जयंत चौधरी: मायावती और अखिलेश के बाद यूपी में भाजपा के लिए तीसरा 'सिरदर्द'
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: June 1, 2018 07:23 AM2018-06-01T07:23:40+5:302018-06-01T07:23:40+5:30
कैराना संसदीय सीट पर साल 2014 में भाजपा नेता हुकुम सिंह 2.40 लाख वोटों से जीते थे। रालोद ने यह सीट हुकुम सिंह की बेटी को 46 हजार वोटों से हराकर छीन ली।
उत्तर प्रदेश की कैराना लोक सभा सीट के लिए उपचुनाव में राष्ट्रीय लोक दल (रालोद), समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और कांग्रेस ने मिलकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को हरा दिया। मीडिया और सोशल मीडिया में कैराना लोक सभा उपचुनाव को गोरखपुर और फूलपुर लोक सभा उपचुनावों की कड़ी में देखा जा रहा है। इन दोनों सीटों पर भी समाजवादी पार्टी ने बहुजन समाज पार्टी की मदद से भाजपा को हराया था। बहुत कम लोगों का ध्यान इस बात की तरफ जा रहा है कि कैराना पर भाजपा की हार से ज्यादा अहम है रालोद की जीत। साथ ही इस जीत में रालोद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जयंत चौधरी की भूमिका। रालोद उम्मीदवार तबस्सुम हुसैन ने भाजपा उम्मीदवार को 44,600 वोटों से हराया। कैराना उपचुनाव के दौरान जयंत चौधरी फ्रंटफुट पर रहे। मीडिया रिपोर्ट में दावा किया गया कि जयंत चौधरी द्वारा यूपी के पूर्व सीएम अखिलेश यादव के मोबाइल पर भेजे गये एक मैसेज से कैराना उपचुनाव का खेल बदल गया।
रिपोर्ट के अनुसार जयंत चौधरी ने कैराना उपचुनाव में गठबंधन की पहल की। सपा और बसपा पहले ही गोरखपुर और फूलपुर में भाजपा-विरोधी गठबंधन का सफल प्रयोग कर चुके थे। गोरखपुर सीट यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और फूलपुर सीट उप-मुख्यमंत्री केशवप्रसाद मौर्य के इस्तीफे से खाली हुई थी। इस लिहाज से इन दोनों सीटों का हारना भाजपा के लिए काफी शर्मनाक माना गया। लेकिन कैराना सीट भी वरिष्ठ भाजपा नेता हुकुम सिंह के निधन से खाली हुई थी। उपचुनाव में उनकी बेटी मृगांका सिंह ही मैदान में थीं। हुकुम सिंह ने साल 2014 में कैराना सीट 2.40 लाख वोटों से जीता था। मृगांका सिंह 44 हजार से ज्यादा वोटों से हार गईं।
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जयंत चौधरी के दादा और पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह अब भी जाटों के सबसे बड़े नेता माने जाते हैं। उनके पिता अजित सिंह भी जाट वोटों के दम पर खुद को समीचीन बनाए रहे। लेकिन पिछले कुछ सालों में जाट वोटों पर चौधरी परिवार की पकड़ ढीली पड़ती दिखी। खासतौर पर साल 2014 के लोक सभा चुनाव और 2017 के यूपी विधान सभा चुनाव में रालोद का प्रदर्शन बहुत निराशाजनक रहा। लोक सभा में रालोद खाता भी नहीं खोल सकी। खुद जयंत चौधरी अपनी मथुरा संसदीय सीट पर भाजपा की उम्मीदवार हेमा मालिनी से हार गये थे। विधान सभा में रालोद को केवल एक सीट पर जीत मिली जबकि साल 2012 के यूपी विधान सभा चुनाव में रालोद को नौ सीटें मिली थीं।
इन दोनों चुनावों के बाद जयंत चौधरी के राजनीतिक भविष्य पर सवाल उठने लगे थे। कई राजनीतिक विश्लेषकों को लगा कि वो चरण सिंह और अजित सिंह की विरासत को आगे बढ़ाने के काबिल नहीं हैं। लेकिन कैराना लोक सभा उपचुनाव में जयंत चौधरी ने जिस तरह सपा, बसपा और कांग्रेस को रालोद का समर्थन के लिए के तैयार किया उससे उनकी राजनीतिक पटुता का पता चलता है। कैराना उपचुनाव के प्रचार के दौरान भी जयंत चौधरी ने इलाके के किसानों को सफलतापूर्वक राजनीतिक मुद्दा बनाए रखा। उपचुनाव से पहले भाजपा पर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर को लेकर सांप्रदायिक धुव्रीकरण की कोशिश का आरोप लगा था। जयंत चौधरी ने इस मसले पर आक्रामक रुख अपनाते हुए कहा कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ना नहीं जिन्ना मुद्दा है। उपचुनाव के नतीजे ने साफ कर दिया जयंत चौधरी सही थे।
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27 दिसंबर 1978 को जन्मे जयंत चौधरी लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से एमएससी की है। उनके इंजीनियर पिता अजित सिंह ने राजनीति के लिए अपना करियर त्याग दिया। जयंत भी पिता की राह पर ही चले। साल 2009 के लोक सभा चुनाव में यूपी की मथुरा सीट पर धमाकेदार जीत के साथ उन्होंने अपने राजनीतिक करियर का आगाज किया। खास बात यह थी कि चरण सिंह के परिवार से मथुरा सीट पर जीतने वाले वो पहले शख्स बने। चरण सिंह की पत्नी गायत्री देवी 1984 में मथुरा सीट से हार गई थीं। चरण सिंह की बेटी ज्ञानवती सिंह भी साल 2004 के लोक सभा चुनाव में मथुरा सीट से हार गई थीं। जाट प्रभाव वाली सीट पर इस परिवार से किसी भी नेता का न जीत पाना सालने वाला था। 2009 के आम चुनाव में भी जयंत चौधरी ने राजनीतिक चतुराई का परिचय दिया था। रालोद ने सपा से आपसी समझ बना ली और मुलायम सिंह यादव ने मथुरा सीट पर उम्मीदवार नहीं उतारा। बदले में रालोद ने मैनपुरी और कन्नौज में मुलायम और अखिलेश का समर्थन कर दिया। इस तरह जयंत मथुरा सीट पहली बार अपने परिवार की झोली में ले आए।
साल 2009 में पिता अजित सिंह और पुत्र जयंत चौधरी दोनों लोक सभा पहुँचे लेकिन अगले ही आम चुनाव में मोदी लहर में दोनों की सीटें बह गईं। 2014 के आम चुनाव में बागपत लोक सभा सीट पर अजित सिंह तीसरे स्थान पर फिसल गये थे। भाजपा ने बागपत सीट सपा के उम्मीदवार को हराकर जीत ली। वहीं मथुरा सीट पर जयंत चौधरी भाजपा की हेमा मालिनी से हार गये। साल 2014 के लोक सभा चुनाव में पिता और पुत्र दोनों को मिली करारी हार के बाद ये क़यास लगाये जा रहे थे कि जाटों पर भाजपा ने अपनी पकड़ मजबूत कर ली है और चरण सिंह परिवार की जाटों पर पहले जैसी पकड़ नहीं रही। बागपत सीट हारना चौधरी परिवार के लिए बहुत बड़ा झटका था क्योंकि इसे उनकी पारिवारिक सीट माना जाता रहा है। चरण सिंह तीन बार और अजित सिंह से छह बार बागपत सीट से सांसद रहे थे।
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साल 2017 के विधान सभा चुनाव में रालोद ने यूपी की कुल 403 सीटों में से 284 पर उम्मीदवार उतारे लेकिन जीत उसे बागपत जिले के छपरौली विधान सभा सीट पर मिली। विधान सभा चुनाव ने चौधरी परिवार के खिलाफ की जा रही बातों को और हवा दी। जब सभी राजनीतिक जानकार रालोद का मर्सिया लिखने में व्यस्त थे तब शायद जयंत चौधरी अपनी विरासत को खंगाल रहे थे। कैराना उपचुनाव में जयंत चौधरी ने जिस तरह किसानों और उनकी जरूरतों को चुनावी मुद्दा बनाया उससे साफ हो गया कि उन्हें ये समझ आ गया है कि चरण सिंह केवल जाट नेता होने की वजह से इतने बड़े नहीं बने थे किसानों की आवाज़ बनकर ही राष्ट्रीय राजनीति में प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचे थे। जयंत चौधरी ने जाटों के अहम को भी उपचुनाव में खूब कुरेदा। जयंत चौधरी ने कहा, "भाजपा की पूँछ नहीं, रालोद की मूँछ बनो।"
जाट विरासत के दावे ने जहाँ उन्हें जाटों का समर्थन दिलाया वहीं गन्ना किसानों की पैरोकारी ने उन्हें गैर-जाटों में लोकप्रियता दिलायी। चुनावी जीत ने जयंत के राजनीतिक गठजोड़ और चुनावी मुद्दे दोनों पर वैधता की मुहर लगा दी है। जयंत चौधरी ने उपचुनाव में जिस तरह रालोद की राजनीतिक उम्मीदों जिंदा की है उसके बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नए राजनीतिक हीरो बनकर उभरे हैं। वहीं कई लोग मान रहे हैं कि वो यूपी की सियासत में अपने दादा चरण सिंह वाले रंग दिखा सकते हैं। अगर जयंत चौधरी ने आगे भी यही ढंग बरकरार रखा तो वो भाजपा के लिए यूपी की राजनीति में तीसरा सिरदर्द बन सकते हैं। भाजपा पहली ही सूबे की सियासत में अखिलेश यादव और मायावती के गठजोड़ की काट खोजने में व्यस्त है।
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