समीक्षा: हाइवे के किनारे खड़ा है "ग्लोबल गांव का आदमी"

By देवेंद्र | Published: September 8, 2020 07:43 PM2020-09-08T19:43:48+5:302020-09-08T19:43:48+5:30

मंजुश्री गुप्ता का ताजा प्रकाशित काव्य संग्रह ग्लोबल गांव का आदमी इस दृष्टि से एक बेहद महत्वपूर्ण काव्य संग्रह है। एक ऐसा संग्रह, जिसमें अपने युग की शिनाख्त की गयी है।

Book review "Man of Global Village" standing side highway manju shree gupta | समीक्षा: हाइवे के किनारे खड़ा है "ग्लोबल गांव का आदमी"

आज इस बदले और नये गांव के आदमी के भीतर की काव्यात्मकता का क्रमशः क्षरण होता जा रहा है।

Highlightsमुक्तिबोध की इन पंक्तियों की कालयात्री आज की कविता समकालीन फलक पर समय का इतिहास अंकित कर रही है।आज से लगभग तीन दशक पहले पूरी दुनिया में एक ग्लोबल गांव की अवधारणा सामने आयी थी।कृषि आधारित गांवों का देश भारत, जिसकी  संस्कृति का उत्स संयुक्त परिवार और उसके मूल्य, विचार तथा संस्कार रहे हैं।

 "नहीं होती कहीं भी खत्म कविता नहीं होती कि वह आवेग त्वरित काल यात्री है।"

मुक्तिबोध की इन पंक्तियों की कालयात्री आज की कविता समकालीन फलक पर समय का इतिहास अंकित कर रही है। समय तो अमूर्त है। उसकी शिनाख्त अगर सम्भव हो पाती है तो ग्लोबल गांव के आदमी के रूप में। मंजुश्री गुप्ता का ताजा प्रकाशित काव्य संग्रह ग्लोबल गांव का आदमी इस दृष्टि से एक बेहद महत्वपूर्ण काव्य संग्रह है। एक ऐसा संग्रह, जिसमें अपने युग की शिनाख्त की गयी है। इस युग का एक ऐसा आदमी जो-

" दुनिया घूम आता है
मगर शहर की गलियों से
अनजान रह जाता है
ग्लोबल गांव का आदमी।"

आज से लगभग तीन दशक पहले पूरी दुनिया में एक ग्लोबल गांव की अवधारणा सामने आयी थी। इस अवधारणा के केंद्र में आज के उत्तर आधुनिक युग का बाजारवाद था। विकसित यूरोपीय देशों की संस्कृति पर इस बाजारवाद का प्रभाव उतना व्यापक और अपरिचय से भरा न था, जितना भारत जैसे विकास वंचित देश के लिए।

मूलतः कृषि आधारित गांवों का देश भारत, जिसकी  संस्कृति का उत्स संयुक्त परिवार और उसके मूल्य, विचार तथा संस्कार रहे हैं। हजारों वर्षों की विकासयात्रा की, जो आत्मिक सम्पदा को हम सब धरोहर की तरह सहेज रखे थे,वह सब देखते- देखते आंखों के सामने ही छिन्न भिन्न होने लगा।

क्या महानगर ?क्या छोटे- छोटे गांव ? बिखरना- टूटना हर जगह लगा रहा-
"कंकरीट के जंगल उगे, कहां गये वो गांव?
खेतों में हरियाली थी,पेड़ों की थी छाँव
सुख-दुःख के, इक दूजे के
सब हिल मिल करके रहते थे
तरस रहे सब पाने को अब
अपनों की ही छाँव।"

आज इस बदले और नये गांव के आदमी के भीतर की काव्यात्मकता का क्रमशः क्षरण होता जा रहा है। सब एक अबूझ किस्म की दौड़ और होड़ में लगे हुए हैं। उपभोक्तावाद की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। हिंसा और क्रूरता की भावना महानगरों,कस्बों और फिर गांव के आम दृश्य विधान में जुड़ते जा रहे हैं। भावनात्मक स्तर पर लड़कियां इसका सबसे ज्यादा शिकार हो रहीं-

"मरती हैं रोज
गर्भ में ससुराल में या अस्पताल में
जलकर या जहर खाकर
बन जाती है अखबार की
एक छोटी सी खबर बनकर।"


जिस एक और बात की ओर इशारा करना बेहद जरूरी है, वह यह कि अपनी मूलभूत संरचना में भारत के गांव सदियों से अलग- अलग जाति समूहों में बंटे हुए होते रहे हैं। देश के अलग- अलग अंचलों और इतिहास के अलग- अलग काल खण्डों में आर्थिक रूप से अलग- अलग जातियों का वर्चस्व बनता बिगड़ता रहा है।

ये गांव जहां विभिन्न जाति समूहों में बंटे हुए थे, वहीं आत्मीय रिश्तों में गुंथे हुए भी होते रहे हैं। एकता की यह डोर इतनी मजबूत रही है कि तरह- तरह के अभावों, उपेक्षाओं के बावजूद लोग  सह- अस्तित्व की भावना का सम्मान करते हुए सदियों से साथ-साथ रहते चले आ रहे थे। अपने जातिगत अंतर्विरोधों को चुटकुलों मुहावरों,गीतों,गालियों में खूब आराम से अभिव्यक्त करते रहे हैं।

यह भारत के गांव थे। यहां रहने वाले वाशिन्दों की तकलीफों को,उनके उल्लास को, आप प्रेमचंद या रेणु की कहानियों में नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल या त्रिलोचन सरीखे कवियों के यहां खूब सारे रूपों में देख सकते हैं। भारत के इन गांवों के आदमी, उसकी शक्ल- सूरत, उसकी सीरत आदि के नाना रूपों से सदियों पुराना हमारा परिचय रहा है।

हम सब इस छवि के  इतने अभ्यस्त रहे हैं कि आज इसके बरक्श  ग्लोबल गांव का आदमी डराने लगा है। वैभव के किसी एकांत द्वीप के बियावान में हमें अपनी ही शक्ल पहचान में न आ रही। दूर-दूर तक फैले- फूले महुवे और आम के बाग काट डाले गए हैं। नागफनी के किसी कंटीले ढूह की तरह अकेले उदास हम  भटक रहे हैं। समकालीन समय की सिद्धहस्त कवयित्री मंजुश्री गुप्ता का यह नवीनतम काव्य संग्रह  ग्लोबल गांव का आदमी अपने समय और उस समय में बेतरह उलझे- गुंथे इसीआदमी का काव्यात्मक बयान है। वे ग्लोबल गांव के इस आदमी का शिनाख्त करते हुए लिखती हैं -

" घर, परिवार और पड़ोस में
क्या हो रहा है
बता नहीं पाता है।
न जाने कितनी बेबसाइट्स की बिल्डिंगों
और कितनी विंडोज पर कूदता- फांदता
स्पाइडर मैन सा हुआ जाता है
ग्लोबल गांव का आदमी।"

यह सूचना क्रांति का युग है। ग्लोबल गांव के इस आदमी के पास दुनिया भर की सूचनाओं का अंबार है। जिनमें सच और झूठ  का फर्क मिट चुका है। अच्छे -बुरे के बीच का भेद मिट गया है। कम्प्यूटर के स्क्रीन पर उभरते-मिटते इस भारी भरकम सूचना संजाल ने सदियों पुरानी जर्जर किताबों के भीतर के सुरक्षित और संरक्षित हमारी अकूत ज्ञान सम्पदा को विस्थापित कर डाला है। सूचनाओं की इस भीड़  ने हमारे भीतर की संवेदना को सोख कर अंततःहमें ही निस्पंद कर डाला है।

न सिर्फ सूचनाएं, जो कभी चिट्ठियों से होकर हम तक आया करती थीं-
"मां की पुरानी पेटी में
पोटली में बंद
पीले पड़ चुके पन्नों वाली चिट्ठियां

----------------
पलक पाँवड़े बिछाये
डाकिये का इंतजार

-------
गुम हो रही हैं
चिट्ठियों में पगी
सोधी सोधी भावनाएं।"


यह मैसेज के साथ डिलीट की जा रही संवेदनाओं का समय है। जहां हम आधुनिक से उत्तर आधुनिक हो रहे हैं।

गांव मिट रहे हैं और ठूंठ सा आदमी-
"कंकरीट के जंगल में
अपनी जड़ों से उखड़ा हुआ
अपनी अकड़ में अंकड़ा हुआ है
अपने ही घर में अजनबी सा रहता।"

संग्रह की अन्य कविताओं से गुजरते हुए हम पाते हैं कि "स्मृतियों के एलबम में " पच्चीस-तीस बरस पहले वाले समय की ढेरों यादें  कोलाज की शक्ल में दिखाई देती है। क्या- क्या दर्ज करें-"यूं लगता जैसे हम अब वो न रहे।"  कर भी क्या सकते? एक हूक सी उठती है। जब कोई नहीं साथ देता तब आदमी के साथ बच रहती है कविता। धूमिल के शब्दों में-कविता भीड़ में घिरे आदमी का संक्षिप्त एकालाप है।

कवयित्री मंजुश्री गुप्ता अपनी कलम से आग्रह और अनुरोध करती हैं, वे कहती हैं-
"लिख कुछ कविता या कथा
जो जीवन ने मथा
खुद के भीतर चल
दुनिया के कोने-कोने में
छिटकी कहानियां
विकास की,विनाश की
मानवता के ह्रास की।"

संग्रह की कविताएं जितना ही जीवन की भीतरी परतों में घुसती जारी हैं, उतना ही खुलता जाता है हमारे विकास का चेहरा, हमारी आज की सभ्यता का इतिहास-

"लुप्त होते जंगल खेत
विकास की अंधी दौड़ में
भागते इंसान"


निर्मल वर्मा की प्रसिद्ध कहानी परिंदे की नायिका लतिका मानो फिर एक बार अपना वही पुराना प्रश्न दुहरा रही हो कि आखिर-
कहां जा रहे हैं हम?,आतंकवाद का ककहरा -
"वो धर्म और मजहब
इंसानियत का दुश्मन।"

आधुनिकता वाद के प्रभाव में प्रयोगवाद और नयी कविता से लघु मानव के अकेलेपन की अनेक संकल्पनाएं उभर रही थीं। जीवन प्रवाह में कभी दुख ,कभी सुख के अनेक चित्र बनते बिगड़ते रहे। ग्लोबल गांव का आदमी जिंदगी को दूसरी तरह से देखने लगा है।

उसके लिए जिंदगी का अर्थ ही एक कभी न खत्म होने वाली जंग है। इतिहास में सम्राटों की जंग को हार और जीत के रूप में देखा जाता रहा है। कवियों ने जंग को अंततः मनुष्यता की मृत्यु के रूप में ही देखा और महसूस किया है। जीत के जश्न के बदले हम आदमी की गरिमा को वहां सिर्फ खोते हुए ही देखते रहे हैं।ऐसे में यहां किसी तरह का सुकून या सुख इस जीवन की कल्पना भर है-

"मृग मरीचिका सुख की तलाश में
हर जगह उलझनों का ताना बाना
लम्हा- दर- लम्हा
गुजरती जाती जिंदगी।"

यह अच्छी बात है कि जंग के इस अनवरत प्रवाह के बावजूद रुदन या निराशा का कोई चिन्ह इस संग्रह की कविताओं में नहीं दिखता है। यहां जंग के बिल्कुल दूसरे ही रूप और रंग हैं। बल्कि जंग तो यहां एक मुंहलगी सहेली जैसी आत्मीयता के रंग में दिखती है। यह नया जंग, जिसमें सदियों का विजेता पुरुष जब हार कर टूट बिखर जाता है तब स्त्री उसे अपना कंधा देती है-

"तूने हर रास्ते बंद कर दिए?
ले में निकल गयी पतली गली से

-------
कभी चोट खाऊँगी
कभी हार जाउंगी
मगर फिर भी लड़ती जाउंगी।"


फिर भी समकालीन कविता के एक मुख्य स्त्री विमर्श का कोई उग्र स्वर मंजू श्री गुप्ता की इन कविताओं में नहीं दिखेगा। जिंदगी के इस जंग में ढेर सारी उलझनें हैं, जिसमें दुनिया भर की दखल है। तरह-तरह की मुश्किलें हैं, मुसीबतें हैं। लेकिन यही तो जीवन का राग और उत्सव है। स्त्री जन्य करुणा का संगीत है। इसीलिए अंतर्बोध यह कि-

"अपनी खुशी के लिए औरों पर
निर्भर न बन
सूरज की तरह न सही
दीप सी जल।


इस सीमित संसार से कोई पलायन नहीं।

संग्रह के स्त्रियां उपखण्ड के अंतर्गत लिखी गयीं कुल 22 कविताएं आज के दौर में लिखी जा रही स्त्री विमर्श वाली कविताओं से भिन्न भावभूमि की कविताएं हैं, जिनमें आत्मीयता का स्वर प्रबल है। पाठकों के मन- मष्तिष्क पर ये इसलिए भी अपना भिन्न और गहरा असर  छोड़ती हैं, क्योंकि ये स्त्रियां हमारे रोजमर्रा की जीवन चर्या की अति जानी- पहचानी हैं। सृष्टि से साथ -साथ रहती आयी इस स्त्री को हम खूब पहचानते हैं, पर कभी जान न सके। अक्सर उसे जानने से बचते रहे हैं-

"जब वे अपनी इच्छा से
घूमती फिरती ओढ़ती पहनती
हंसती खिलखिलाती है तो
चरित्रहीन कहलाती है
अपनी जिजीविषा से
कभी लोगों को अचरज से भर जाती है
फिर स्वार्थी कहलाती है।"

लेकिन पंख और पिंजड़े के इस चिर परिचित जंग में जब आज की यह स्त्री घर की दहलीज को लांघकर-

"भीषण तूफानों में डगमगाने के बावजूद, जरूरत नहीं इसे कि परजीवी बने,उसे तोड़ने की कोशिश में खुद ही टूट जाओगे, रौंदने से खत्म नहीं होती, खुशबू फूलों की।"

आज के इस उत्तर आधुनिक युग में जब हमारा सदियों का अर्जित ज्ञान काम नहीं आ रहा। हमारा पुराना चिर- परिचित गांव छिन्न- भिन्न होने लगा है। हमारे पुराने काव्यात्मक फलक की हर चीज विरूपित होने लगी है और इस ग्लोबल गांव का आदमी अपनी शख्शियत खो चुका है, तो इस कठिन दौर में आज की स्त्री ने अपना नव निर्माण किया है। वह पूरी तरह बदल चुकी है।

सकारत्मक संभावनाओं से भरी- पूरी वह एक साथ कई स्तरों पर उन्नत होती जा रही है।आज चारों तरफ रुदन है कि बाजारवाद ने सब कुछ नष्ट कर दिया है। ऐसे में इन सारी मुश्किलों और मुसीबतों के बीच स्त्री ने अपनी संभावनाओं का विस्तार किया है।इस उपखण्ड में तीन कविताएं चिड़िया शीर्षक से लिखी गयी है-

"चिड़ियाँ और लड़कियां,उड़ती फुदकती और गाती चहचहाती हैं।

हर जाल को काटते हुए निकल जाती हैं। ऊंचे गगन में अपना रास्ता बनाती हैं।"

चिड़िया के रूपक में स्त्री की विडंबना का मार्मिक बयान हमारे इस समय का बड़ा सच है, जिसे हमारा मध्यवर्गीय समाज रोज- ब -रोज जी रहा है-

"तिनका-तिनका जोड़ घोसला हम बनाते हैं
बच्चे बड़े होकरचिडिया से उड़ जाते हैं
बचपन के लम्हों की कसक रह जाती है।"

हम कुछ पाने की होड़ में थे, लेकिन मोहन राकेश के नाटक आधे अधूरे का आखिरी वाक्य हमारी नियति बन जाता है।हम क्या पाना चाहते थे? क्या थी हमारी तलाश-

"कुछ बेहतर की तलाश में

जो था उसे भी खो बैठे।"

जब आदमी की स्मृतियां,उसके सपने मर जाते हैं, तो वह विशुद्धतः वर्तमान का होकर रह जाता है। तिकड़मी और दुनियादार। ग्लोबल गांव का आदमी एक ऐसा ही संवेदन शून्य आदमी है। शिल्प विधान की दृष्टि से यह संग्रह समकालीन काव्य परिदृश्य को ज्यादा संभावनाशील और हरा -भरा  करता है।

लोकरंग और उसका स्वाद इसका अंतःकरण तो है ही, इससे अधिक इसका अलंकरण भी है।इसमें मनुष्यता को बचाये रखने की गहरी और गम्भीर चिंता के स्वर हैं, जिसकी प्रेरणा में कभी पिता की लिखी दो पंक्तियां -

"क्या हुआ जो मौत से दो चार होंगे एक दिन
जिंदगी जब तक रहेगी गीत बरसाएंगे हम।"


कहना न होगा कि  मंजुश्री गुप्ता की कलम जितनी सावधानी से कविता के लिए शब्दों का चयन करने में दक्ष हैं, उतनी ही सक्षम तरीके से कवयित्री खुद तूलिका का भी प्रयोग करती हैं। कविता के भावों के  मूर्त रेखांकन ने संग्रह को ज्यादा ग्रहणीय और संग्रहणीय बना दिया है।

एक वाक्य में इसे कहा जा सकता है कि संकरी पगडंडियों के इर्द गिर्द गुथा, हंसता खेलता हमारा पुराना गांव विकास के इस दौर में आज हाइवे के किनारे अपनी किस्मत का कटोरा लिए खड़ा है।आज उसके पास न अपनी स्मृतियां हैं, न सपने। तेज भागते वाहनों की धूल उसकी आँखों में भरती जा रही है। आज जब समकालीन साहित्य में विमर्श परक रचनाशीलता का ही बोलबाला है तब इस संग्रह की कविताएं सभ्यता और विकास की गंभीर समीक्षा हैं।

काव्य संग्रह-  ग्लोबल गांव का आदमी
कवयित्री-      मंजुश्री गुप्ता
प्रकाशक-     किताबवाले
                22/4735,प्रकाशदीप बिल्डिंग
                अंसारी रोड,दरियागंज
                 नई दिल्ली-110002 

Web Title: Book review "Man of Global Village" standing side highway manju shree gupta

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