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कश्मीर: मुठभेड़ स्थलों पर पत्थरबाजी की नीति से परेशान हुए सुरक्षा बल, 1990 जैसे हालात बनने के आसार

By सुरेश एस डुग्गर | Updated: June 2, 2020 18:53 IST

जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों को आतंकियों से मुठभेड़ के समय दोहरे मोर्चे पर लड़ना पड़ता है. आतंकियों के अलावा उन्हें पत्थरबाजों से बड़ी चुनौती मिलती है.

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ठळक मुद्देपत्थरबाजों की वजह से पिछले एक साल में 85 आतंकी मुठभेड़ स्थल से भागने में सफल रहे हैंजितने सुरक्षा कर्मी आतंकियों की गोली से जख्मी नही्ं हुई हैं उससे ज्यादा पत्थर लगने से जख्मी हुए हैं

कश्मीर में फिर से तेजी से बढ़ती मुठभेड़ों में सुरक्षाबलों को दोहरे मोर्चे से जूझने का परिणाम यह है कि अगर आतंकी जनसमर्थन पाने में कामयाब होने लगे हैं तो जनता का गुस्सा सुरक्षाबलों पर निकलने लगा है। हालात को 1990 के दशक की परिस्थितियों जैसा भी निरूपित किया जा रहा है। यह दोहरा मोर्चा पिछले साल जनवरी के आरंभ से ही देखने को मिला है। आतंकी फिर से घनी आबादी वाले इलाकों में शरण लेते हुए सुरक्षाबलों को मुकाबले के लिए मजबूर करने लगे हैं। और पत्थरबाज इन अभियानों में पत्थरों की बरसात आरंभ कर रूकावटें पैदा कर रहे हैं।

सुरक्षाधिकारी मानते हैं कि पिछले एक साल में होने वाली करीब 132 से अधिक मुठभेड़ों में कम से कम 85 में आतंकी भागने में इसलिए कामयाब हो गए क्योंकि पत्थरबाजों की पत्थरों की बरसात के कारण सुरक्षाबलों को दोहरे मोर्चे पर जूझना पड़ा था। दरअसल इन घटनाओं में इतने सुरक्षकर्मी आतंकियों की गोली से जख्मी नहीं हुए थे जितने की पत्थर लगने से जख्मी हो गए थे।

अब हालांकि नागरिक प्रशासन के साथ मिल कर सुरक्षाबलों ने इसका हल तो निकाला है पर वह भी कामयाब नहीं हो पा रहा है। नागरिक प्रशासन के निर्देश के मुताबिक, मुठभेड़स्थलों के आसपास तत्काल धारा 144 लागू की जा रही है। पर यह फार्मूला कामयाब नहीं हो पा रहा है। अब मुठभेड़स्थलों के आसपास के तीन किमी तक के इलाके में कर्फ्यू भी लगा दिए जाने के निर्देश दिए गए हैं। नतीजा सामने है। 

पिछले हफ्ते दो नागरिकों की मौत इसी निर्देश का परिणाम इसलिए थी क्योंकि आतंकियों के साथ मुठभेड़ में सुरक्षाबल लिप्त थे तो पत्थरबाजों से भी उन्हें दोहरे मोर्चे से जूझना पड़ा था। पत्थरबाजी जब भयंकर रूप धारण कर गई तो सुरक्षाबलों को आत्मरक्षा में गोली चलानी पड़ी। नतीजतन दो नागरिकों की मौत हो गई।

इन मौतों का लाभ भी विघटनकारी तत्वों द्वारा उठाया जा रहा है। दरअसल कश्मीर में 1990 के दशक में ऐसे प्रदर्शन आम थे जब आतंकी विरोध प्रदर्शनों में घुस कर सुरक्षाबलों पर हमले करते थे और जवाबी कार्रवाई में मासूम नागरिक ही मारे जाते थे। और आतंकियों की मौतों के बाद उनके जनाजों में जुटने वाली भीड़ यह जरूर दर्शा रही है कि आतंकी एक बार फिर नागरिकों का जनसमर्थन हासिल करने में कामयाब हो रहे हैं। इतना जरूर था कि सुरक्षाबल बढ़ते हुए जनसमर्थन से चिंता में जरूर हैं।

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