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वन्यजीव, भू-उपयोग में बदलाव : वैज्ञानिकों ने अगली महामारी रोकने के तरीके पहचाने

By भाषा | Updated: January 4, 2021 17:03 IST

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(विश्वम शंकरन)

नयी दिल्ली, चार जनवरी अगली महामारी को कैसे रोकेंगे? यह बड़ा सवाल है। 2021 में भी जब कोविड-19 का वैश्विक प्रसार जारी है, वैज्ञानिकों ने महामारी के खतरे वाली बीमारी के जोखिम को घटाने के लिये कम से कम तीन उपायों पर ध्यान केंद्रित किया है- पशुओं की जांच, भू-उपयोग बदलाव को घटाना और स्वास्थ्य अवसंरचना में सुधार करना।

कोविड-19 से उबरने के प्रयास और इस उलझन से पार पाने की कोशिश कि अगर कोई दूसरी महामारी आ गई तो क्या होगा? इसे लेकर दुनिया भर में चल रही बहस में उठते सवालों का कोई एक जवाब नहीं हो सकता। वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय लेकिन यह सुनिश्चित करने के लिये कई तरीकों पर काम कर रहा है कि अगर कोई दूसरी बीमारी आती है तो उससे निपटने के लिये हम पहले से बेहतर तैयार हों।

बीते साल विभिन्न अध्ययनों के बाद वैज्ञानिकों को अब इस बात का पूरा भरोसा है कि महामारी की क्षमता वाले “तूफान” के लिये भू-उपयोग में बदलाव, उच्च जनसंख्या घनत्व और घरेलू व वन्यजीवों के बीच की दूरी खत्म होने जैसी सामूहिक परिस्थितियों से उपयुक्त माहौल बना।

अमेरिका में स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन से संबद्ध उभरती हुई संक्रामक बीमारियों की विशेषज्ञ कृतिका कुप्पल्ली ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, “हमारे वैश्विक रूप से जुड़े समाज को देखते हुए हम उतने ही मजबूत हैं जितनी हमारी सबसे कमजोर ‘कड़ी’।”

अमेरिका के मोन्टाना स्टेट यूनिवर्सिटी में वन्यजीव पशु चिकित्सक मैनुअल रुइज ने कहा कि अगली महामारी को रोकने का सबसे अच्छा तरीका है “दुनिया भर के पशुओं के नमूनों को संभावित रोगाणुओं की पहचान करने के लिये लिया जाए।”

रुइज कहते हैं कि महामारी के सामने आने के बाद उसे रोकने के लिये रुपये खर्च करने के बजाए, “हम वनीकरण में निवेश कर सकते हैं और वन्यजीवों के साथ संपर्क के तरीकों में बदलाव के प्रयास कर सकते हैं और इसके साथ ही हमारे भू-उपयोग के स्तर को बदल सकते हैं।”

महामारी में पूर्व में यह स्पष्ट हो चुका है कि अगली महामारी को रोकने के लिये लागू किये जाने वाले वैज्ञानिक प्रयासों पर होने वाला खर्च देशों द्वारा कोविड-19 की रोकथाम में खर्च की गई रकम के मुकाबले काफी कम हो सकता है।

जुलाई 2020 में जर्नल ‘साइंस’ में प्रकाशित एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया कि कोविड-19 की वजह से वैश्विक अर्थव्यवस्था पर 8.1 हजार अरब से 15.8 हजार अरब अमेरिकी डॉलर का बोझ पड़ सकता है। इसमें कहा गया कि मौजूदा महामारी की रोकथाम में आने वाले खर्च के मुकाबले प्रमुख बीमारियों की रोकथाम 500 गुना सस्ती हो सकती है।

रुइज के मुताबिक दुनिया भर के वन्य जीवों में मौजूद हर रोगाणु की पहचान या वर्गीकरण लगभग असंभव है लेकिन मशीन अध्ययन गणना विधियों जैसी नई पद्धति का इस्तेमाल रोगाणुओं की एक सूची तैयार करने के लिये किया जा सकता है जिससे यह पूर्वानुमान लगाया जा सकता है कि पशुओं से अगला प्रकोप कहां हो सकता है।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसी साझेदारी वाली एक परियोजना जो 2020 में सबकी नजर में आई वह थी यूएसएआईडी की ‘पीआरईडीआईसीट’, जिसका उद्देश्य महामारी की क्षमता वाले नए विषाणुओं की पहचान की वैश्विक क्षमता को मजबूत बनाना था। संस्था ने 30 से ज्यादा देशों में 1,64,000 से ज्यादा पशुओं और इंसानों की जांच की और इस परियोजना ने दुनिया भर में 100 से ज्यादा नए वायरसों का पता लगाया जिनमें ‘बोम्बाली इबोलावायरस’ और जानलेवा ‘मारबर्ग वायरस’ भी शामिल हैं।

बेंगलुरु में अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरमेंट (एटीआरईई) से जुड़े रोग परिस्थितिकी विशेषज्ञ एबी टी वानक ने कहा कि पीआरईडीआईसीटी जैसे परियोजनाएं जो नए रोगाणुओं के विस्तार की जांच करती हैं उन समूहों की पहचान कर सकती हैं जिनमें भविष्य में महामारी फैलाने की क्षमता हो।

वानक ने ‘पीटीआई-भाषा’ को बताया, “निगरानी से हम यह पता लगा सकते हैं कि विषाणु मेजबान से अलग होकर कब तक जीवित रह सकता है। कई तो कुछ मिनटों तक ही नहीं बच पाते जबकि कुछ विषाणु कई दिनों तक रह सकते हैं।”

यह इस बात को प्रभावित करता है कि कैसे अक्सर विषाणु पशुओं से हटकर इंसानों में बीमारी का कारण बन सकते हैं।

पिछले साल प्रकाशित कुछ अध्ययनों में भारत के कुछ हिस्सों को संभावित केंद्र के तौर पर वर्गीकृत किया गया था जहां से अगली महामारी उत्पन्न हो सकती है, इसकी एक वजह देश में भू-उपयोग बदलाव की बढ़ती दर को बताया गया। इस पर टिप्पणी करते हुए नई दिल्ली स्थित संगठन बायोडायवर्सिटी एंड एनवायरमेंटल सस्टेनेबिलिटी (बीईएसटी) के निदेशक विराट जोली ने कहा कि चूहों, चमगादड़ों और चिड़ियों से महामारी की क्षमता वाली नई बीमारी के होने का जोखिम भारत में विशेष रूप से ज्यादा है, खास तौर पर पश्चिमी घाटों में।

उनके विचार में पश्चिमी घाटों के वन क्षेत्र पौधरोपण, चारागाह के तौर पर अत्याधिक इस्तेमाल और इंसानी बस्तियों के कारण दबाव में हैं।

जोली ने चेतावनी दी कि खनन, सड़क और रेल परियोजनाओं के लिये वनों को विघटित किये जाने से नई बीमारियों का खतरा हो सकता है।

Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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