासचिव सजल घोष ने एएनआई को दिए इंटरव्यू में बताया कि 250 मजदूरों को पंडाल को पूरा करने में ढाई महीने और मां की मूर्ति लगाने में तीन महीने लग गए। जानकारी के मुताबिक मां दुर्गा की केवल भुजाएं चांदी की बनी हुई हैं, लेकिन ऊपर से नीचे तक पूरी मूर्ति 50 किलोग्राम सोने की बनी हुई है। पंडाल का इंटीरियर शीश महल की रिप्लिका जैसा है जहां कई टन कांच का उपयोग किया गया है। इसके अलावा बाहरी भाग को मायापुर के इस्कॉन टेम्पल की रिप्लिका जैसा बनाया गया है।
सजल घोष ने आगे कहा कि चूंकि बहुत सी “बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने आभूषण बनाने के लिए मशीनों तैयार की हुई हैं, जिसके कारण बंगाल के स्वर्ण-निर्माताओं का व्यवसाय नीचे चला गया है, वे देश को दिखाना चाहते थे कि केवल ‘विश्वकर्मा’ (स्वर्ण-कलाकार) ही देवी और सोने की साड़ी या चांदी का रथ बना सकते हैं और कोई मशीन नहीं।”