अक्षय कुमार की 'केसरी' की ये है असली कहानी, पढ़कर आप भी थिएटर में जानें को हो जाएंगे मजबूर
By ऐश्वर्य अवस्थी | Published: March 18, 2019 12:18 PM2019-03-18T12:18:22+5:302019-03-18T12:18:22+5:30
अक्षय इस बार फिल्म केसरी के जरिए फैंस के रुबरु होने को तैयार हैं। ये फिल्म भारतीयों की शौर्यगाथा को पेश करती है।
बॉलीवुड स्टार अक्षय कुमार एक बार फिर से पर्दे पर धमाल मचाने को तैयार हैं। अक्षय इस बार फिल्म केसरी के जरिए फैंस के रुबरु होने को तैयार हैं। ये फिल्म भारतीयों की शौर्यगाथा को पेश करती है। सारागढ़ी की गाथा के बारे में हम भारतियों ने थोड़ा बहुत सुना है लेकिन अब ये फिल्म हम सभी को पूरी असलियत से रुबरु करवाएगी। केसरी 21 मार्च को पर्दे पर रिलीज हो रही है। फिल्म की रिलीज से पहले हम आपको बताते हैं ये फिल्म क्यों खास है और इसमें सारागढ़ी की जंग को किस रूप में पेश किया गया है जो फैंस को थिएटर में ले जाने का काम करेगा-
सारागढ़ी की खास बातें
सारागढ़ी की लड़ाई को यूनेस्को ने दुनिया की 5 सबसे महान लड़ाइयों में एक मानी जाती है। इस युद्ध नें 21 सिखों ने दुश्मनों से युद्ध करके उनके छक्के छुड़ा दिए थे। ये युद्ध 21 सिख और 10,000 अफगानी कबिलाइयों के बीच हुआ था जो आज तक याद किया जाता है।
पाकिस्तान का है हिस्सा
जिस सारागढ़ी में 21 सिखों ने इतिहास रचा था वह आज भारत का हिस्सा नहीं है। कहते हैं कि हिदंकुश पर्वत माला पर स्थित एक छोटा सा गांव सारागढ़ी है। बटंवारे के बाद पाकिस्तान का हिस्सा बन गया है।
कब्जे की लड़ाई
21 सिखों ने अफगानियों के खिलाफ कब्जे को लेकर ये लड़ाई की थी। दरअसल इस जगह पर कब्जे के लिए अफगानों और अंग्रेजों के बीच अक्सर लड़ाई होती रहती थी। जिस किले को लेकर ये युद्ध हुआ उसको महाराजा रणजीत सिंह ने बनवाया था। 12 सितंबर को अफगानियों ने भारी संख्या में इस किले पर हमला बोल दिया था।
12 सितंबर 1897 को हुई थी जंग
कब्जे के लिए अफगानियों ने 1897 में एक गठजोड़ किया और 11 सितंबर 1897 को किले पर कब्जे की कोशिश की थी। लेकिन 21 सिख तो पहले से वहां मौजूद थे जिन्होंने इसको नाकामयाब कर दिया था। लेकिन बैखलाए10,000 अफगानियों ने 21 सितंबर को फिर से हमला किया किले पर सेना की 36वीं रेजिमेंट के 21 सिख तैनात थे। लेकिन उन्हें एक बार फिर मुंह की खानी पड़ी थी। इस पर हमले की शुरुआत होते ही सिग्नल गुरुमुख सिंह ने लेफ्टिनेंट कर्नल जॉन हॉप्टन को यहां कि स्थिति के बारे में बताया उन्होंने तुरंत किला छोड़ बचके जाने को कहा। लेकिन सिख पठानों ने पीठ दिखाकर भागने के बजाए अफगानियों का डटकर का सामना करने का फैसला किया था और अंग्रेज अधिकारियों के हुक्म का पालन नहीं किया। कहा जाता है कि किले को घेरने के लिए अफगानियों ने कड़ी तैयारी की हुई थी और यहां से किसी के बच के निकलना संभव नहीं था।
बहादुरी की गाथा
ये उन 21 सिखों की बहादुरी की गाथा है जिन्होंने 10,000 अफगानियों के आगे आत्मसमपर्ण नहीं किया और उनका डटकर सामना किया। कहते हैं कि जब सिख डटे रहे और जब पठान गुरमुख सिंह पर काबू न पा सके तो उन्होंने किले में आग लगा दी और गुरमुख सिंह जिंदा ही आग में जलकर शहीद हो गए। कहा जाता है कि इस किले में 21 सैनिकों के अलावा एक रसोइया भी था और उसने भी जंग में सिखों के कंधे से कंधा मिलाकर कई अफगानियों को मौत के घाट उतार दिया था। लास्ट में भी इस जंग में शहीद हो गया था।
जीतकर भी मिली हार
जिस तरह से 21 सिखों ने अफगानियों को धूल चटवाई उससे वह जंग जीत कर भी हार गए थे । इस जंग के बाद इन सिखों की बहादुरी पूरी दुनिया के सामने आ सकी थी। अंग्रेजों को 10,000 से ज्यादा अफगानियों की लाश मौके से मिली थी। मरणोपरांत सभी 21 सिख शहीदों को इंडियन ऑर्डर ऑफ मैरिट दिया गया था। जो आज परमवीर चक्र के बराबर है। लड़ाई के बाद अंग्रेजों ने अमृतसर, फिरोजपुर और वजीरिस्तान में तीन गुरुद्वारे बनवाए थे।आज भी हर साल 12 सितंबर को सारागढ़ी दिवस के रुप में मनाता है।