बेंगलुरु का अनूठा 'फायर टेम्पल' और लोकप्रियता से कोसों दूर प्रकृति से अभिन्न रिश्ता निभाते पारसी

By अनुभा जैन | Published: November 28, 2021 02:12 PM2021-11-28T14:12:53+5:302021-11-28T14:12:53+5:30

पारसी फायर टेम्पल: यह बेहद दिलचस्प तथ्य है कि मंदिर के गर्भगृह में सिर्फ चंदन की लकडी का इस्तेमाल करते हुये अग्नि हमेशा जलती रहती है।

Parsi community unique fire temple in Bengaluru, its history, significance and Parsi people | बेंगलुरु का अनूठा 'फायर टेम्पल' और लोकप्रियता से कोसों दूर प्रकृति से अभिन्न रिश्ता निभाते पारसी

बेंगलुरु में पारसियों का मंदिर- एजियअरी

प्रकृति के साथ एक अनूठा और नायाब रिश्ता निभाते पारसी समुदाय के लोग कुछ गोपनीय पहलुओं के साथ जिंदगी के हर क्षण को जिंदादिली के साथ जीते हैं। पारसी जहां समुदाय और धार्मिक पक्ष के प्रति गहरी आस्था रखते हैं वहीं अग्नि को पूजनीय मानते हुये प्रकृति के चारों पक्षों जिनमें अग्नि, जल, आकाश या वायु और पृथ्वी को बेहद पवित्र मानते हैं। 

पारसियों के मंदिर एजियअरी या फायर टेम्पल कहलाते हैं। एक सुहानी सुबह मैंने भी एक ऐसे ही विचित्र से बने पारसीयों के फायर टैम्पल को देखा जो बेंगलुरु के क्विंस रोड पर प्रसिद्ध इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग जंक्शन के समीप बना है। 

भीड़-भाड़ भरे इस जंक्शन पर धूसर व सफेद रंग के अग्नि आकार के सीमेंट से बने कई खंभों के ब्रिटिश ईरानी आर्किटेकचर से बना यह मंदिर लोगों के ध्यान से कोसों दूर था। वाहनों की आवाजाही और लोगों के शोरगुल की आवाजों के बीच बने इस मंदिर में जैसे ही मैंने परिसर में प्रवेश किया वहां फैली अजीब सी खामोशी ने मुझे अपनी ओर सम्मोहित कर लिया।


 
इतिहास पर अगर गौर करें तो अपनी पहचान को संरक्षित रखते पारसियों ने भारत में सबसे पहले गुजरात के दक्षिण पश्चिम तट पर स्थित संजन शहर में 716 ईसवी में कदम रखा। कर्नाटक में पारसियों को मैसूर-वडियार साम्राज्य के दौरान देखा गया। वैसे बेंगलूरु में पारसियों की आधिकारिक आबादी 1880 में आनी शुरू हुई। 

इसके बाद पारसी बेंगलूरु में आने के साथ यहां के लोगों के रीति- रिवाजों की अनुपालना करने लगे। ब्रिटिश आर्मी के लिये काम करने वाले पारसी शहर के कैंटोनमेंट या छावनी क्षेत्र में बसने लगे। बेंगलूरु में 1922 में एक अंजूमन की स्थापना की आवश्यकता पारसी जोरोआस्टरीयन द्वारा महसूस की गयी। और इसी कड़ी में ‘दी बेंगलुरु पारसी जोरोआस्टरीयन अंजूमन’ गठित किया गया।


 
पारसियों के बारे में बात करते हुये बेंगलुरु पारसी जोरोस्टरीयन अंजूमन के बोर्ड ट्रस्टी और उपाध्यक्ष शेरेयार डी.वकील ने अपने साक्षात्कार में बताया कि ‘पारसी 1888 और 1890 के मध्य मैसूर में आये। मैसूर में डा.डी.के.दाराशॉ पहले प्रेक्टिसिंग डॉक्टर थे। सन् 1900 में मैसूर में सिर्फ 15 से 20 पारसी परिवार ही थे और फिर वहां से इन पारसियों ने बेंगलूरु की तरफ रूख किया। 1920 में पारसियों की यह संख्या बढ़कर करीब 100 तक पहुंच गयी।’

1937 में बैंगलूरु में जोरोआस्टरीयन आबादी 300 तक पहुंची जो 1925 में महज 125 ही थी। वकील ने जानकारी देते हुये बताया कि आज की बात करें तो करीब 800 की आबादी के साथ 400 से 450 पारसी परिवार बेंगलूरु में रह रहे हैं।

बेंगलूरु में पारसीयों के फायर टैम्पल बनाने के लिये सेठ दिनशा कावसजी ने दान दिया और जिस रकम से बैंगलोर पारसी जोरोआस्टरीयन अंजूमन ने 1924 में मंदिर का निर्माण कार्य शुरू किया। औपचारिक रूप से 1926 तक यह मंदिर बन कर तैयार हो गया। इस मंदिर का नाम बाई धनमाई और कावसजी दादाभाई दर-ई-मिहिर रखा गया। 

यह बेहद दिलचस्प तथ्य है कि मंदिर के गर्भगृह में सिर्फ चंदन की लकड़ी का इस्तेमाल करते हुये अग्नि हमेशा जलती रहती है। मैने जब मंदिर के गर्भ-गृह में जाने का प्रयास किया तो वहां के इरवैड या धर्म गुरू फरीदून करकरिया ने मुझे अंदर जाने से यह कहते हुये रोका कि सिर्फ पारसी समुदाय के लोग या वह खुद अंदर प्रवेश कर सकते हैं। अन्य किसी को अंदर जाने की अनुमति नहीं है। यह सुनकर मुझे हैरानी तो हुयी पर मैने यह सोच कर अपने को संतुष्ट किया कि हर धर्म के अपने कुछ उसूल और नियम होते हैं जिनको उस धर्म के लोग सख्ती से पालना करते हैं और वह गलत भी नहीं है।

वकील ने आगे जानकारी देते हुये बताया कि जानेमाने पारसी पर्यटक कराची के सर जहांगीर कोठारी और उनकी पत्नी 1923 में बैंगलूरू भ्रमण के लिये आये जिसमें सर कोठारी की पत्नी का देहांत यहां हो गया। अपनी पत्नी की याद में सर जहांगीर ने दी लेडी जहांगीर कोठारी मेमोरियल हॉल का निर्माण करवा कर अंजूमन को भेंट किया। इस कक्ष का प्रयोग आज पारसी समूह के लोग सामाजिक गतिविधियों के लिये करते हैं। इसी कड़ी में पारसी बी.जे.एनटी ने पारसी धर्मशाला का निर्माण पारसी पर्यटकों के लिये करवाया।

दाह संस्कार पारसियों में वर्जित माना जाता है। इसलिये मृत शरीर को सूरज के सीधे संपर्क में रख कर चील, कौओं आदि पक्षियों से नोंच कर प्राकृतिक तौर पर खत्म करने की प्रथा है। पारसियों का मानना है इस प्रक्रिया द्वारा दाह संस्कार में मृत शरीर को जलाने से होने वाले प्रदूषण को भी रोका जाता है। इस प्रथा के तहत बेंगलुरु में सन् 1940 में प्रसिद्व टावर ऑफ साइलेंस या ढोकमा की स्थापना की गयी।

जैसे जैसे पारसीयों की संख्या शहर में बढ़ती जा रही थी उसी क्रम में इस तरह की इमारतों की संख्या में भी इजाफा देखा जा रहा था। अंजूमन के सराहनीय प्रयासों के तहत 1967 में मध्यम आय वर्ग के उन जोरोआस्टरीयन पारसीयों के लिये मकानों का निर्माण करना भी शामिल है जो उचित रिण में रहने के विकल्प नहीं प्राप्त कर पा रहे थे। हाल ही में अंजूमन ने युवाओं की शिक्षा के लिये एज्यूकेशन फंड का प्रावधान भी किया है। इस तरह अंत में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज पारसी चाहे एक सीमित और कम संख्या में ही मौजूद हैं पर अपने समुदाय के लिये ये बेहद संतोषजनक कार्य करने में किसी तरह से पीछे नहीं हैं।

Web Title: Parsi community unique fire temple in Bengaluru, its history, significance and Parsi people

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