-अवधेश कुमारइस समय पत्थलगड़ी आंदोलन देशव्यापी सुर्खियां बना है। हालांकि यह माओवाद प्रभावित राज्यों के आदिवासी इलाकों में काफी समय से चल रहा है लेकिन राष्ट्रीय मीडिया में चर्चा में तब आया जब पिछले दिनों लोकसभा के पूर्व उपाध्यक्ष और भाजपा के खूंटी से सांसद करिया मुंडा के चार सुरक्षा गार्ड अगवा कर लिए गए। बाद में वे रिहा हो गए, किंतु उसके लिए पुलिस और रैपिड एक्शन फोर्स को कड़ी मशक्कत करनी पड़ी। दरअसल, हाल में हुए खूंटी सामूहिक बलात्कार कांड के आरोपियों को पकड़ने के लिए पुलिस एक गांव गई थी। आसपास के गांवों के लोग वहां एकत्रित थे। उन्होंने पुलिस को गांव में घुसने से रोका, सुरक्षा बलों के साथ मोर्चाबंदी की। आरंभ में पुलिस को पीछे हटना पड़ा। ग्रामीण उन्हें धकेलते हुए बढ़ते-बढ़ते करिया मुंडा के आवास तक पहुंचे तथा वहां से सुरक्षा गार्डो को बंधक बनाकर ले गए। बाद में पुलिस ने कार्रवाई की तो आदिवासियों के पारंपरिक हथियारों से उनको जवाब मिला अंतत: सुरक्षाकर्मियों को विजय मिलनी ही थी। पत्थलगड़ी आंदोलनकारियों के खिलाफ यह अब तक की सबसे बड़ी सुरक्षा कार्रवाई थी। वहां की जो तस्वीरें आई हैं उनमें गांव में प्रवेश करने वाली सड़क पर तीर-धनुष, फरसे-टांगी और लाठी-डंडों के साथ बंदूक की शक्ल वाले धनुष के ढेर लगे हुए थे। जिन वाहनों से पत्थलगड़ी समर्थक गांव में पहुंचे थे वैसी लगभग तीन सौ मोटरसाइकिलें और साठ सवारी गाड़ियां खड़ी थीं। इन तस्वीरों से पता चलता है कि आंदोलन काफी सशक्त हो चुका है। निश्चित रूप से यह स्थिति डरावनी है।
पहले यह समझें कि पत्थलगड़ी क्या है? कई आदिवासी इलाकों में पत्थलगड़ी की सामाजिक और सांस्कृतिक परंपरा है। इस परंपरा में श्मशान से लेकर गांव की सीमा तक पत्थर गाड़कर संदेश दिया जाता है। गांव और जमीन की सीमा इंगित करने, किसी व्यक्ति की स्मृति में, महत्वपूर्ण अवसरों को याद रखने तथा समाज के महत्वपूर्ण फैसले को लोगों तक पहुंचाने के लिए धरती में पत्थर गाड़ते हैं। इसका पारंपरिक महत्व किसी सरकारी दस्तावेज या सीमांकन से ज्यादा है। यही पत्थलगड़ी अब क्षेत्नों में सरकार को नकारने तथा स्वतंत्न व्यवस्था स्थापित करने के आंदोलन के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। इसमें अपने संदेश को पत्थर पर लिखकर गांव की सीमा के पास गाड़ देते हैं। इस पर लिखा होता है कि गैर आदिवासी को बिना अनुमति गांव में प्रवेश नहीं करना है। ये सरकारी कर्मचारियों को किसी सूरत में गांवों में घुसने देने के विरुद्ध हैं। यह सरकार के भीतर स्वतंत्न समानांतर सरकार वाली स्थिति है।
पत्थलगड़ी आंदोलन की पहली सूचना झारखंड के खूंटी क्षेत्र से प्राप्त हुई थी। उसके बाद छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल आदि से भी इसकी खबरें आईं।
यह स्वीकार करने में हर्ज नहीं है कि लंबे समय से व्यवस्था के खिलाफ असंतोष चारों ओर है और आदिवासी इलाकों में काफी ज्यादा है। पर किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसे अभियानों का समर्थन नहीं किया जा सकता है। अधिकारों के लिए अहिंसक संघर्ष करना स्वीकार्य है किंतु समानांतर व्यवस्था खड़ी कर लेना और सरकार को पूरी तरह नकार देने को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। यह संभव भी नहीं है कि किसी क्षेत्न को पूरी तरह काटकर उसकी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति कर ली जाए। चूंकि शासन बल प्रयोग करने से परहेज कर रहा है इसलिए यह चल रहा है। जिस दिन शासन तय कर लेगा उसी दिन ये सारी व्यवस्थाएं ध्वस्त हो जाएंगी। कल्पना करिए उस समय कितनी हिंसा होगी। कोई नहीं चाहेगा कि आंदोलन का ऐसा खूनी हश्र हो। सरकारें भी समझें कि आखिर ये स्वतंत्न होने की सीमा तक क्यों गए? इनसे सबक लेकर सरकारें विकास तथा लोगों के साथ न्याय सुनिश्चत करने के लिए संकल्प के साथ काम करें।
(अवधेश कुमार स्तंभकार हैं)