लोकसभा चुनाव 2019: राजनीति, अपराध और दौलत का कॉकटेल
By सूर्य कांत सिंह | Published: May 22, 2019 03:53 PM2019-05-22T15:53:14+5:302019-05-22T17:14:48+5:30
लोकसभा चुनाव 2019 के लिए सात चरणों में 11 अप्रैल से 19 मई के बीच मतदान हुआ। कल 23 मई को सभी सीटों के लिए हुए मतदान की गणना होगी। परिणाम कल देर शाम तक आने की उम्मीद है। इस आम चुनाव में मुख्य मुकाबला बीजेपी नीत एनडीए और कांग्रेस नीत यूपीए के बीच ही माना जा रहा है।
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आंकड़ों के अनुसार लोकसभा और विधान सभा चुनावों में दागी उम्मीदवारों के दोबारा चुनाव जीतने की सम्भावना ज्यादा होती है। (lokmat graphics)
लोकसभा आम चुनाव लोकतांत्रिक भारत का सबसे बड़े त्योहार के रूप में मनाया जा रहा है। अन्य सांस्कृतिक त्योहारों की भांति आम चुनाव में भी खूब तमाशे चल रहे हैं और रंगीनियाँ बिखेरी जा रही है। देश में “पहली बार मतदान करने वाले” मतदाताओं की संख्या “2012 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव” में मतदान करने वाले “कुल मतदाताओं की संख्या” से ज़्यादा हो गयी है।
इन तमाशों के बीच चुनावों ने एक विकृत लय हासिल कर ली है। वास्तविक मुद्दे कभी खबरों में तो थे ही नहीं, लेकिन भाषणों से भी मुद्दे गायब हैं और ऐसा लग रहा है जैसे कमोबेश हर सीट से बस एक ही उम्मीदवार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, चुनाव में हैं। साल 2019 से पहले के सभी आम चुनावों के दौरान, मीडिया के माध्यम से, हमें अपने उम्मीदवारों के बारे में जानकारी मिला करती थी। टीवी और प्रिंट में उनके जीवन संबंधी विवरण लगातार आते थे। लेकिन इस बार के चुनावों में एक अलग ही प्रवृत्ति देखने को मिली है। मीडिया में भी चाटुकारों की एक फौज है जो अपनी राजनीतिक आकाओं की माया का बखान करने में लगे हुए हैं ।
परिणाम के दिन रुझान आने के साथ ही सरकार बनाने की कवायद शुरू हो जाएगी । तब तक अवाम भी परिणाम, शपथ ग्रहण, कैबिनेट का गठन और नए सपनों के मसालेदार रिपोर्टों में उलझ चुकी होगी और आने वाले राजनेताओं के आपराधिक इतिहास के बारे में कोई भी जिक्र नहीं होगा। नए सपनों में खोने से पहले क्यों ना आने वाले राजनीतिक किरदारों और उनके पूर्वजों के आपराधिक इतिहास पर एक नज़र डाली जाए?
साल 2003 में सिविल सोसाइटी द्वारा दायर जनहित याचिका के जवाब में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर निर्वाचन के लिए खड़े किसी भी व्यक्ति को नामांकन के उसकी वित्तीय संपत्ति और दायित्व, शिक्षा और लंबित आपराधिक मामलों का विवरण देने वाला एक न्यायिक हलफनामा (एफिडेविट) प्रस्तुत करना होगा। चुनावी उम्मीदवारों के बारे में एक नए स्तर की पारदर्शिता लाने की ओर यह सराहनीय कदम था और इसी आदेश की बदौलत हम आज अपने जन प्रतिनिधियों के आंकड़े देख सकते हैं।
स्मृति ईरानी की डिग्री पर उत्पन्न विवादों से यह जगजाहिर हो गया की ये हलफनामे भी कमियों के बिना नहीं हैं। एफीडेविट में दी गयी जानकारी दरअसल आत्म-सूचना है जो कि उम्मीदवार खुद प्रस्तुत करते हैं। इसका एक अर्थ यह है कि हलफनामों की सटीकता पर सवाल उठाया जा सकता है। इसके अलावा, अपराध पर दिया जाने वाला आंकड़ा, सज़ा के बजाय वर्तमान में चल रहे मामलों को संदर्भित करता है। हम सभी जानते हैं की भारत की न्यायप्रणाली की जटिलताओं के कारण फैसला दिये जाने में दशकों का समय लग सकता है। फिर भी, आंकड़ों को समग्र रूप से लिया जाये तो हमारे नेताओं का रेखांकन प्रस्तुत होता है और यह चित्र भयावह है!
मौजूदा सांसदों-विधायकों में से 36% पर आपराधिक मामले
• कुल 4,896 सांसदों और विधायकों में से 1,765 यानी 36% सांसद और राज्य विधानसभा सदस्य आपराधिक मुकदमों का सामना कर रहे हैं
• कुल मामलों की संख्या 3,045 है
• राज्यों में 13% मंत्रियों पर गंभीर आपराधिक आरोप हैं, जिनमें बलात्कार, हत्या का प्रयास, अपहरण या चुनावी उल्लंघन शामिल हैं
• 35% मुख्यमंत्रियों पर आपराधिक मामले हैं जिनमें 26 प्रतिशत सीएम ने हत्या, हत्या की कोशिश, धोखाधड़ी और बेईमानी से संपत्ति के वितरण, आपराधिक धमकी सहित अन्य गंभीर आपराधिक मामलों की घोषणा की है
यहां हम छोटे अपराधों के बारे में बात नहीं कर रहे। गंभीर अपराधों के अंतर्गत आने वाले अधिकांश अपराधों में पाँच साल या उससे ज़्यादा की संभावित सजाएँ निर्धारित की गयी हैं। और इन सांसदों पर हत्या, बलात्कार, जालसाजी, धोखाधड़ी और धोखा , नफरती हिंसा और कानूनी रूप से संदिग्ध सौदों को अंजाम देने जैसे आरोप हैं। पंचायतों और शहरी स्थानीय निकायों के उम्मीदवारों का कोई व्यवस्थित आंकड़ा या विश्लेषण उपलब्ध नहीं है, लेकिन इस बात के सबूत हैं कि स्थानीय स्तर की राजनीति भी अपराध से मुक्त नहीं।
बेशक, यह संभव है कि सांसदों पर लगाए गए आरोपों में से एक महत्वपूर्ण हिस्सा राजनीति से प्रेरित हो, लेकिन अगर उनमें से 10% भी वास्तविक हैं तो इसका मतलब यह कि हमारे सांसदों में से आम लोगों की तुलना में अपराधियों का अनुपात बहुत अधिक है।
• 19% से अधिक (1500) उम्मीदवारों पर आपराधिक मुक़दमा है ।
• 13% पर गम्भीर अपराध का मुक़दमा है ।
• 29% से अधिक (2297) उम्मीदवार करोड़पति हैं ।
• कुल 716 महिला उम्मीदवारों में से 255 करोड़पति 36%
• महिला उम्मीदवारों में से 110 पर (15%) पर आपराधिक मुक़द्दमा है ।
इन मामलों में विविध प्रकार के बड़े और छोटे आरोप शामिल हैं, जिनमें शरारत से लेकर हत्या तक और इनके बीच का लगभग सब कुछ शामिल है।
राजनीतिक दल आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को नामांकित क्यों करते हैं ? इसका उत्तर स्पष्ट है - क्योंकि वे जीतते हैं ! कोई भी बाजार मांग के बिना आपूर्ति करने का काम नहीं करता। लोक सभा चुनाव 2014 के डाटा से पता चलता है:
• बिना किसी आपराधिक मामले वाले उम्मीदवार के जीतने की संभावना मात्र 7% है ।
• कम से कम एक आपराधिक आरोप का सामना कर रहे उम्मीदवार के जीतने की संभावना 22% है ।
• 74% दागी उम्मीदवारों को दूसरा मौका मिलता है ।
• सबसे गरीब 20% उम्मीदवारों के संसदीय चुनाव जीतने की संभावना केवल 1% थी ।
• सबसे अमीर 20% के जीतने की संभावना 25% से अधिक है ।
तथाकथित तौर पर “फंसाए गए” उम्मीदवारों की सफलता का दुष्प्रभाव साफ-सुथरे रिकार्ड वाले भावी उम्मीदवारों पर भी पड़ता है। जो साफ छवि वाले नेता चुनावी मैदान में उतरने के बारे में सोच सकते थे, वे भी अपराधियों की सफलता होने पर भाग खड़े होते हैं। आपराधिक मामलों वाले लोगों की सफलता के वजह से, सारा समीकरण बदल जाता है। संदिग्ध रिकार्ड वाले राजनेता का कार्यालय में स्वागत होता है और “स्वच्छ” उम्मीदवार बाहर निकाल दिये जाते हैं।
सभी दलों में आपराधिक राजनेताओं की मांग
भारत में कानून का शासन कमजोर है और स्थानीय समुदायों के बीच सामाजिक संबंध खराब। जब सरकार अपने बुनियादी कार्यों को भी पूरा करने में सक्षम नहीं, वोटर एक ऐसे प्रतिनिधि की तलाश करते हैं, जो अपने समूह की सामाजिक स्थिति की रक्षा करने के लिए जो कुछ भी करना पड़े, करें! यहाँ उम्मीदवार अपनी अपराधिकता का उपयोग अपनी विश्वसनीयता के संकेत के रूप में करते हैं जो उनके समर्थकों के लिए "चीजों को प्राप्त करने में" सक्षम है।
“अगर कोई मेरे घर में प्रवेश करता है और मेरी रोटी लेकर भाग जाता है तो मुझे क्या करना चाहिए? मुझे उसे थप्पड़ मार कर रोटी को छीन लेना चाहिये क्योंकि यह मेरी रोटी है, उसकी नहीं”
हमारी विधानसभाओं में बाहुबल का वर्चस्व होने के बावजूद मतदाताओं ने कई बार समझदारी और विवेक दिखाया है ।
• जहाँ लंबित आपराधिक आरोपों के साथ केवल एक उम्मीदवार था, मतदाताओं ने दागी उम्मीदवारों को खारिज कर दिया और 10 में से 8 बार स्वच्छ उम्मीदवार चुना ।
• 5 से अधिक दागी उम्मीदवारों वाले क्षेत्रों में 10 में से 3 बार स्वच्छ उम्मीदवार सफल हुए ।
आम आदमी पार्टी (आप) की दिल्ली विधानसभा चुनावों में अप्रत्याशित जीत एक सकारात्मक संकेत है जिससे “आप” ने साबित किया कि है कि एक पार्टी लंबी रैप शीट वाले उम्मीदवारों को समर्थन दिये बिना भी जीत सकती है । “आप” के उम्मीदवारों के 7% की तुलना में उस वक़्त सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के 21% और विपक्षी भारतीय जनता पार्टी के 46% उम्मीदवार आपराधिक मामलों में शामिल थे।
वैसे भी भारत का औसत वोटर चुनाव के मामले में स्वतंत्र नहीं हैं। वह या तो धार्मिक गुरु या ग्राम प्रधानों के चंगुल में हैं जिन्हें 300 से 500 रुपए, शराब, कपड़े, भोजन या अपने कर्ज वापसी का समय बढ़ाए जाने के एवज में अपना वोट बेचना पड़ता है। भ्रष्टाचार को जानबूझकर सरकारी मशीनरी के सिर से पैर तक में इंजेक्ट कर दिया गया है जिससे हवलदार और ईमानदार, दोनों पीड़ित हैं । कॉरपोरेट, पालिटिक्स, धार्मिक गुरुओं और ब्युरोक्रेट्स नेक्सस ने आम आदमी को सांस लेने की अनुमति दी है, वही बहुत मालूम पड़ता है।
एक ओर मतदाता जहाँ सड़क, बिजली, स्कूल और अस्पतालों का इंतजार कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर सरकार गरीबी को कम करने के लिए बड़ी नीतियां बना, बड़ी धनराशि स्वीकृत कर लाभार्थियों की एक श्रृंखला के माध्यम से “वोट बैंक” धारकों (धार्मिक गुरु / ग्राम प्रमुख) के जेब भरने में व्यस्त है।
बेरोजगार युवाओं को बरगला कर विश्व के कई पूर्व बाहुबलियों ने अपनी फौज तैयार की है। आज हमारे नेता भी कुछ उसी, तरह धन-धर्म-धोखे से, अपनी रैलियों में इकट्ठा होने वाली भीड़ पर दांव लगा रहे हैं। एक बड़ी मतांध सेना तैयार की जा चुकी है जो सोशल मीडिया से लेकर चौराहों तक विरोधियों को चुप कराने में सक्षम है। एक ऐसी भीड़ जिसके कोलाहल में महात्मा और विद्यासागर की दिवंगत आत्माओं का क्रंदन भी सुनाई नहीं देता। नाकाम सरकारों के बोझ तले दबे, क्षेत्र-धर्म-वर्ण से बटे, राजनेताओं की भक्ति में लीन समाज में इन सब के खिलाफ किसी स्वर की उम्मीद की जा सकती है?
References:
1. Jérôme, Bruno & Duraisamy, P. (2017). Who wins in the Indian parliament elections: Criminals, Wealthy and incumbents? Journal of Social and Economic Development.
2. MyNeta
3. Indpaedia
4. Vice
5. Carnegie Endowment for International Peace