राजेश बादल का ब्लॉग: संसार की शिखर संस्थाओं पर साख का संकट

By राजेश बादल | Published: February 4, 2020 04:00 PM2020-02-04T16:00:37+5:302020-02-04T16:00:37+5:30

ताजा उदाहरण यूरोपीय यूनियन का है, जो अब सदस्यों की चिंता छोड़कर एशियाई देशों की चिंता में दुबली हो रही है. संगठन के मूल चरित्न में कुछ साल से धीरे-धीरे बदलाव आ रहा था. ब्रिटेन जैसे 47 साल पुराने सदस्य के यूनियन से बाहर होने के कारणों में एक यह भी माना जा रहा है.

Rajesh Badal's blog: Goodwill crisis at the top institutions of the world | राजेश बादल का ब्लॉग: संसार की शिखर संस्थाओं पर साख का संकट

राजेश बादल का ब्लॉग: संसार की शिखर संस्थाओं पर साख का संकट

दुनिया भर को अपने ढंग से संचालित करने वाली संस्थाएं बदल रही हैं. वे अपना चरित्न खो रही हैं. जिन उद्देश्यों को लेकर उनका गठन हुआ था, उस पर काम न करते हुए अब कूटनीतिक और राजनयिक रिश्तों से संचालित होती दिखाई दे रही हैं. सैद्धांतिक आधार छोड़ने का नुकसान सदस्य देशों को ही नहीं, बल्कि समूचे संसार को है. खासतौर पर उन देशों को जो किसी बड़े गुट का पिछलग्गू नहीं बनना चाहते और स्वतंत्न हैसियत बनाए रखना चाहते हैं.

ताजा उदाहरण यूरोपीय यूनियन का है, जो अब सदस्यों की चिंता छोड़कर एशियाई देशों की चिंता में दुबली हो रही है. संगठन के मूल चरित्न में कुछ साल से धीरे-धीरे बदलाव आ रहा था. ब्रिटेन जैसे 47 साल पुराने सदस्य के यूनियन से बाहर होने के कारणों में एक यह भी माना जा रहा है.

यूनियन ने हाल ही में अपनी सीमा से बाहर जाकर भारत के नागरिकता संशोधन कानून, अनुच्छेद 370 और कश्मीर पर चर्चा का निर्णय लिया तो कई सदस्य देशों को ताज्जुब हुआ. भले ही उसने मतदान मार्च तक के लिए टाल दिया, मगर कहने में कोई हिचक नहीं कि वह शरणार्थी समस्या को समग्र नजरिए से नहीं देख रही है. यह यूनियन सदस्य देशों की भलाई के लिए बनाई गई थी न कि संयुक्त राष्ट्र के समानांतर संगठन की तरह व्यवहार करने के लिए.

इस संघ के अधिवक्ताओं को अपने संविधान के पन्ने पलट कर देखने की जरूरत है कि कैसे 1957 की रोम संधि के जरिए सिर्फ कारोबार की खातिर इसका गठन हुआ था. उसके बाद 1993 की मास्ट्रिख संधि भी एकल खिड़की से सदस्यों के बीच व्यापार को बढ़ावा देती थी. जब 2007 में लिस्बन समझौता हुआ तो उसमें भी सदस्यों के अलावा किसी की चिंता करने की इबारत नहीं लिखी गई थी. इससे पहले साझी मुद्रा यूरो से लेकर अनेक साझा नीतियों विदेश, रक्षा और न्याय को स्वीकार किया गया.

इनका आधार कारोबार और यूरोपीय सदस्य देशों की चिंता करना था. दूर एशिया में बसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्न के आंतरिक मामलों में टांग अड़ाने का कोई संकल्प रिकॉर्ड में नहीं है. आज तक यह संस्था यूरोप के बाहर दखल देने नहीं गई है. अगर उसे भारत की इतनी ही चिंता है तो पाक के भीतर मानव अधिकारों को पोसने और आतंकवाद मिटाने की नीति पर भी विचार करना चाहिए, जो इस प्रस्ताव के पर्दे के पीछे है.

अंतर्राष्ट्रीय समझौतों, संधियों और मान्य सिद्धांतों का भी यह यूनियन मखौल उड़ाना चाहती है, जो प्रत्येक देश की संप्रभुता की रक्षा करती है और अपने आंतरिक मामलों में निर्णय की आजादी देती है. जाहिर है यूरोपीय यूनियन किसी दबाव में अपना काम छोड़ कर भारत की चिंता में घुलती दिख रही है.

इसी तरह एक फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स है. करीब 31 साल पुरानी इस संस्था में 37 देश हैं. मुख्यालय पेरिस में है. इसका गठन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनीलॉन्ड्रिंग और आतंकवाद का वित्त पोषण करने वालों पर लगाम लगाने के लिए हुआ है. भारत भी इसमें है. पाकिस्तान नहीं है. अनेक दशक से पाकिस्तान आतंकवाद को संरक्षण दे रहा है.

एफएटीएफ ने दस बरस में इसके सबूत जुटाए हैं. इस कारण 2012 से 2015 के बीच पाकिस्तान को ग्रे लिस्ट में डाल दिया गया. इसके बाद 2018 से फिर ग्रे सूची में रखा गया है. कई चेतावनियों के बाद भी उसके रवैये में सुधार नहीं आया. हालांकि इस नीति से उसकी आर्थिक शक्ल बदरंग हो चुकी है. पर वह नीति छोड़ने के लिए तैयार नहीं है. अब इस टास्क फोर्स की गाड़ी पटरी से उतर रही है.

पाकिस्तान को ब्लैकलिस्ट करने से यह बच रहा है. पर्दे के पीछे कारण यह है कि इन दिनों संगठन का मुखिया चीन है. वह पाकिस्तान का खुला समर्थक है. लेकिन अब इस मंच का दुरुपयोग भी वह अपने देश की विदेश नीति के आधार पर कर रहा है. मलेशिया और तुर्की जैसे देश भी इस मामले में चीन के साथ हैं. उनके इस रुख की एशिया पैसिफिक ग्रुप ने आलोचना की थी और पाकिस्तान को ब्लैकलिस्ट करने का समर्थन किया था. लेकिन नतीजा नहीं निकला. चीन की अध्यक्षता जून में समाप्त हो जाएगी. देखना होगा कि नया अध्यक्ष न्याय करता है या नहीं. 

संयुक्त राष्ट्र संसार भर के देशों की सर्वोच्च पंचायत है. मगर यह संस्था भी बदल रही है. भारत ने अनेक अवसरों पर इस संस्था के कामकाज की शैली और नियमों में व्यापक बदलाव पर जोर दिया है. कुछ देश अपनी विदेश नीति और हितों की खातिर इस मंच का दुरुपयोग कर रहे हैं. इनमें चीन भी है. अमेरिका भी चौधरी की तरह इस संस्था को अपने रिमोट से चलाना चाहता है. उसके रवैये के कारण संयुक्त राष्ट्र की माली हालत खस्ता है.

इस शिखर पंचायत के सामने नकदी संकट है. अमेरिका पर बीते दिनों एक अरब डॉलर बकाया थे. स्पष्ट है कि जब ये संस्थाएं अमीर देशों के दबाव में आएंगी तो निष्पक्ष नहीं रह सकेंगी. समूचे विश्व के लिए यह गंभीर संदेश है. संगठन के उप सहयोगी अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्वबैंक भी अपने ढंग से दबाव का सामना कर रहे हैं. उन पर विकसित व धनी देशों का कब्जा है.

मुद्राकोष जहां निर्धन और विकसित देशों की मदद के लिए बनाया गया था, वहीं विश्वबैंक सिर्फ विकासशील देशों की खातिर काम करता रहा है. मगर अब ये संगठन इन बड़े देशों की मार ङोल रहे हैं. इन पर अमेरिकी प्रभुत्व है. उनके मुखिया या तो अमेरिकी होते हैं अथवा उनके दबाव में काम करते हैं. ऐसे में उन्हें अपने देश के हितों का भी ध्यान रखना होता है. यह स्थिति कभी इन बड़ी संस्थाओं को निष्पक्ष नहीं रहने देती.

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