आजादी के 11 साल पहले जब ध्यानचंद ने 15 अगस्त को लहराया था भारत का परचम

By भाषा | Updated: August 14, 2020 22:49 IST2020-08-14T19:43:50+5:302020-08-14T22:49:36+5:30

समुद्र के रास्ते लंबा सफर तय करके भारतीय हॉकी टीम हंगरी के खिलाफ पहले मैच से दो सप्ताह पहले बर्लिन पहुंची थी लेकिन अभ्यास मैच में जर्मन एकादश से 4-1 से हार गई...

BAREFOOT AND WITHOUT A TOOTH, DHYAN CHAND’S MAGIC TOOK CENTRESTAGE AT BERLIN 1936 | आजादी के 11 साल पहले जब ध्यानचंद ने 15 अगस्त को लहराया था भारत का परचम

आजादी के 11 साल पहले जब ध्यानचंद ने 15 अगस्त को लहराया था भारत का परचम

भारत को स्वतंत्रता मिलने से 11 साल पहले ही 15 अगस्त का दिन ध्यानचंद की अगुवाई में भारतीय हॉकी के करिश्मे के दम पर इतिहास में दर्ज हो गया था जब हिटलर की मौजूदगी में हुए बर्लिन ओलंपिक फाइनल में भारत ने जर्मनी को हराकर पीला तमगा अपने नाम किया था। ओलंपिक के उस मुकाबले और हिटलर के ध्यानचंद को जर्मन नागरिकता का प्रस्ताव देने की दास्तां भारतीय हॉकी की किवदंतियों में शुमार है।

ध्यानचंद के बेटे और 1975 विश्व कप में भारत की खिताबी जीत के नायकों में शुमार अशोक कुमार ने कहा, ‘‘उस दिन को वह (ध्यानचंद) कभी नहीं भूले और जब भी हॉकी की बात होती तो वह उस ओलंपिक फाइनल का जिक्र जरूर करते थे।’’ 

समुद्र के रास्ते लंबा सफर तय करके भारतीय हॉकी टीम हंगरी के खिलाफ पहले मैच से दो सप्ताह पहले बर्लिन पहुंची थी लेकिन अभ्यास मैच में जर्मन एकादश से 4-1 से हार गई। पिछले दो बार की चैम्पियन भारत ने टूर्नामेंट में लय पकड़ते हुए सेमीफाइनल में फ्रांस को 10.0 से हराया और ध्यानचंद ने चार गोल दागे। फाइनल में जर्मन डिफेंडरों ने ध्यानचंद को घेरे रखा और जर्मन गोलकीपर टिटो वार्नहोल्ज से टहराकर उनका दांत भी टूट गया। ब्रेक में उन्होंने और उनके भाई रूप सिंह ने मैदान में फिसलने के डर से जूते उतार दिये और नंगे पैर खेले। 

ध्यानचंद ने तीन और रूप सिंह ने दो गोल करके भारत को 8-1 से जीत दिलाई। अशोक ने कहा, ‘‘उस मैच से पहले की रात उन्होंने कमरे में खिलाड़ियों को इकट्ठा करके तिरंगे की शपथ दिलाई थी कि हमें हर हालत में यह फाइनल मैच जीतना है। उस समय चरखे वाला तिरंगा था क्योंकि भारत तो ब्रिटिश झंडे तले ही खेल रहा था।’’

उन्होंने कहा, ‘‘उस समय विदेशी अखबारों में भारत की चर्चा आजादी के आंदोलन , गांधीजी और भारतीय हॉकी को लेकर होती थी। वह टीम दान के जरिये इकट्ठे हुए पैसे के दम पर ओलंपिक खेलने गई थी। जर्मनी जैसी सर्व सुविधा संपन्न टीम को हराना आसान नहीं था लेकिन देश के लिये अपने जज्बे को लेकर वह टीम ऐसा कमाल कर सकी।’’ 

उन्होंने कहा ,‘‘ इस मैच ने भारतीय हॉकी को विश्व ताकत के रूप में स्थापित कर दिया। इसके बाद बलबीर सिंह सीनियर, उधम सिंह और केडी सिंह बाबू जैसे कितने ही लाजवाब खिलाड़ी भारतीय हॉकी ने दुनिया को दिये।’’ 

उन्होंने बताया कि 15 अगस्त 1936 के ओलंपिक मैच के बाद खिलाड़ी वहां बसे भारतीय समुदाय के साथ जश्न मना रहे थे लेकिन ध्यान (ध्यानचंद) कहीं नजर नहीं आ रहे थे। अशोक ने कहा, ‘‘हर कोई उन्हें तलाश रहा था और वह उस स्थान पर उदास बैठे थे जहां तमाम देशों के ध्वज लहरा रहे थे। उनसे पूछा गया कि यहां क्यो उदास बैठे हो तो उनका जवाब था कि काश हम यूनियन जैक की बजाय तिरंगे तले जीते होते और हमारा तिरंगा यहां लहरा रहा होता।’’ 

वह ध्यानचंद का आखिरी ओलंपिक था। तीन ओलंपिक के 12 मैचों में 33 गोल करने वाले हॉकी के उस जादूगर ने अपनी टीम के साथ 15 अगस्त 1947 से 11 साल पहले ही भारत के इतिहास में इस तारीख को स्वर्णिम अक्षरों में लिख दिया था।

Web Title: BAREFOOT AND WITHOUT A TOOTH, DHYAN CHAND’S MAGIC TOOK CENTRESTAGE AT BERLIN 1936

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