मध्यप्रदेश में वजूद खोते छोटे और क्षेत्रीय दल

By मुकेश मिश्रा | Published: December 5, 2023 05:36 PM2023-12-05T17:36:23+5:302023-12-05T17:42:32+5:30

हर बार के विधानसभा चुनाव में ये अपना खाता जरूर खोलते रहे। मगर 2023 के चुनाव में इन दलों का खाता भी नहीं खुल पाया। इस बार के विधानसभा चुनाव में अपनी सरकार बनाने का दावा करने वाले इन दलों बसपा, सपा, गोंगपा और आप का खाता भी नहीं खुला। हालात कुछ ऐसे बने की ये अपना वजूद ही नहीं दिखा पाए।

Small and regional parties losing existence in Madhya Pradesh | मध्यप्रदेश में वजूद खोते छोटे और क्षेत्रीय दल

फाइल फोटो

Highlights2023 के चुनाव में क्षेत्रीय दलों का खाता भी नहीं खुल पायाबसपा, सपा, गोंगपा और आप एक भी सीट पर नहीं कर सके जीत दर्जसिर्फ बहुजन समाज पार्टी की एक ऐसा दल उभरा जिसने दो मर्तबा दहाई का आकड़ा छुआ

इंदौर: मध्यप्रदेश की दो दलीय राजनीति में चुनावी प्रक्रिया में वैसे तो छोटे दलों का वजूद कभी नजर नहीं आया। ये दल केवल अपनी उपस्थिति ही दर्ज  कराते नजर आए हैं। प्रदेश के राजनीतिक इतिहास पर नजर डाले तो इनमें से सिर्फ बहुजन समाज पार्टी की एक ऐसा दल उभरा जिसने दो मर्तबा दहाई का आकड़ा छुआ, मगर अन्य दलों की स्थिति तो दहाई के अंक को छूने वाली भी नजर नहीं आई।

मगर हर चुनाव में ये अपना खाता जरूर खोलते रहे। मगर 2023 के चुनाव में इन दलों का खाता भी नहीं खुल पाया। इस बार के विधानसभा चुनाव में अपनी सरकार बनाने का दावा करने वाले इन दलों बसपा, सपा, गोंगपा और आप का खाता भी नहीं खुला। हालात कुछ ऐसे बने की ये अपना वजूद ही नहीं दिखा पाए।

मध्यप्रदेश की राजनीति में हमेशा से ही प्रदेश के मतदाता ने दो दलीय व्यवस्था के तहत कभी कांग्रेस और कभी भाजपा की सरकार बनती रही। मतदाता की पसंद कभी भी छोटे दल नहीं हुए। पहले कभी जनसंघ का कुछ अंचलों में असर दिखाई दिया तो बाद में नब्बे के दशक से प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी ने अपना असर दिखाया। उत्तर प्रदेश की सीमा से सटे अंचल विंध्य और ग्वालियर-चंबल के कुछ जिलों में बसपा अपना प्रभाव दिखाती नजर आई, मगर पूरे प्रदेश में इसका कभी भी असर नजर नहीं आया।

इसी तरह कुछ स्थिति समाजवादी पार्टी की रही जिसे भी प्रदेश के इन दोनों ही अंचलों विंध्य और ग्वालियर-चंबल अंचल के मतदाता ने ही स्वीकारा, लेकिन यह भी प्रदेश में अपनी छाप नहीं छोड़ सकी। एक और खास बात यह रही है कि इन दलों में एक समानता यह भी नजर आई कि इनका खुद के कैडर का कोई नेता यहां पर विधानसभा में प्रतिनिधित्व करता कम ही नजर आया। इन्हें भाजपा और कांग्रेस के नाराज होकर बागी हुए नेता ज्यादा रास आ। भाजपा और कांग्रेस के नाराज नेताओं ने बसपा और सपा के बैनर पर विधानसभा पहुंचकर इन दलों की उपस्थिति को दर्ज किया है।

साल-दर-साल कमजोर हुई बसपा
बहुजन समाज पार्टी की स्थिति पर नजर डाले तो अविभाजित मध्यप्रदेश में 1990 में इस दल ने प्रदेश की राजनीति में सक्रियता दिखाई। यह वह समय था जब बसपा का नेतृत्व कांशीराम के हाथों में हुआ करता था। इस दौर में बसपा का संगठन मध्यप्रदेश में अपनी जड़े जमाने में कामयाब रहा। प्रदेश में 1990 में हुए विधानसभा चुनाव में बसपा ने 2 विधानसभा क्षेत्रों में अपनी पकड़ बनाई और विधायक जीते।

इसके बाद 1993 और 1998 में दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्रित्वकाल में बसपा के दो बार 11-11 विधायक चुनकर विधानसभा पहुंचे। लगातार दो बार दहाई का आंकडा छूने के 25 साल का इतिहस उठाकर देखे तो यह दल अपना लगातार वजूद खोता नजर आया। साल-साल दर साल बसपा की स्थिति कमजोर होती गई। संगठन में बिखराव दिखा और बसपा के खुद के कैडर का नेता उभरकर सामने नहीं आया। आज हालत यह है कि हाल ही में 2023 के हुए विधानसभा चुनाव में बिखरकर बसपा की यह स्थिति हुई कि उसका एक भी विधायक विधानसभा नहीं पहुंच पाया।

रफ्तार  नहीं पकड़ सकी साइकिल
मध्यप्रदेश में समाजवादी पार्टी ने भी बहुजन समाज पार्टी के बाद जमीन तलाशना शुरू की। इस दल ने भी नब्बे के दशक से प्रदेश की राजनीति में प्रवेश किया, मगर सपा का खाता खुला 1998 के विधानसभा चुनाव में। इस चुनाव में उसके चार विधायक जीतकर विधानसभा पहुंचे। इसके बाद 2008 तक सपा के विधायक लगातार चुनाव जीतकर विधानसभा तो पहुंचे, मगर कभी भी ये दहाई का आंकड़ा नहीं छू पाए। 2013 के चुनाव में तो इनका एक भी विधायक नहीं जीता। फिर 2018 के चुनाव में एक विधायक विधानसभा पहुंचा। मगर 2023 के चुनाव में फिर सपा को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा।

गोंगपा ने एक बार किया करिश्मा
राज्य में 2003 के साल में आदिवासी वर्ग का नेतृत्व करने वाली गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित रूप से तीन विधायक पहुंचाकर भाजपा और कांग्रेस की चिंता को बढ़ा दिया था। इस दल ने महाकौशल और विंध्य की कुछ सीटों को फोकस कर चुनाव लड़ा और तीन विधायक जीतकर हलचल पैदा कर दी थी। इसके बाद यह दल भी प्रदेश की राजनीति में कोई खास असर करने वाला साबित नहीं हुआ।

2003 के चुनाव के बाद यह दल बिखर गया और कई हिस्सें में बंट गया। इसका परिणाम यह हुआ कि 2008, 2013, 2018 और 2023 के विधानसभा चुनाव में इस दल का एक भी प्रत्याशी विधानसभा चुनाव नहीं जीता। लगातार यहभी प्रभाव खोता रहा। इसके पीछे आदिवासी वर्ग के बीच भाजपा और कांग्रेस की सेंधमारी रही तो इन दलों के नेताओं की आपसी राजनीतिक झगड़े भी रहे,जिसके कारण यह दल भी कमजोर होकर बिखरता रहा।

आप की झाड़ू का नहीं दिखा असर
दिल्ली में सरकार बनाने के बाद प्रदेश में आम आदमी पार्टी ने भी 2018 का चुनाव लड़ा। मगर उसे सफलता हासिल नही हुई। वह 2018 के बाद से अब तक अपना संगठन ही नहीं बना पाई है।

2023 के चुनाव में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान के नेतृत्व में आप ने खासी सक्रियता दिखाई, प्रदेश के सतना, भोपाल, ग्वालियर में रैली और सभाएं कर आप को स्थापित करने का प्रयास किया, मगर उसे प्रदेश की सभी 230 सीटों पर प्रत्याशी ही नहीं मिले। जिन प्रत्याशियों के सहारे उसने प्रदेश में चुनाव लड़ा उनके से एक भी प्रत्याशी ऐसा नहीं रहा जो चुनाव जीत पाए। आप के लिए प्रदेश का दूसरा चुनाव भी कोई खास सफलता दिलाने वाला नहीं रहा। इस चुनाव में भी उसे कोई सीट हासिल नही हुई।

Web Title: Small and regional parties losing existence in Madhya Pradesh

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