पीयूष गोयल ने इस वामपंथी कवि की कविता की दो पंक्तियों का किया था बज़ट भाषण में प्रयोग, पढ़ें पूरी कविता
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: February 1, 2019 06:57 PM2019-02-01T18:57:08+5:302019-02-01T19:11:44+5:30
पीयूष गोयल ने बज़ट 2019 पेश करते हुए हिन्दी कवि की पंक्तियाँ जब उद्धृत कीं तो पीएम नरेंद्र मोदी भी तालियां बजा रहे थे।
अरुण जेटली के जगह वित्त मंत्री का कार्यभार संभाल रहे केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने शुक्रवार को पहली बार संसद में देश का बज़ट पेश किया तो उनका उत्साह देखने लायक था।
गोयल भले ही अंतरिम बज़ट पेश कर रहे थे लेकिन उनका जोश-खरोश ऐसा था जैसे वो लोक सभा चुनाव 2019 के लिए नरेंद्र मोदी सरकार और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का घोषणा-पत्र पढ़ रहे हों।
गोयल ने का जोश पर्यवेक्षकों का अंदाजा भर नहीं है। उनमें कितना जोश है यह जाहिर करने के लिए गोयल ने संसद में सर्जिकल स्ट्राइक पर बनी विक्की कौशल की फिर उरी का जिक्र किया और कहा कि उन्हें फिल्म देखकर मज़ा आ गया। इस फ़िल्म का एक डॉयलॉग "हाउज़ द जोश" सोशल मीडिया पर वायरल हो चुका है।
गोयल ने बज़ट 2019 पेश करते हुए एक कविता की दो पंक्तियाँ पढ़कर भी अपना और मोदी सरकार का जोश जाहिर किया। ये पंक्तियाँ थीं- एक पैर रखता हूँ, कि सौ राहें फूटतीं...
ये पंक्तियां मशहूर हिन्दी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता "मुझे कदम कदम पर" का अंश हैं। गोयल संसद में ग़लती से मुक्तिबोध को मराठी कवि बता बैठे। मुक्तिबोध के पूर्वज भले ही महाराष्ट्र के रहे हों लेकिन वो मूलतः मध्य प्रदेश के रहने वाले थे। मुक्तिबोध का जन्म 13 नवंबर 1917 को मध्य प्रदेश में हुआ था। मुक्तिबोध को हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवियों, लेखकों और आलोचकों में शुमार किया जाता है। मुक्तिबोध आजीवन मार्क्सवाद से जुड़े रहे। मुक्तिबोध की मृत्यु 11 सितम्बर 1964 को हुई।
नीचे पढ़ें वो मुक्तिबोध की वो कविता जिसकी दो पंक्तियां पीयूष गोयल ने संसद में उद्धृत कीं-
मुझे कदम-कदम पर
चौराहे मिलते हैं
बाँहे फैलाए !!
एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं
व मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तजुर्बे और अपने सपने
सब सच्चे लगते हैं
अजीब सी अकुलाहट दिल में उभरती है
मैं कुछ गहरे मे उतरना चाहता हूँ
जाने क्या मिल जाए !!
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
चमकता हीरा है
हर-एक छाती में आत्मा अधीरा है
प्रत्येक सुस्मित में विमल सदानीरा है
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
महाकाव्य-पीड़ा है
पलभर मैं सबमें से गुजरना चाहता हूँ
प्रत्येक उर में से तिर आना चाहता हूँ
इस तरह खुद ही को दिए-दिए फिरता हूँ
अजीब है जिंदगी !!
बेवकूफ बनने की खतिर ही
सब तरफ अपने को लिए-लिए फिरता हूँ
और यह देख-देख बड़ा मजा आता है
कि मैं ठगा जाता हूँ
हृदय में मेरे ही
प्रसन्न-चित्त एक मूर्ख बैठा है
हँस-हँसकर अश्रुपूर्ण,मत्त हुआ जाता है
कि जगत्..... स्वायत्त हुआ जाता है।
कहानियाँ लेकर और
मुझको कुछ देकर ये चौराहे फैलते
जहाँ जरा खड़े होकर
बातें कुछ करता हूँ
......उपन्यास मिल जाते।
दुख की कथाएँ, तरह तरह की शिकायतें
अहंकार विश्लेषण, चारित्रिक आख्यान,
जमाने के जानदार सूरे व आयतें
सुनने को मिलती हैं !
कविताएँ मुसकरा लाग- डाँट करती हैं
प्यार बात करती हैं।
मरने और जीने की जलती हुई सीढ़ियां
श्रद्धाएँ चढ़ी हैं !!
घबराए प्रतीक और मुसकाते रूप- चित्र
लेकर मैं घर पर जब लौटता.....
उपमाएँ द्वार पर आते ही कहती हैं कि
सौ बरस और तुम्हें
जीना ही चाहिए।
घर पर भी,पग-पग पर चौराहे मिलते हैं
बाँहे फैलाए रोज मिलती है सौ राहें
शाखाएँ-प्रशाखाएँ निकलती रहती हैं
नव-नवीन रूप-दृश्यवाले सौ-सौ विषय
रोज-रोज मिलते हैं....
और,मैं सोच रहा कि
जीवन में आज के
लेखक की कठिनाई यह नहीं कि
कमी है विषयों की
वरन् यह कि आधिक्य उनका ही
उसको सताता है
और वह ठीक चुनाव कर नहीं पाता है !!