'वन नेशन-वन इलेक्शन' से बदल सकती है देश की राजनीतिक तस्वीर, जानें इसके फायदे और नुकसान

By बद्री नाथ | Published: June 22, 2019 01:14 PM2019-06-22T13:14:18+5:302019-06-22T13:14:18+5:30

One Nation One Election Debate: एक देश और एक चुनाव की डिबेट का अवलोकन करें तो इसके नफा और नुकसान दोनों हैं। आइए, इसपर एक नजर डालते हैं...

One Nation One Election debate pros and cons: all you need to know about this political debate, | 'वन नेशन-वन इलेक्शन' से बदल सकती है देश की राजनीतिक तस्वीर, जानें इसके फायदे और नुकसान

'वन नेशन-वन इलेक्शन' से बदल सकती है देश की राजनीतिक तस्वीर, जानें इसके फायदे और नुकसान

Highlightsदेश में 'वन नेशन-वन इलेक्शन' के मुद्दे पर बहस छिड़ी हुई है।इस मुद्दे पर सत्ता पक्ष एकजुट तो विपक्ष में बिखराव। क्या हैं इसके नफा और नुकसान।

देश में 'वन नेशन-वन इलेक्शन' के मुद्दे पर बहस छिड़ी हुई है। इस चुनाव में यह कोई बड़ा मुद्दा तो नहीं रहा था लेकिन इस मामले के समर्थन में सत्ता पक्ष बड़े ही कड़ाई से एकजुट होकर अपना पक्ष रख रहा है। वहीं विपक्ष बंटा हुआ दिख रहा है। वन नेशन और वन इलेक्शन के मुद्दे पर प्रधानमंत्री द्वारा बुलाई गई बैठक में प्रधानमंत्री ने 40 दलों की बैठक बुलाई थी।इस बैठक में जेडीयू, अकाली दल समेत 21 पार्टियां शामिल हुई लेकिन कांग्रेस, आप, टीएमसी, सपा , टीडीपी, डीएमके समेत 16 मुख्य क्षेत्रीय दलों के किसी भी प्रतिनिधि ने भाग नहीं लिया।

शरद पवार, नवीन पटनायक, जगन मोहन रेड्डी, फारुख अब्दुल्ला, और सीताराम येचुरी जैसे बड़े दलों के नेताओं ने इस मीटिंग में अपने अपने विचार रखे। इस मुद्दे पर आंध्र प्रदेश की रूलिंग पार्टी वाईएसआर कांग्रेस, तेलंगाना की रूलिंग पार्टी टीआरएस और ओडिशा की रूलिंग पार्टी बीजद का पूरा सहयोग मिला है। प्रधानमन्त्री द्वारा यह निर्णय लिया गया है कि एक राष्ट्र और एक चुनाव के मुद्दे पर समिति गठित की जाएगी।

वन नेशन वन इलेक्शन का अवलोकन करें तो इसके नफा और नुकसान दोनों हैं। आइए, इसपर एक नजर डालते हैं।

वन नेशन वन इलेक्शन के नुकसान

- अगर सरकार गिर गई तो 5 साल असेम्बली  भंग नहीं होगी। केंद्र सरकार चलाने वाले दल अपने हिसाब से शासन चलाने लगेंगे। राष्ट्रपति शासन के नाम पर केंद्र द्वारा आये राज्यपाल केंद्र में सत्ताधारी दल के पक्ष में कार्य करेंगे तो लोकतान्त्रिक व्यवस्था की मूल संकल्पना प्रभावित होने का चुनौती प्रकट हो सकती है।

- विविधता में एकता हमारी संस्कृति है। हमारे संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रीय एकता परिषद और नीति आयोग (पूर्व का योजना आयोग) बनाकर देश की गंगा जमुनी तहजीब और एकता को बढ़ाने और सभी के हितों को साधने का स्वप्न देखा था। प्रधानमंत्री के दखल से ज्यादातर केंद्र की सरकार का दखल हो जाता है इससे क्षेत्रीय, जातीय, धार्मिक, छोटे समुदायों के हित प्रभावित हो सकते हैं।

- राज्य विधान सभा के चुनाव मुख्य तौर पर क्षेत्रीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं। अगर राष्ट्रीय मुद्दे इन मुद्दों के बीच  में आये तो क्षेत्रीय मुद्दों के गौड़ होने का खतरा होगा। उदाहरण स्वरूप 5 महीने पहले हुए विधान सभा के चुनावों में 5-0 से हारने वाली बीजेपी और अच्छा प्रदर्शन करती। ऐसा देश के राजनितिक विचारकों का मानना है कि अगर राष्ट्रवाद  के नाम पर मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ के चुनाव लड़े गए होते तो इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों के खिलाफ चल रहे दीर्घकालीन गुस्से और कम हो जाते। राजस्थान में वशुन्धरा के खिलाफ लोगों का गुस्सा था “मोदी तुमसे बैर नहीं पर रानी तेरा खैर नहीं”। वैसे ही अति राष्ट्रवाद के नैरेटिव के बनने में दूसरे दलों को काफी नुकसान हो जाता। आज टी चंद्रशेखर राव भले ही वन नेशन और वन इलेक्शन की बात पर सहमत हैं लेकिन उन्हें भी कहीं न कहीं इस बात का डर सता रहा था कि अगर राष्ट्रीय चुनावों के साथ उनके राज्य के चुनाव होते तो उनकी बड़ी जीत नहीं हो पाती। समय से पूर्व विधान सभा भंग करने का फैसला भी इसी डर का नतीजा रहा था। 

- बहुदलीय प्रणाली की खूबसूरती थोड़ी फीकी होगी। देश के प्रेसिडेंशियल सिस्टम की ओर जाने का खतरा बढ़ेगा। छोटे जातियों, कम संख्या में उपस्थित धर्मों के खिलाफ पूरे देश में चुनावी अभियानों को चलाने का ट्रेंड भी बढ़ सकता है तो इनके हितों के रक्षा खतरे में पड़ सकती है। उदाहरण स्वरूप बीजेपी के प्रचंड जीत के बाद टीडीपी और टीएमसी के कार्यकर्ताओं में इतनी हताशा और कॉन्फिडेंस की कमी आई है कि बड़े लेवल पर इसके कार्यकर्ता यहां तक कि राज्यसभा सदस्य भी बीजेपी ज्वाइन कर रहे हैं। कांग्रेस के जमाने में भी जब 1967 में क्षेत्रीय दल उभर रहे थे तो कांग्रेस ने अपने शक्ति से राष्ट्रपति शासन लगाकर सभी चीजों को अपने नियन्त्रण में किया था। भले ही वो लफड़े हमारी न्यापालिका के द्वारा सुलझा लिए गए थे लेकिन एक बात का खतरा और उभर सकता है कि ज्यादा राज्यों में सरकार बनाने वाले राष्ट्रीय दल संविधान संशोधन में भी समर्थ  होंगे। ऐसा होने पर विशेष संशोधन करके हमारे लोकतन्त्र को अपने गिरफ्त में ले सकते हैं।

वन नेशन वन इलेक्शन के फायदे 

- भारत एक लोकतान्त्रिक देश है। तानाशाही देशों के मुकाबले एक लोकतान्त्रिक देश के सेट अप को मेन्टेन करना काफी खर्चीला होता है। भारत जैसे विशाल देश में हर दूसरे या तीसरे महीने कहीं न कहीं चुनाव (राज्य विधानसभा व लोक सभा या उपचुनाव) हो रहे होते हैं। चुनाव आयोग के द्वारा जारी किये गए आकड़ों के मुताबिक 2009  में मात्र 14,80 करोड़ खर्च हुए थे जो 2014 में बढ़कर 3 हजार 8 सौ 70 करोड़ हो गया। 2019 का डाटा अभी जारी नहीं हुआ है। संभवतः इसबार कई गुना ज्यादा पैसा खर्च हुआ होगा। 2014 के चुनाव में भारतीय चुनाव आयोग का खर्च 3 हजार 8 सौ 70 करोड़ रूपये था। इसके अलावा सिक्योरिटी का खर्चा जो होम मिनिस्ट्री आवंटित करती है। सीआरपीएफ के जवान, पुलिस की मूवमेंट, लार्ज स्केल पर ब्यूरोक्रेट की मूवमेंट होती है। रेलवे का इस्तेमाल और बहुत सारे कर्मचारियों की तैनाती की जाती है। सब कुछ का खर्च जोड़ दें तो यह 10,000 करोड़ से ऊपर चला जाता है।

- इसके अलवा राजनीतिक दल भी काफी पैसे खर्च करते हैं। दिल्ली स्थित थिंक टैंक “सेंटर फोर मीडिया रिसर्च” के मुताबिक देश में 11 अप्रैल से 19 मई के बीच देश में 7 चरणों में हुए विगत चुनावों में देश के सभी राजनीतिक दलों (बीजेपी, शिव सेना, डीएमके, कांग्रेस, बीएसपी, तृणमूल कांग्रेस...) ने मिलकर कुल 50,000 करोड़ खर्च किये। इसमें बीजेपी का मात्र अकेले का खर्च 27 हजार करोड़ का रहा था। यह किसी राजनीतिक दल द्वारा खर्च की गई सबसे ज्यादे रकम थी।

- इस चुनावी दौर में नेता बहुत बड़ी-बड़ी रैलियां करते हैं। हेलीकाप्टर से प्रचार करने के लिए घूमते हैं। बड़े बड़े रोड शो करते हैं। बड़े पैमाने पर ऑफ़ लाइन और ऑनलाइन, टीवी और  वेबसाइट विज्ञापन दिए जाते हैं। यह इतना बड़ा अमाउंट है कि इतने में आप देश के हर राज्य में एम्स जैसे हॉस्पिटल बना सकते हैं।

- अलग अलग समय पर होने वाले इन चुनावों से होने वाले खर्चों से बचाने के लिए देश में वन नेशन वन इलेक्शन की बात चल रही है। इसके मुताबिक देश का मतदाता एक वोट देगा केंद्र के लिए दूसरा वोट देगा राज्य के विधान सभा के लिए तो बार-बार होने वाले चुनावों से बचा जा सकता है। राजनीतिक दलों को बार-बार फंड इक्कट्ठा करने की जरूरत नहीं होगी और देश पूरा ध्यान विकास पर फोकस कर सकेगा।

बड़े बदलाव की होगी जरूरत

इसके लिए संविधान में अपेक्षित सुधार की जरूरत होगी। संविधान के अनुच्छेद 83, 85, 172, और 174 तथा 356 में बदलाव की जरूरत होगी। इसके लिए अगर क्षेत्रीय दल मदद न करें तो  बीजेपी को 2021 तक का इन्तजार करना पड़ेगा। अनुच्छेद 83 (यह अनुच्छेद संसद राज्य विधान सभा के कार्यकाल को बताता है) अनुच्छेद 85 (राष्ट्रपति द्वारा लोस भंग) अनुच्छेद 172  (यह अनुच्छेद संसद  के कार्यकाल को) 174 (राज्य विधान सभाओं के भंग करने की प्रक्रिया) में भी सुधार करने होंगे। इसके साथ 356 (राष्ट्रपति चुनाव ) में भी बदलाव की जरूरत होगी। भारतीय चुनाव आयोग को भी तैयार करना होगा। सरकार गिरने पर असेंबली डिसॉल्व ना हो इसके लिए अलग से प्रावधान की जरूरत होगी। देश के चुनाव आयोग को नए तरीके से डिजाइन करना होगा। वोटर को भी नए तरीके से ट्रेंड करना होगा। 

- इसके लिए राज्य सभा और लोकसभा में पूर्ण बहुमत चाहिए। इस समय एनडीए के पास पूर्ण बहुमत है। वर्तमान सरकार इस दिशा में कार्य कर रही है कुछ अन्य दलों का भी सपोर्ट मिलेगा। अगर दूसरे दल न मिलें इसके समर्थन में न आयें तो इसके लिए कुछ और समय का इन्तजार करना पड़ सकता है।

पहले क्या स्थिति थी 

वन नेशन और वन इलेक्शन देश में कोई नई बात नहीं है। देश के सबसे पहले चुनाव 1952 में हुए थे। 1952 से 67 तक देश के सभी राज्य व केंद्र के चुनाव साथ हुए। इसके बाद नए राज्य बने या सरकारें गिरी। गठबंधन की सरकारें आई। जो ट्रेन एक साथ आती जाती थी इसमें कोई आगे चली गई कोई पीछे रह गई।

ऐसा नहीं है कि राष्ट्रीय दल ही राष्ट्रीय मुद्दों में जीतेंगे। अगर ऐसा होता तो आंध्र प्रदेश और ओडिशा में बीजेपी ही जीतती। ओडिशा में नवीन पटनायक की सरकार पुनः नहीं बन पाती। ममता की पश्चिम बंगाल में हार सभी लोग बंटा रहे हैं लेकिन 3% वोट शेयर उनका बढ़ा है। लोकप्रियता के लिहाज से देखें तो वो ज्यादा लोकप्रिय हुई हैं। कुल मिलाकर क्षेत्रीय दलों को कड़ा कम्पटीशन देना होगा। तब क्षेत्रीय दलों को शक्तिशाली राष्ट्रीय दलों को हराने के लिए काफी लोकप्रियता हासिल करनी होगी। इसके लिए समाज को हर स्तर पर खुश रखने की जरूरत होगी। राष्ट्रपति शासन वाले संशोधन में केंद्र सरकार के अधिकारों में उचित बदलाव के साथ 83, 85, 172, 174 में उचित बदलाव लाये जाएँ तो 'वन नेशन वन इलेक्शन' काफी प्रभावशाली कानून साबित हो सकता है।

Web Title: One Nation One Election debate pros and cons: all you need to know about this political debate,