बिरसा मुण्डा पुण्यतिथि: 25 वर्ष की उम्र में हुए देश के लिए शहीद, जीते जी मिला 'भगवान' का दर्जा

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: June 9, 2018 07:33 AM2018-06-09T07:33:00+5:302018-06-09T07:33:00+5:30

ब्रिटिश शासकों ने कानून बनाकर आदिवासियों की जमीन और जंगल पर कब्जा कर लिया था।

Birsa Munda death anniversary india's freedom fighter who is considered god by tribals | बिरसा मुण्डा पुण्यतिथि: 25 वर्ष की उम्र में हुए देश के लिए शहीद, जीते जी मिला 'भगवान' का दर्जा

बिरसा मुण्डा पुण्यतिथि: 25 वर्ष की उम्र में हुए देश के लिए शहीद, जीते जी मिला 'भगवान' का दर्जा

आज 'भगवान' बिरसा मुण्डा की पुण्यतिथि है। नौ जून 1900 को ब्रिटिश जेल में अपनी आखिरी साँसें लेने वाले बिरसा मुण्डा को 25 साल से भी कम उम्र मिली थी। लेकिन इतनी ही आयु में उन्होंने आदिवासियों के बीच "भगवान" और "धरती का पिता" जैसी उपाधियाँ हासिल कर ली थीं। 

बिरसा का जन्म 15 नवंबर 1875 को छोटा नागपुर पठारी इलाके में हुआ था। ये जगह आज के झारखण्ड के रांची में पड़ती है। बिरसा के पिता जर्मन ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में ईसाई हो गये थे। बिरसा को पढ़ाई के लिए चाईबासा के एक मिशनरी स्कूल में भर्ती कराया गया। स्कूली जीवन से ही बिरसा में अपने समाज और देश की समस्याओं के प्रति जागरूक हो चुके थे।

ब्रिटिश शासकों ने कानून बनाकर आदिवासियों की जमीन और जंगल पर कब्जा कर लिया था। 1886-87 में आदिवासियों ने अपनी जमीन वापस हासिल करने के लिए विद्रोह किया। यहीं से बिरसा के मन में भी अंग्रजों के प्रति विद्रोह का बीज फूटा। करीब 1890 में बिरसा और उनके परिवार ने ईसाई धर्म छोड़ दिया।

1895 आते-आते बिरसा ने ब्रिटिश शासकों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह (उलगुलान) कर दिया। बिरसा ने नारा दिया, "अबुआ दिशोम रे अबुआ राज" (हमारे देश में हमारा राज)। बिरसा और उनके साथियों के पास तीर-धनुष, कुल्हाड़ी और भाले जैसे परंपरागत हथियार ही थे।

22 अगस्त 1895 को बिरसा को ब्रिटिश शासन के खिलाफ बगावत के लिए गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें 50 रुपये जुर्माना और दो साल कठोर कारावास की सजा सुनायी गयी। 30 नवंबर 1897 को बिरसा जेल से रिहा हुए। उन्होंने फिर से अपने साथियों को संगठित करना शुरू किया। 24 दिसंबर 1899 को उन्होंने फिर से उलगुलान शुरू कर दिया।

बिरसा और उनके साथियों के जिस कारनामे ने ब्रिटिश शासकों की नींद उड़ा दी वो सात जनवरी 1900 को घटा। बिरसा और उनके कुछ सौ साथियों ने तीर-धनुष और कुल्हाड़ी-भाले के दम पर खूंटी थाने पर हमला कर दिया और उस पर कब्जा कर लिया। ब्रिटिश इस दुस्साहस से अंदर तक हिल गये। उन्होंने बिरसा और उनके साथियों के लिए बड़ी फौज भेजी। नौ जनवरी 1900 को जब एक पहाड़ी पर बिरसा मुण्डा, नरसिंह मुण्डा और उनके अन्य साथी बैठक कर रहे थे तभी अंग्रेजी पलटन ने उन्हें घेर लिया।

बिरसा के साथियों ने आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दिया। बिरसा के कई साथी मारे गये लेकिन वो खुद बच गये। लेकिन किस्मत ने ज्यादा दिनों तक बिरसा का साथ नहीं दिया। अंग्रेज सरकार ने बिरसा की सूचना देने वाले को 500 रुपये इनाम देने की घोषणा की थी। बिरसा जिस गाँव में छिपे हुए थे वहाँ के कुछ लोगों ने इनाम के लालच में बिरसा का पता अंग्रेजों को दे दिया। तीन फरवरी 1900 को बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया। 

बिरसा को गिरफ्तार करेक रांची जेल लाया गया। जेल में उनकी तबीयत खराब होने लगी। नौ जून 1900 को बिरसा ने जेल में ही आखरी सांस ली। जीते जी बिरसा ने केवल अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई नहीं लड़ी। वो सूदखोर भारतीय महाजनों के भी पूरी तरह खिलाफ थे। आदिवासियों के पीच व्याप्त धार्मिक अंधविश्वासों के भी उन्मूलन का उन्होंने प्रयास किया, खासकर बीमारियों से जुड़े मिथकों को उन्होंने तोड़ने की कोशिश की। बांग्ला साहित्यकार महाश्वेता देवी ने बिरसा मुण्डा के जीवन फर आधारित उपन्यास "जंगल के दावेदार" लिखा है।
 

 

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Web Title: Birsa Munda death anniversary india's freedom fighter who is considered god by tribals

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