13 जनवरी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने नरेंद्र मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ लड़ने तेज करने के लिए आज विपक्षी दलों के नेताओं के साथ बैठक की. इसके साथ ही सवाल खड़ा हुआ है कि भाजपा विरोधी मोर्चे की अगुवाई कौन करेगा.
वहीं, सत्ताधारी भाजपा भी राजग को एकजुट रखने में मुश्किल हो रही है. इसका कारण यह है कि नीतीश कुमार की अगुवाई वाला जदयू राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के मुद्दे पर केंद्र के साथ असहज हो गया है. ममता बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस, बसपा, आप और और अन्य की अनुपस्थिति समक्ष में आती है, लेकिन द्रमुक की गैरमौजूदगी आश्चर्य की बात थी.
यह इसीलिए क्योंकि वह लगातार कांग्रेस और राहुल गांधी के समर्थन में रही है. इसके अलावा अतीत में कई बार एक साथ होने और अलग होने के बावजूद कांग्रेस और सपा के बीच विश्वास की कमी है. महाराष्ट्र में सत्ता में साझेदारी के बाद भी शिवसेना और कांग्रेस के रिश्ते अभी भी साफ नहीं हैं. वहीं, ओडिशा में सत्तारूढ़ बीजद, तेलंगाना की तेरास और आंध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस की भूमिका साफ है.
इन पार्टियों ने कांग्रेस और भाजपा दोनों से समान दूरी बनाकर रखी हैं. उनकी यह दूरी न केवल वैचारिक आधार पर है, बल्कि उनका मानना है कि राष्ट्रीय स्तर की ये दोनों पार्टियां उनके राज्यों में उनके लिए खतरा हैं. हिंदीभाषी राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा को हराने के बाद कांग्रेस ने किसी क्षेत्रीय पार्टी या पार्टियों के समूह के अधीन काम नहीं कर सकती है. हालांकि, तब से भाजपा भी विस्तार नहीं कर रही है और एनआरसी, सीएए और एनपीआर के मुद्दों पर राजग में ही अलग-थलग पड़ रही है.
विपक्ष और राजग के कुछ घटक दल संसद में बजट सत्र के दौरान सरकार को इन मुद्दों पर बहस के लिए मजबूर कर सकते हैं, लेकिन इससे राजनीति नहीं बदलेगी.
भारतीय राजनीति में कुछ भी संभव :
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार यदि मजबूत भाजपा विरोधी पार्टियां पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को सबक सिखाने के लिए इस भगवा पार्टी को वोट दे सकती है, तो भारतीय राजनीति में कुछ भी संभव है. हालांकि, फिलहाल नरेंद्र मोदी सरकार विश्वविद्यालय परिसरों, कॉलेज के छात्रों और युवाओं से वास्तविक खतरों का सामना कर रही है, जिनका भाजपा के हिंदुवाद से मोहभंग हो गया है.