विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: लेखक-समाज को अपनी चुप्पी तोड़नी चाहिए
By विश्वनाथ सचदेव | Published: January 10, 2019 07:53 AM2019-01-10T07:53:07+5:302019-01-10T07:53:07+5:30
संयुक्त राष्ट्र की पहली महिला अध्यक्ष विजयलक्ष्मी पंडित की इस बेटी ने आपातकाल के दौरान अपने ही मामा की बेटी इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ आवाज उठाकर साहित्य और पत्नकारिता, दोनों के दायित्व को रेखांकित किया था।
यह विडंबना ही है कि जिस दिन सारा महाराष्ट्र ‘अभिव्यक्ति-स्वतंत्नता की विरासत’ का संदर्भ देकर मराठी पत्नकारिता के जनक माने जाने वाले ‘दर्पणकार’ आचार्य बालशास्त्नी जांभेकर को स्मरणांजलि अर्पित कर रहा था, उसी दिन अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन अंग्रेजी की ख्यात लेखिका नयनतारा सहगल को दिया गया निमंत्नण वापस ले रहा था। नयनतारा सहगल को महाराष्ट्र के यवतमाल में होने वाले इस सम्मेलन में मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया था। अंग्रेजी की इस चर्चित लेखिका को सारे देश में, और विदेशों में भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्नता की पक्षधर के रूप में जाना जाता है। संयुक्त राष्ट्र की पहली महिला अध्यक्ष विजयलक्ष्मी पंडित की इस बेटी ने आपातकाल के दौरान अपने ही मामा की बेटी इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ आवाज उठाकर साहित्य और पत्नकारिता, दोनों के दायित्व को रेखांकित किया था। स्पष्टवादिता और निर्भीकता के लिए पहचानी जाने वाली नयनतारा सहगल ने कुछ ही अर्सा पहले ‘अवार्ड वापसी की कथित गैंग’ को समर्थन देकर देश की वर्तमान सरकार को भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्नता की रक्षा का वास्ता दिया था।
जहां तक मराठी साहित्य सम्मेलन का सवाल है, स्वर्गीय दुर्गा भागवत और पु।ल। देशपांडे जैसे दिग्गज लेखक इसके मंच से अभिव्यक्ति की स्वतंत्नता के अधिकार की रक्षा की आवाज उठा चुके हैं। उमाशंकर जोशी, गिरीश कर्नाड, महाश्वेता देवी, यू।आर। अनंतमूर्ति जैसे कई दिग्गज सम्मेलन के सालाना जलसों में शासन को दर्पण दिखाते रहे हैं। लेकिन सच्चाई यह भी है कि पिछले एक अर्से से ‘सम्मेलन’ की स्थापना की स्वतंत्न छवि की साख पर बट्टा लगता रहा है।
सम्मेलन पर लेखकीय स्वतंत्नता की अनदेखी किए जाने के आरोप कई बार अखबारों की सुर्खियां बन चुके हैं। ऐसे में जब इस बार के सम्मेलन में मुख्य वक्ता के रूप में नयनतारा सहगल का नाम सामने आया तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्नता के पक्षधरों को आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता हुई थी और इस बात का संतोष भी कि चलो, मराठी के साहित्यकार सत्ता-विरोधी स्वर को भी सुनना चाह रहे हैं।
नयनतारा सहगल इस सम्मेलन में क्या बोलतीं यह अब सोशल मीडिया के माध्यम से सामने आ चुका है। शायद उनके वक्तव्य को इतनी व्यापक प्रसिद्धि तब न मिलती, जितनी अब मिली है। अनजाने में ही सही, सम्मेलन में श्रीमती सहगल को बुलाए जाने का विरोध करने वालों ने उनकी बात को ज्यादा लोगों तक पहुंचाने में मदद ही की है। हां, यवतमाल के कुछ स्थानीय तत्वों ने ‘सिर्फ अंग्रेजी की लेखिका’ होने का आरोप लगाकर नयनतारा सहगल को सम्मेलन में बुलाए जाने का विरोध किया था। सम्मेलन इस विरोध के आगे झुक गया।
सम्मेलन के इतिहास में शायद पहली बार किसी लेखक को दिए गए निमंत्नण को वापस लिए जाने का उदाहरण सामने आया है। अपरिहार्य कारणों का हवाला देकर सम्मेलन ने अपने मुख्य वक्ता से क्षमा मांग ली है। श्रीमती सहगल ने तो आमंत्नकों को क्षमा कर दिया होगा, उनकी विवशताओं को समझ लिया होगा, लेकिन सारे देश में यह सवाल गूंज रहा है कि उपद्रवी तत्वों से डरकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्नता के अधिकार की अनदेखी क्यों की गई? ज्ञातव्य है कि देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्नता के अधिकार पर हुए हमलों के विरोध में, और नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे, एम।एम। कलबुर्गी जैसे विचारकों की शर्मनाक हत्याओं के विरोध में, देश के कई साहित्यकारों ने साहित्य अकादमी द्वारा दिए गए सम्मान लौटा दिए थे। उनकी शिकायत थी कि अकादमी, और व्यवस्था, दोनों ने अभिव्यक्ति का गला घोंटने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने का अपना कर्तव्य नहीं निभाया है। शासन को यह विरोध स्वीकार नहीं था। उसने लेखकीय स्वतंत्नता की इस आवाज को एक ‘गैंग की आवाज’ निरूपित किया।
ज्ञातव्य यह भी है कि यवतमाल में होने वाले मराठी साहित्य सम्मेलन के उद्घाटन सत्न के अध्यक्ष महाराष्ट्र के मुख्यमंत्नी थे इसलिए यह सवाल भी उठा कि कहीं सरकारी दबाव में तो ‘सम्मेलन’ ने निमंत्नण वापस नहीं लिया? सरकार ने इस बात का खंडन किया है, लेकिन सवाल तो अपनी जगह बना हुआ है। सम्मेलन की प्रमुख वक्ता होने वाली लेखिका ने अपने लिखित भाषण में, जो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है, सवाल पूछा है, ‘क्या ऐसे माहौल में हमें सिर झुकाकर चुप रह जाना चाहिए?’ अपने वक्तव्य में उन्होंने ‘इस माहौल’ को बड़ी पीड़ा के साथ सामने रखा है। उनका सवाल है, कि सरकारी तंत्न भीड़तंत्न के अपराधों की अनदेखी क्यों कर रहा है?
अभिव्यक्ति की स्वतंत्नता की जो विरासत आचार्य बालशास्त्नी जांभेकर जैसा व्यक्तित्व हमारे लिए छोड़ गया है, उसकी रक्षा का दायित्व रचनाकार का ही है। अधिकार हमारा है, इसलिए उसकी रक्षा भी हमें ही करनी है। यह बात हर सृजनशील रचनाकार के मन में जगनी चाहिए। बालशास्त्नी जांभेकर ने समाज को दर्पण दिखाने का काम किया था। नयनतारा सहगल जैसे रचनाकार भी आज वही काम कर रहे हैं। लेकिन यह काम पूरा तब होगा जब जागरूक रचनाकार दर्पण में दिखने वाले विकारों को दूर करने का संकल्प लें। अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन द्वारा नयनतारा सहगल जैसे व्यक्तित्व का निमंत्नण वापस लेना, एक अपराध है और उतना ही बड़ा अपराध वह चुप्पी है जो इस संदर्भ में एक बड़े लेखक-समाज में पसरी हुई है। यह चुप्पी टूटनी ही चाहिए