दल-बदल कानून: आखिर क्या है 'आया राम-गया राम किस्सा' और कैसे बना कानून, जानिए पूरा इतिहास

By आशीष कुमार पाण्डेय | Published: June 27, 2022 02:21 PM2022-06-27T14:21:52+5:302022-06-27T14:35:15+5:30

शिवसेना के बागी नेता एकनाथ शिंदे आज की तारीख में दावा कर रहे हैं कि उनके साथ में शिवसेना के उतने विधायक हैं, जो उन्हें दल-बदल कानून से बचाने के लिए पर्याप्त हैं। ऐसे में हर किसी के जेहन में आ रहा होगा कि आखिर ये दल-बदल कानून है और इस कानून का इतना खौफ क्यों हैं।

Anti-defection law: What is 'Aaya Ram-Gaya Ram Kissa' and how the law was made, know the complete history | दल-बदल कानून: आखिर क्या है 'आया राम-गया राम किस्सा' और कैसे बना कानून, जानिए पूरा इतिहास

दल-बदल कानून: आखिर क्या है 'आया राम-गया राम किस्सा' और कैसे बना कानून, जानिए पूरा इतिहास

Highlights1967 में गया लाल ने लोकतंत्र को ऐसा चमका दिया कि 'आया राम-गया राम' मुहावरा गढ़ दिया गयाहरियाणा के पलवल जिले के हसनपुर विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर चुने गये थे गया लालगया लाल ने एक दिन इतनी पार्टी बदली, जितनी की लोग अमूमन कपड़े भी नहीं बदलते

दिल्ली: साल 1967 में पहली बार किसी ने भारतीय लोकतंत्र को ऐसा चमका दिया कि बाकायदा उसके लिए 'आया राम-गया राम' मुहावरा गढ़ दिया गया और ये मुहावरा मौजूदा दौर में उस वक्त मा'नी-ख़ेज़ हो गया जब शिवसेना के बागी नेता एकनाथ शिंदे ने भी अपनी पार्टी शिवसेना के खिलाफ जाते हुए बगावत कर दी।

एकनाथ शिंदे आज की तारीख में दावा कर रहे हैं कि उनके साथ में शिवसेना के उतने विधायक हैं, जो उन्हें दल-बदल कानून से बचाने के लिए पर्याप्त हैं। ऐसे में हर किसी के जेहन में आ रहा होगा कि आखिर ये दल-बदल कानून है और इस कानून का इतना खौफ क्यों हैं।

दरअसल गौर करें तो महाराष्ट्र की सत्ता में मची तोड़फोड़ के बीच एक संख्या 37 का जिक्र बार-बार आ रहा है, कहा जा रहा है कि शिंदे गुट में शिवसेना के 37 से ज्यादा विधायक हैं, इसलिए वो शिवसेना की कुल संख्या 55 के एक-तिहाई से ज्यादा हैं। इसलिए उन पर दल बदल कानून लागू नहीं होता है।

वहीं शिवसेना का दावा है कि शिंदे गुट के पास महज 29 बागी विधायक हैं, इस लिहाज से वे दल बदल कानून के तहत आते हैं और उनकी विधानसभा की सदस्यता रद्द हो क्योंकि उन्होंने धन बल के प्रलोभन में और बाहुबल के दबाव में पार्टी से बगावत की है।

दोनों पक्षों की ओर से किये जा रहे दावों के बारे में कुछ भी कहना बड़ा मुश्किल है और इस बात फैसला कि बहुमत शिंदे गुट के पास में है या फिर ठाकरे के पास में है। सभी को विधानसभा के फ्लोर पर आना होगा और सदन में अपने-अपने संख्या बल के साथ अपनी बातों की तस्दीक करानी होगी।

इसके साथ ही ठाकरे गुट और शिंदे गुट अपने-अपने विधायकों की परेड राज्यपाल के सामने भी कर सकता है, जिससे राज्यपाल दोनों पक्षों की ओर से किये जा रहे दावों के प्रति आश्वस्त हो सकें।

लेकिन ये दल-बदल कानून है क्या और उद्धव ठाकरे गुट बार-बार इस कानून का हवाला देते हुए आखिर क्यों शिंदे गुट को खारिज कर रहा है। तो आइये समझते हैं दल-बदल कानून क्यों लागू हुआ और इस कानून के क्या मायने हैं।

दल-बदल को सत्ता गठन के अनैतिक प्रयोग के तौर पर देखा जाता है और इसकी शुरूआत साल 1947 में उस समय शुरू हुई जब संयुक्त प्रांत यानी की आज के उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड को मिला दें तो उसके तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने शुरू की।

पंत ने मुस्लिम लीग के कुछ सदस्यों को कांग्रेस में शामिल होने का प्रलोभन दिया और मुस्लिम लीग के विधायक हाफिज मुहम्मद इब्राहिम टूटकर पहले दल-बदलू बने। इब्राहिम को इसका इनाम भी मिला और वो पंत मंत्रिमंडल में शामिल किये गये।

उसके बाद साल 1967 में हरियाणा के पलवल जिले के हसनपुर विधानसभा क्षेत्र से चुने गये गया लाल ने तो भारतीय राजनीति के इतिहास में गजब का कीर्तिमान स्थापित किया। दल-बदल के इतिहास में इन्हीं के कारण 'आया राम-गया राम' का मुहावर जुड़ा।

गया लाल ने तो एक दिन इतनी पार्टी बदली, जितनी की लोग अमूमन कपड़े भी न बदलते। गया लाल पहले कांग्रेस छोड़ जनता पार्टी में शामिल हुए, मगर थोड़ी देर में उन्होंने चौंकाने वाला ऐलान करते हुए कहा कि वो कांग्रेसी हैं।

लेकिन शायद कांग्रेस मूड को जमी नहीं और करीब 9 घंटे बाद गया लाल ने परिवर्तित हृदय से ऐलान किया वो कांग्रेस छोड़कर जनता पार्टी में शामिल हो रहे हैं। 

खैर गया लाल के हृदय परिवर्तन का सिलसिला जारी रहा और वापस कांग्रेस में आ गए। लोकतंत्र का मजाक उड़ाने वाला गया लाल का यह किस्सा लगभग 15 दिनों तक कांग्रेस के गले की फांस बना रहा। अंत में कांग्रेस के तत्कालीन नेता राव बीरेंद्र सिंह गया लाल को पलवल से पकड़कर चंडीगढ़ ले गए और वहां भरी पत्रकार सभा में कहा 'गया राम अब आया राम हैं।'

भारतीय राजनीति में कांग्रेस के राव विरेंद्र की कही यह बात अखबारों की सुर्खियां बनी और पाला बदलने वाले दलबदलुओं के लिए 'आया राम, गया राम' बतौर मुहावरा प्रयोग किया जाने लगा।

इसके बाद साल आता है 1980 का, हरियाणा में जनता पार्टी की सरकार थी और मुख्यमंत्री थे भजनलाल। इमरजेंसी के बाद सत्ता में लौटी इंदिरा गांधी के कड़े तेवरों से भजनलाल इस कदर भयभीत हो गये कि वो मय कैबिनेट समेत कांग्रेस में शामिल हो गये।

वैसे दल-बदल कानून लाने के पीछे हरियाणा के तीन लाल यानी देवी लाल, भजन लाल और बंसी लाल का बहुत बड़ा योगदान रहा क्योंकि इन तीनों नेताओं ने जमकर पार्टियों में तोड़फोड़ को बढ़ावा दिया था।

साल 1884 के अक्टूबर महीने में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री का पद संभालने के बाद राजीव गांधी ने इस बात को महसूस किया कि दल बदल के कारण लोकतंत्र एक मजाक सा बन गया है। इसलिए राजीव गांधी ने सबसे पहले इस बात को उठाया कि दल-बदल जैसी गंभीर समस्या के लिए सख्त नियम होना चाहिए।

ऐसा इसलिए कि फर्ज करिये अगर कोई नेता किसी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ता है और उस पार्टी के समर्थक उसे वोट देकर विधानसभा या संसद में पहुंचा देते हैं। अगर सदन में जाकर वो नेता पल्टी खा जाए और किसी दूसरे दल में शामिल हो जाए तो यह सीधे उस जनता के साथ धोखा हुआ, जिसने उसे वोट देकर जिताया है साथ ही यह उस पार्टी के साथ भी धोखा हुआ, जिसके टिकट पर वो चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की।

तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1985 की जनवरी में शीतकालीन सत्र के दौरान संसद में भारत के संविधान का 52वां संशोधन पेश किया और वो था दल बदल निरोधक कानून।

1 मार्च 1985 को लागू हुए दलबदल विरोधी कानून में बताया गया है आखिर वो कौन सी स्थितियां होंगी, जिनमें यह कानून लागू होगा और उसे दल बदल निरोधक कानून के अंतर्गत माना जाएगा।

प्रावधान के पहले भाग में कहा गया है कि अगर कोई नेता किसी भी पार्टी के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ता है और जीत दर्ज करने के बाद स्वेच्छा से त्यागपत्र दे देता है तो उसे दल बदल कानून के अंतर्गत माना जाएगा और उसकी सदन की सदस्यता खत्म कर दी जाएगी।

प्रावधान का दूसरा भाग व्हिप से संबंधित था। सभी राजनीतिक पार्टियां अपने सदस्यों को सदन में पार्टी के जरूरी कार्य के लिए व्हिप जारी करती हैं। व्हिप का मतलब होता है कि पार्टी अपने सदस्यों के लिए सदन संबंधी कार्य के लिए जरूरी दिशा-निर्देश जारी कर सकती है।

पार्टी के सदस्य ने अगर व्हिप का उल्लंघन किया तो उसकी सदन की सदस्यता खत्म हो सकती है। लेकिन पार्टी सदस्य कभी-कभी व्हिप के खिलाफ जाकर विरोधी पार्टी को वोट कर देते हैं या खुद को वोटिंग से अलग रखते हैं। यदि पार्टी क्रॉस वोटिंग के लिए सदस्य को 15 दिनों के भीतर माफ न करे तो भी उसकी सदस्यता रद्द हो सकती है।

तीसरे और सबसे महत्वपूर्ण भाग में कहा गया कि अगर किसी पार्टी के एक तिहाई सदस्य एक साथ उस पार्टी से इस्तीफा दे देते हैं तो ऐसे केस में उन सदस्यों पर दल बदल कानून लागू नहीं होता है।

चौथे और अंतिम प्रावधान के तहत कहा गया कि अगर दो तिहाई सदस्य पार्टी से इस्तीफा देकर किसी दूसरी पार्टी में मिल जाते हैं तो इसे दो पार्टी का विलय माना जाएगा। फिर उन पर दल बदल कानून के तहत कार्रवाई नहीं की जा सकती है।

लेकिन इस नियम में भी एक पेंच फंस गया, दरअसल स्पीकर भी तो सदन का अध्यक्ष होने से पहले किसी न किसी पार्टी का सदस्य होता है। ऐसे में इस बात की आशंका थी कि स्पीकर भी निर्णय लेने में पक्षपात कर सकता है और कई मामलों में ऐसा हुआ भी।

कई दफे स्पीकर ने अपनी पसंदीदा पार्टी की सरकार बनवाने के लिए गलत फैसले दिए। जहां दल बदल निरोधक कानून लागू नहीं हुआ वहां भी इसे इस्तेमाल किया गया। जिसके बाद इस तरह के मामले कोर्ट में भी गये। 

साल 1991 में दल बदल विरोधी कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया था। देश की सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला मेघालय, मणिपुर, नागालैंड, गुजरात और मध्य प्रदेश के अयोग्य ठहराए गए विधायकों की याचिकाओं के सिलसिले में दिया गया था। 

कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने कहा कि 1985 के प्रावधान की 10वीं अनुसूची के मुताबिक़ स्पीकर या चेयरपर्सन का दल-बदल को लेकर फ़ैसला आख़िरी होगा और इसमें कहा गया है कि यह मामले कोर्ट में विचाराधीन नहीं होंगे। हम इसमें को नहीं मानते हैं।

कोर्ट ने स्पीकर के फैसले पर कोर्ट के हस्तक्षेप की मनाही को असंवेधानिक क़रार देते हुए कहा कि चूंकि साल 1985 में दल बदल निरोधक कानून बनाते समय अदालती हस्तक्षेप को खत्म करने के लिए राज्यों से सहमति नहीं ली गई थी। इसलिए ये विषय राज्य पुनरीक्षण के अंतर्गत आता है और इसमें हम दखल दे सकते हैं।

इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि दल बदल कानून में अगर कोई उलझन होती है या स्पीकर निर्णय विवादित माना जाता है तो कोर्ट उस पर सुनवाई कर सकती है। 

लेकिन इसके बाद भी दल-बदल धड़ल्ले से चलता रहा तो साल 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने दल-बदल कानून को और मजबूत बनाने के लिए संविधान में 91वां संशोधन किया। 

इसमें 1985 के उस प्रावधान को खत्म कर दिया गया, जिसमें नियम था कि अगर एक तिहाई सदस्य पार्टी छोड़ते हैं तो उसे पार्टी के अंदर बंटवारा नहीं माना जाएगा।  91वें संशोधन के तहत एक तिहाई की जगह सदस्यों की संख्या दो तिहाई कर दिया गया। 

इसके साथ ही 91वें संशोधन में यह भी कहा गया दल-बदल मामले में लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा या विधान परिषद के स्पीकर को अंतिम फैसला लेने का अधिकार होगा। अगर स्पीकर ने दल-बदल के आरोप में किसी सदस्य को सदन से निष्कासित कर दिया है तो उसका फैसला अंतिम होगा।

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