केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने सामान्य वर्ग के गरीबों के लिए आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण दे दिया है, राम मंदिर के लिए केन्द्र सरकार पूर्ण समर्पण के साथ सक्रिय हो गई है, चाकलेटी बजट में भी पांच लाख तक की आय पर आयकर में छूट सहित ढेरों मीठी-मीठी घोषणाएं है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि यह सब तो पहले भी हो सकता था, तब क्यों नहीं और अब क्यों? जबकि यदि यह सब एक साल पहले भी हो जाता तो तीन प्रमुख राज्य- एमपी, राजस्थान और छत्तीसगढ़, बीजेपी के हाथ से निकल नहीं जाते!
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि शायद पीएम मोदी सरकार इन घोषणाओं से सैद्धांतिक तौर पर सहमत नहीं है, ये सारी मीठी-मीठी घोषणाएं लोस चुनाव के मद्देनजर सियासी मजबूरी में की गई हैं.
इन पांच वर्षों में आर्थिक आधार पर आरक्षण के लिए आॅल इंडिया ब्राह्मण फेडरेशन के पदाधिकारी, पं. भंवरलाल शर्मा, डाॅ प्रदीप ज्योति आदि के नेतृत्व में अनेक मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों से मिलते रहे, यही नहीं, मोदी सरकार के मंत्री रामदास आठवले, रामविलास पासवान आदि भी इस मांग का लगातार समर्थन करते रहे, परन्तु केन्द्र सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया. जब एससी-एसटी एक्ट में संशोधन के बाद एमपी, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की प्रदेश सरकारें बीजेपी के हाथ से निकल गई तब सामान्य वर्ग को मनाने के लिए सवर्ण आरक्षण का निर्णय लिया गया.
विभिन्न संगठनों की ओर से आयकर में छूट की सीमा बढ़ाने पर भी लगातार केन्द्र सरकार का ध्यान आकर्षित किया जाता रहा, परन्तु इस मांग पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया, माध्यम वर्ग, खासकर नौकरीपेशा लोगों की बढ़ती नाराजगी ने विस चुनाव में रंग दिखाया तो पांच लाख तक की आय में आयकर में छूट की चौकाने वाली घोषणा की गई.
राम मंदिर आंदोलन ने बीजेपी को देश में मजबूत आधार दिया, लेकिन केन्द्र में और यूपी में बीजेपी की बहुमत वाल सरकार बनने के बावजूद राम मंदिर के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किए गए. कभी राम मंदिर आंदोलन पर बीजेपी का एकाधिकार था, परन्तु अब साधु-संत भी दो पक्षों में बंटे हैं, एक पक्ष राम मंदिर पर सियासी नजरिए से हटकर तत्काल मंदिर निर्माण चाहता है, तो दूसरा पक्ष लोस चुनाव में पहले पीएम मोदी सरकार को फिर-से केन्द्र में देखना चाहता है और इसके बाद राम मंदिर निर्माण के लिए निर्णय लेना चाहता है. अब- पहले मंदिर, फिर सरकार या पहले सरकार, फिर मंदिर, दोनों में से जिस पर भी जनता भरोसा करेगी, उसी के सापेक्ष लोस चुनाव के नतीजे आएंगे.
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि पीएम मोदी सरकार के इन पांच सालों को सियासी नजरिए से देखें तो बीजेपी सरकार के कई निर्णय विपक्षियों के वोट बैंक तोड़ने के इरादे से लिए गए, जिसके कारण अप्रत्यक्ष रूप से बीजेपी के अपने ही वोट बैंक में दरार आ गई. मतलब, नया तो कुछ मिला नहीं, जो पास था वह भी दूर होता गया.
इस एक माह में की गई तमाम घोषणाएं, बीजेपी के अपने ही नाराज वोट बैंक को मनाने की कोशिश के रूप में देखी जा रही है, लेकिन इसमें कितनी कामयाबी मिलेगी, यह कहना इसलिए मुश्किल है कि इन घोषणाओं का प्रायोगिक लाभ तत्काल मिलना संभव नहीं है.