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माता-पिता बनना आपके जीवन में बड़ा बदलाव?, क्या है “पोस्ट-पार्टम डिप्रेशन”?

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: November 16, 2025 17:26 IST

बच्चे के जन्म के बाद आती हैं मानसिक समस्याएं, रिश्तों की अहमियत बरकरार रखना होता है चुनौती।

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ठळक मुद्देकमजोर महसूस कराता है और हर किसी को किसी न किसी स्तर पर तनाव में डाल देता है।पोस्ट-पार्टम डिप्रेशन की अवधारणा 1968 में सामने आई। सामान्य डिप्रेशन से अलग और थोड़ा चिंताजनक लक्षणों वाला था।

मॉंट्रियलः “पोस्ट-पार्टम डिप्रेशन” यानी माता पिता बनने के बाद होने वाला तनाव, अब 50 साल बाद एक ऐसी मानसिक समस्या माना जाने लगा है जिसको आसानी से पहचानकर इलाज किया जा सकता है। इस समस्या की सीमाएं, पैमाने, और कितने लोगों को यह होता है, इन सबकी जानकारी उपलब्ध है। इसलिए सब कुछ साफ-साफ और थोड़ा भरोसा दिलाने वाला लगता है। लेकिन ये समस्या डिप्रेशन बन चुकी है या नहीं जैसे कुछ सवाल से असली बात छुप जाती है। माता-पिता बनना आपके जीवन में बड़ा बदलाव होता है। यह हमें कमजोर महसूस कराता है और हर किसी को किसी न किसी स्तर पर तनाव में डाल देता है।

पोस्ट-पार्टम डिप्रेशन की अवधारणा 1968 में सामने आई। इसका उद्देश्य नई माताओं की तकलीफ को वैज्ञानिक रूप से स्वीकार करना और जीवन के इस खास समय से जुड़ीं समस्याओं के लिए एक स्पष्ट व विशिष्ट तरह का समाधान खोजना था। उस समय, इस तरह के डिप्रेशन की प्रकृति पर जोर दिया जाता था, क्योंकि यह सामान्य डिप्रेशन से अलग और थोड़ा चिंताजनक लक्षणों वाला था।

लोग सोचते थे कि इसकी खास बात बस इसके लक्षण हैं, और असली मुश्किल इसे पहचानना थी, इलाज करना नहीं। हाल ही में ‘न्यूरोसाइकियेट्री डे ल'एनफेंस एट डे ल'अडलसेंस’ नामक पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में, हमने बाल मनोचिकित्सक रोमैं दुग्राविए के साथ मिलकर सुझाव दिया कि पोस्ट-पार्टम डिप्रेशन के बजाय इसे “पेरिनैटल रिलेशनल डिस्ट्रेस” कहा जाए।

इसे सब वैज्ञानिकों ने स्वीकार नहीं किया, लेकिन हमारे तरीके में सिर्फ बीमारी पर गौर करने की नहीं, बल्कि माता-पिता बनने की मुश्किलों को समझने की कोशिश की गई है। माता-पिता बनना मतलब, पूरी तरह आप पर निर्भर बच्चे की जरूरतें पूरी करना और साथ ही अपने भावनात्मक, वैवाहिक व सामाजिक जीवन को फिर से व्यवस्थित करना है।

कई लोगों के लिए यह अनुभव जीवन बदल देने वाला होता है। लेकिन कई के लिए यह पुराने जख्म याद दिला सकता है—जैसे भावनात्मक संपर्क की कमी, अकेलापन या अस्वीकृति के अनुभव। ऐसे में बच्चे का आगमन छुपी हुई कमजोरियों को फिर से जगा सकता है और जीवन में अव्यवस्था ला सकता है। मान लीजिए एक महिला पहली बार मां बनी है।

इस दौरान वह थकान से ज्यादा फंस जाने का एहसास करती है: जो हमेशा खुद को स्वतंत्र और “किसी पर निर्भर नहीं” मानती थी, अब अचानक एक ऐसे बच्चे की देखरेख करती है जो पूरी तरह उस पर निर्भर है। इससे महिला की बचपन की यादें ताजा हो जाती हैं, जब उसे खुद का ख्याल रखना पड़ता था।

एंटीडिप्रेशन दवाइयां, जो अक्सर इस निदान के बाद दी जाती हैं, इस परेशानी का असली कारण नहीं ठीक करतीं। इसके बजाय, ऐसी स्थिति में कमजोरियों को समझने की जरूरत होती है ताकि बच्चे के साथ संबंधों पर ध्यान दिया जाए। ऐसी स्थिति में लोगों का ध्यान केवल लक्षणों पर टिक जाता है और अकेलापन, परिवार में संघर्ष या बच्चे के साथ संबंध बनाने में परेशानियां नजरअंदाज हो जाती हैं।

जब रिश्ते को सिर्फ मानसिक रोग की तरह देखा जाता है, तो दवाओं के बिना इस समस्या से निजात पाना मुश्किल हो जाता है। हमारे लेख में बताया गया है कि बच्चे की निर्भरता और माता-पिता की स्वतंत्रता के बीच एक तनाव होता है। स्वतंत्रता हमेशा पूरी आजादी नहीं होती; यह बचपन में सीखी गई सुरक्षा की आदत भी हो सकती है।

माता-पिता बनने पर बच्चे की पूरी निर्भरता का सामना करना पड़ता है, जो उन लोगों के लिए उलझन भरा हो सकता है जो कभी किसी पर निर्भर नहीं रहे। पोस्ट-पार्टम डिप्रेशन को “पेरिनैटल रिलेशनल डिस्ट्रेस” कहना सिर्फ शब्दों का फर्क नहीं है। इसका मतलब है कि माता-पिता बनने को सिर्फ बीमारी के रूप में न हीं देखें, बल्कि इसे एक सामान्य और बदलता अनुभव समझें।

यह पीड़ा को नकारने या इलाज को टालने के बारे में नहीं है। मानसिक स्वास्थ्य का काम सिर्फ जांच और दवा नहीं, बल्कि समझना और साथ देना भी है। सरल शब्दों में, अब हमें सिर्फ पोस्ट-पार्टम डिप्रेशन के लक्षणों पर नहीं, बल्कि माता-पिता और बच्चे के रिश्ते पर ध्यान देना चाहिए। देखभाल परिवारों के लिए होनी चाहिए, सिर्फ बीमारी के लेबल के लिए नहीं।

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