राजस्थान चुनावः मुख्यमंत्री के मुद्दे पर बिखर गए तीसरे मोर्चे के सियासी सपने?
By प्रदीप द्विवेदी | Published: December 12, 2018 06:42 PM2018-12-12T18:42:22+5:302018-12-12T18:42:22+5:30
इस बार कांग्रेस और भाजपा ने मिलकर करीब 80 प्रतिशत वोट प्राप्त किए और 170 से ज्यादा सीटों पर कब्जा जमाया। यानी तीसरे मोर्चे के हिस्से में कुछ खास नहीं आया।
राजस्थान विस चुनावी इतिहास में कांग्रेस और भाजपा में सीधी टक्कर होती रही है और तीसरे मोर्चे जैसी धारणा केवल हवाई किला ही साबित होती रही है। इस बार चुनाव से पहले तीसरे मोर्चे की प्रबल भूमिका को लेकर चर्चा गर्म थी, लेकिन चुनावी नतीजों ने साफ कर दिया कि अभी राजस्थान का मतदाता तीसरे मोर्चे के लिए तैयार नहीं है।
इस बार कांग्रेस और भाजपा ने मिलकर करीब 80 प्रतिशत वोट प्राप्त किए और 170 से ज्यादा सीटों पर कब्जा जमाया, यानी तीसरे मोर्चे के हिस्से में कुछ खास नहीं आया। तीसरे मोर्चे की नाकामयाबी में सबसे बड़ा योगदान तीसरे मोर्चे के नेताओं का ही है। इस बार भी तीसरे मोर्चे के नेता एक-दूसरे के प्रति सद्भावना तो प्रदर्शित करते रहे, लेकिन मुख्यमंत्री के मुद्दे पर मौन ही रहे, यदि तीसरे मोर्चे के सभी दल मिलकर किसी सशक्त उम्मीदवार को सीएम प्रत्याशी घोषित कर देते तो चुनाव के बाद सियासी तस्वीर कुछ और होती।
हनुमान बेनीवाल और घनश्याम तिवाड़ी एक मंच पर आए, एक-दूसरे को सहयोग देने की भी बात कही, लेकिन दोनों ही दल अपने-अपने नेता को ही मुख्यमंत्री का उम्मीदवार मानते रहे, जिसके कारण जैसी उम्मीद कर रहे थे, वैसी कामयाबी नहीं मिली।
घनश्याम तिवाड़ी चुनाव तो हारे ही, जमानत भी नहीं बचा पाए। एक सबसे बड़ी गलती यह की कि उन्होंने भाजपा में रह कर संघर्ष तो साढ़े चार साल तक किया, लेकिन अपनी पार्टी बनाने में बहुत देर कर दी। जिसके कारण उनके अपने क्षेत्र सांगानेर के कई मतदाताओं को भी उनके चुनाव चिन्ह की जानकारी नहीं थी।तीसरे मोर्चे के दलों की सबसे बड़ी परेशानी यह भी रही कि एक तो सारे ही दल केवल आधे- उत्तरी राजस्थान में ही प्रभावी थे और कई दलों का प्रभाव क्षेत्र ओवरलेप हो रहा था, मतलब।।। कई जगह इन्होंने एक-दूसरे के वोट ही काट दिए।
इस वक्त सियासी भविष्य को लेकर सबसे बड़ा सवाल घनश्याम तिवाड़ी के सामने ही है। तिवाड़ी जिस विचारधारा से जुड़े हैं, उसके लिए केवल भाजपा और शिवसेना, दो ही दल हैं। सियासत की मुख्यधारा में आने के लिए उन्हें या तो डाॅ किरोड़ीलाल मीणा की तरह इन दोनों दलों में से किसी एक का हाथ थामना होगा या इनके साथ राजनीतिक गठजोड़ करना होगा। यदि तिवाड़ी ऐसा कर पाते हैं तो अगले लोकसभा चुनाव तक फिर से सियासी समीकरण में जगह बना सकते हैं!