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गणेश चतुर्थी: चतुर्थी का चांद देखने की मनाही क्यों होती है, जानें इसके पीछे की कहानी

By गुलनीत कौर | Updated: September 9, 2018 08:50 IST

हिन्दू धर्म में गणेशजी के साथ उनके परिवार के हर सदस्य पूजित हैं। माता पार्वती, पिता शिवजी, भाई कार्तिकेय, दोनों पत्नियां रिद्धि-सिद्धि, बेटे शुभ-लाभ एवं बेटी देवी सन्तोषी। इतना ही नहीं उनके वाहन नंदी, मोर और मूषक भी पूजा के पात्र हैं।

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इस साल 13 सितंबर से गणेश चतुर्थी का पर्व आरम्भ हो रहा है लेकिन हिन्दू परिवारों में विघ्नहर्ता को घर लाने की तैयारियां अभी से शरू हो गई हैं। यह उत्सव महाराष्ट्र में धूमधाम से मनाया जाता है, लेकिन इसके अलावा भी देश के कई हिस्सों में गणेश के अवतरण दिवस को अपने अंदाज में मनाया जाता है। 

पौराणिक आख्यानों से अवतरित आस्था पर्व से लेकर स्वतंत्रता संग्राम की बेला में अलख जगाने वाले आयोजन तक, और तब से लेकर अब तक गणोश चतुर्थी महाराष्ट्र में विशेष महत्व रखती है। साथ ही श्रद्धाभक्ति के साथ क्रान्ति-चेतना का शुभद संयोग करवाने वाले लोकमान्य तिलक की स्मृति से भी जुड़ी है।

गणनायक को लोकभाषा में नेता कहेंगे। जिनमें वाक्पटुता के साथ दूरगामी सोच, सूक्ष्मग्राही दृष्टि, श्रवण कला, संयम एवं दूर्वादल जैसे सर्वहारा के प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपेक्षित है। माता पार्वती ने गणों का नायक गणोशजी को बनाने का आग्रह किया था शिवजी से।

भगवान गणोश का काया कलेवर भारतीय दर्शन और अध्यात्म के संकेतों से परिपूर्ण है। उनमें तीक्ष्ण मेधा, प्रेम, गुरुता एवं रणकौशल तथा समदर्शिता के दर्शन होते हैं। यही संपूर्णता एक भक्त अपने आराध्य एवं जनता अपने पुरोधा में पाना चाहती है। उन्हें लगाया जानेवाला 21 लड्डओं एवं  21 मोदकों का भोग, जीवन में स्नेह मधुरता के आस्वाद की उपस्थिति है। समृद्धि, बुद्धि एवं आनंद की त्रिवेणी प्रवाहित करते हैं गणोश।

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गणोशजी सफल परिवारी भी हैं। उनके घर का हर सदस्य पूजित है। माता पार्वती, पिता शिवजी, भाई कार्तिकेय, दोनों पत्नियां रिद्धि-सिद्धि, बेटे शुभ-लाभ एवं बेटी देवी सन्तोषी। इतना ही नहीं उनके वाहन नंदी, मोर और मूषक भी पूजा के पात्र हैं। यह अनुकरणीय है। 

मजबूत परिवार व्यवस्था एवं पर्यावरण संरक्षण की प्रेरणा देते हैं गणोश। उनके दोनों ओर वाग्देवी एवं लक्ष्मीजी विराजती हैं। यह नारी  शक्ति का माहात्म्य है, जो ये दर्शाता है कि बुद्धिमत्ता एवं धन के बिना किसी भी कार्य का शुभारंभ नहीं होता! वाग्देवी के वरदान उनके साथ हैं तो लक्ष्मी कहती हैं- आप जहां रहेंगे, हम भी साथ-साथ विराजेंगे।

सर्वविदित है कि पंचदेवों में गणोश, विष्णु, सूर्य, शंकर के साथ सरस्वती भी शोभायमान हैं। भगवती शक्ति के बिना सृष्टि पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकती। बुद्धि, ऊर्जा तथा संयम की सीख देने वाले आदर्श पिता हैं शिव, वहीं समर्थ माता पार्वती भी हैं गणोशजी के पास। त्रिदेवों ने उन्हें शुभंकर होने तथा रिद्धि-सिद्धि प्रदाता होने का वरदान भी दिया है। गणोश अग्रपूज्य हैं। विद्यारंभ, विवाह, गृहप्रवेश, विदेश यात्र या युद्धादि में भी वे सर्वप्रथम पूजे जाते हैं। उनकी पूजा बिना कोई भी गतिविधि नहीं होती।

18 पुराणों तथा 3 उपपुराणों में भी गणोशजी की रंजक कथाएं हैं। मुद्गल पुराण, गणोश पुराण एवं गणोश भागवत की रोचक कथाएं प्रभावित करती हैं। वे षोडषोपचार पूजन से प्रसन्न होते हैं। उनके  12 नामों का पाठ ‘संकटनाशक स्तोत्र’ के नाम से जाना जाता है। सुमुख, एकदंत, कपिल, विकट, लंबोदर, विघ्नहर्ता, भालचन्द्र, गजकर्णक, गजानन, विनायक, धूम्रकेतु के अलावा भी कई नाम हैं उनके, जिनका पारायण शुभफलदायी है।

चतुर्थी का चांद नहीं देखने की आख्यायिका भी लोक में प्रचलित है। हुआ यूं कि गणोशजी ब्रालोक से चंद्रलोक होते हुए लौट रहे थे। चांद उनकी काया देखकर हंसने लगा। गणोशजी ने उसे शाप दिया, तुझे जो भी देखेगा उसे कलंक लगेगा। चांद दौड़ा-दौड़ा ब्रादेव के पास गया। उन्होंने शापमुक्ति के लिए गणोश पूजा का विधान बताया। गणोशजी, चांद की पूजा से प्रसन्न हुए और उन्होंने एक दिन (चतुर्थी) देखने वाले को कलंक लगने की बात कही। 

भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी गणोशजी का अवतरण दिवस है। ‘गं गणपतये नम:’ और ‘गणपति बाप्पा मोरया’ का घोष करते पथक और प्रत्येक घर में मूर्तिरूप विराजने को आतुर बाप्पा का रूप, मोह को जन्म देता है। वातावरण में व्याप्त रंग-रोशनी, पूजागंध, आरती और भजनों के स्वर, जीवन में आस्था और उल्लास की रचना करते हैं। लगता है वे कभी विसजिर्त न हों, पर विसजर्न तो सृजन की पूर्व पीठिका है।

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इस औपचारिका को निभाते हुए भावुक भक्त निवेदन करते हैं- ‘पुढच्या वर्षी लवकर या।’ गणोश एक ऐसे देवता हैं, जिनके प्रति आस्था हर भारतीय के प्राणों में गंगा-सी अविरल प्रवाहित होती है। उनका बौद्धिक ऐश्वर्य, नगाधिराज सा और प्रेम सदावत्सला धरती सा है। वे सर्वत्र व्याप्त गगन हैं और प्राणपोषिता पवन से प्राणों को सहेजते हैं। संस्कृति के प्रवाह को त्यौहार ही अक्षुण्ण रखते हैं। इसमें संदेह कहां?

- इन्दिरा किसलय

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