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अमृता प्रीतम की चुनिंदा कविताएंः ...इश्क़ की किताब का कोई नया वर्क खोलो!

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: August 31, 2019 08:34 IST

अमृता प्रीतम का जन्म 1919 में अविभाजित भारत में हुआ था। अपनी जवानी के दिनों में अमृता ने भारत विभाजन की त्रासदी देखी। इस घटना ने उनकी जिंदगी पर गहरा असर किया। उनके जन्मदिवस पर पढ़ें कुछ चुनिंदा कविताएं...

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ठळक मुद्देअमृता प्रीतम का जन्म 1919 में अविभाजित भारत में हुआ था।अमृता ने जिंदगी में कविता संग्रह, कहानी, आत्मकथा और निबंध मिलाकर 100 से ज्यादा किताबें लिखी हैं।

20वीं सदी में साहित्य का एक ऐसा सितारा जिसने अपनी शर्तों पर जिंदगी गुजारी। उन्होंने एक ऐसे वक्त में साहसी फैसले लिए जब समकालीन महिलाओं के लिए विरोध जताना मुश्किल था। उन्होंने अपनी जिंदगी में कविता संग्रह, कहानी, आत्मकथा और निबंध मिलाकर 100 से ज्यादा किताबें लिखी हैं। हम बात कर रहे हैं अमृता प्रीतम की।

अमृता प्रीतम का जन्म 1919 में अविभाजित भारत में हुआ था। अपनी जवानी के दिनों में अमृता ने भारत विभाजन की त्रासदी देखी। इस घटना ने उनकी जिंदगी पर गहरा असर किया। इन्हीं पीड़ाओं का नतीजा उनकी सुप्रसिद्ध कविता 'अज्ज आंखां वारिस शाह नू' थी।

विभाजन से ही प्रभावित होकर उन्होंने 'पिंजर' नामक उपन्यास लिखा। जिसमें विभाजन से उस वक्त की महिला पीड़ा जाहिर की गई। अमृता 20वीं सदी की जानी-मानी पंजाबी कवियित्री थी। उनकी कविताओं का कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। 31 अक्टूबर 2005 को 86 वर्ष की आयु में अमृता का निधन हो गया। उनका साहित्य आज भी उतना ही प्रासंगिक बना हुआ है। पढ़िए, अमृता प्रीतम की पांच चुनिंदा कविताएं-

वारिस शाह से

आज वारिस शाह से कहती हूँअपनी कब्र में से बोलोऔर इश्क की किताब काकोई नया वर्क खोलोपंजाब की एक बेटी रोई थीतूने एक लंबी दास्तान लिखीआज लाखों बेटियाँ रो रही हैं,वारिस शाह तुम से कह रही हैंऐ दर्दमंदों के दोस्तपंजाब की हालत देखोचौपाल लाशों से अटा पड़ा हैं,चिनाव लहू से भरी पड़ी हैकिसी ने पाँचों दरिया मेंएक जहर मिला दिया हैऔर यही पानीधरती को सींचने लगा हैइस जरखेज धरती सेजहर फूट निकला हैदेखो, सुर्खी कहाँ तक आ पहुँचीऔर कहर कहाँ तक आ पहुँचाफिर जहरीली हवा वन जंगलों में चलने लगीउसमें हर बाँस की बाँसुरीजैसे एक नाग बना दीनागों ने लोगों के होंठ डस लियेऔर डंक बढ़ते चले गयेऔर देखते देखते पंजाब केसारे अंग काले और नीले पड़ गयेहर गले से गीत टूट गयाहर चरखे का धागा छूट गयासहेलियाँ एक दूसरे से छूट गईंचरखों की महफिल वीरान हो गईमल्लाहों ने सारी कश्तियाँसेज के साथ ही बहा दींपीपलों ने सारी पेंगेंटहनियों के साथ तोड़ दींजहाँ प्यार के नगमे गूँजते थेवह बाँसुरी जाने कहाँ खो गईऔर रांझे के सब भाईबाँसुरी बजाना भूल गयेधरती पर लहू बरसाक़ब्रें टपकने लगींऔर प्रीत की शहजादियाँमजारों में रोने लगींआज सब कैदो बन गएहुस्न इश्क के चोरमैं कहाँ से ढूँढ के लाऊँएक वारिस शाह और

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मैं चुप शान्त और अडोल खड़ी थीसिर्फ पास बहते समुन्द्र में तूफान था……फिर समुन्द्र को खुदा जानेक्या ख्याल आयाउसने तूफान की एक पोटली सी बांधीमेरे हाथों में थमाईऔर हंस कर कुछ दूर हो गया

हैरान थी….पर उसका चमत्कार ले लियापता था कि इस प्रकार की घटनाकभी सदियों में होती है…..

लाखों ख्याल आयेमाथे में झिलमिलाये

पर खड़ी रह गयी कि उसको उठा करअब अपने शहर में कैसे जाऊंगी?

मेरे शहर की हर गली संकरीमेरे शहर की हर छत नीचीमेरे शहर की हर दीवार चुगली

सोचा कि अगर तू कहीं मिलेतो समुन्द्र की तरहइसे छाती पर रख करहम दो किनारों की तरह हंस सकते थे

और नीची छतोंऔर संकरी गलियोंके शहर में बस सकते थे….

पर सारी दोपहर तुझे ढूंढते बीतीऔर अपनी आग का मैंनेआप ही घूंट पिया

मैं अकेला किनाराकिनारे को गिरा दियाऔर जब दिन ढलने को थासमुन्द्र का तूफानसमुन्द्र को लौटा दिया….

अब रात घिरने लगी तो तूं मिला हैतूं भी उदास, चुप, शान्त और अडोलमैं भी उदास, चुप, शान्त और अडोलसिर्फ- दूर बहते समुन्द्र में तूफान है

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आज सूरज ने कुछ घबरा कररोशनी की एक खिड़की खोलीबादल की एक खिड़की बंद कीऔर अंधेरे की सीढियां उतर गया…

आसमान की भवों परजाने क्यों पसीना आ गयासितारों के बटन खोल करउसने चांद का कुर्ता उतार दिया…

मैं दिल के एक कोने में बैठी हूंतुम्हारी याद इस तरह आयीजैसे गीली लकड़ी में सेगहरा और काला धूंआ उठता है…

साथ हजारों ख्याल आयेजैसे कोई सूखी लकड़ीसुर्ख आग की आहें भरे,दोनों लकड़ियां अभी बुझाई हैं

वर्ष कोयले की तरह बिखरे हुएकुछ बुझ गये, कुछ बुझने से रह गयेवक्त का हाथ जब समेटने लगापोरों पर छाले पड़ गये…

तेरे इश्क के हाथ से छूट गयीऔर जिन्दगी की हन्डिया टूट गयीइतिहास का मेहमानमेरे चौके से भूखा उठ गया…

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बरसों की आरी हंस रही थीघटनाओं के दांत नुकीले थेअकस्मात एक पाया टूट गयाआसमान की चौकी पर सेशीशे का सूरज फिसल गया

आंखों में ककड़ छितरा गयेऔर नजर जख्मी हो गयीकुछ दिखायी नहीं देतादुनिया शायद अब भी बसती है

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मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह हैसड़कें - बेतुकी दलीलों-सी…और गलियाँ इस तरहजैसे एक बात को कोई इधर घसीटताकोई उधर

हर मकान एक मुट्ठी-सा भिंचा हुआदीवारें-किचकिचाती सीऔर नालियाँ, ज्यों मुँह से झाग बहता है

यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थीजो उसे देख कर यह और गरमातीऔर हर द्वार के मुँह सेफिर साईकिलों और स्कूटरों के पहियेगालियों की तरह निकलतेऔर घंटियाँ-हार्न एक दूसरे पर झपटते

जो भी बच्चा इस शहर में जनमतापूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनताबहस से निकलता, बहस में मिलता…

शंख घंटों के साँस सूखतेरात आती, फिर टपकती और चली जाती

पर नींद में भी बहस ख़तम न होतीमेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है

साभार- कविता कोष

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