रहीस सिंह का ब्लॉगः ब्राजील में अमेरिका की पुनरावृत्ति क्यों ?
By रहीस सिंह | Published: January 13, 2023 09:21 AM2023-01-13T09:21:49+5:302023-01-13T09:22:32+5:30
प्रथमदृष्टया तो यह लूला दा सिल्वा की ब्रासीलिया में हैरतअंगेज वापसी और बोलसोनारो की उम्मीदों के विपरीत पराजय इसका तात्कालिक कारण हो सकती है। लेकिन इसके अन्य आयामों को जानने के लिए तो ब्राजील के अंदर झांक कर देखना होगा।

रहीस सिंह का ब्लॉगः ब्राजील में अमेरिका की पुनरावृत्ति क्यों ?
ब्रासीलिया (ब्राजील की राजधानी) में बाते दिनों जो हुआ वह अब लोकतंत्र की नई परंपरा सी बनती हुई दिख रही है। भले ही इसे अमेरिका के कैपिटल हिल की एक प्रतिकृति या पुनरावृत्ति मानकर विषय की तीव्रता कम कर दी जाए अथवा बोल्सोनोरो-ट्रम्प बाॅन्डिंग के आधार पर इसे डोनाल्ड ट्रम्प की ओर धकेल दिया जाए लेकिन यह ठीक नहीं है। ऐसी घटनाएं देश की राजनीति में आ रही विकृति, राष्ट्रीय नेतृत्व की महत्वाकांक्षाओं और लोकतांत्रिक संस्थाओं की कमजोरी से जन्म लेती हैं। ब्राजील के संदर्भ में ये तीनों ही कारक जिम्मेदार हैं या फिर सिर्फ कोई एक, यह कहना मुश्किल होगा। फिर भी यह सवाल तो उठता ही है कि आखिर वह वजह कौन सी थी जिसके कारण बोल्सोनारो ने स्वस्थ लोकतांत्रिक राजनीति का परिचय देते हुए लूला दा सिल्वा के शपथ ग्रहण में शामिल होना उचित नहीं समझा? लूला दा सिल्वा के शपथ लेने से पहले ही उन्हें अमेरिका जाकर ऑरलैंडो में अस्थायी निवास बनाना क्यों पड़ गया? उनके सांसद पुत्र एडुआर्डो बोल्सोनारो अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के साथ बैठक आखिर किस रणनीति के तहत कर रहे थे? क्या ‘ट्रम्पियन मॉडल ऑफ डेमोक्रेसी’ के लिए, जिसकी झलक जनवरी 2020 में पूरी दुनिया प्रतीकात्मक रूप में ही सही पर अमेरिकी शक्ति की विच्छिन्नता के रूप में देख चुकी है? यदि ऐसा है तो वे जिस बोल्सोनारोवाद की कल्पना कर रहे थे वह परिणामविहीन ही रहना था क्योंकि कैपिटल हिल घटना के परिणाम ट्रम्प के अनुरूप नहीं आए थे। फिर ब्रासीलिया में कोई नई उम्मीद कैसे की जा सकती थी?
इसमें कोई संदेह नहीं कि अक्तूबर 2022 में ब्राजील में राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव में बोल्सोनारो की हार हुई और लूला दा सिल्वा की बहुत ही सूक्ष्म अंतर से विजय। लेकिन सत्य तो यह है कि चुनाव में विजय और पराजय के बीच अंतर चाहे जितना भी कम हो, हार हार होती है और जीत जीत। इसे लेकर आरोप-प्रत्यारोप भी लगाए जाते हैं लेकिन सत्ता का हस्तांतरण शांतिपूर्ण ढंग से संविधान की भावनाओं के अनुरूप हो जाता है। लेकिन यह बात बोलसोनारो को समझ में नहीं आई। यही वजह है कि पहले उन्होंने पद छोड़ने में काफी समय लगाया और जब छोड़ा भी तो उनके समर्थकों ने लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हमले की योजना बना ली। बोल्सोनारो अपना हाथ होने से भले ही इंकार कर रहे हों लेकिन उनकी सहमति अथवा निर्देश के बिना यह संभव ही नहीं था। ध्यान रहे कि बीच में कुछ समय के लिए ऐसा भी लगने लगा था कि वे पद छोड़ने से इंकार कर सकते हैं। उनके समर्थकों में ऐसी हलचल भी काफी समय तक रही। उनके समर्थकों ने तो सेना से दखल की मांग भी शुरू कर दी थी लेकिन ब्राजील के सुप्रीम कोर्ट ने राजधानी ब्रासीलिया की सुरक्षा बढ़ाई और एहतियातन गन लेकर चलने पर प्रतिबंध लगा। ऐसा शपथ ग्रहण के दौरान हिंसा और उपद्रव जैसी स्थितियों को रोकने के लिहाज से किया गया था। फिर भी ऐसा हुआ। आखिर क्यों?
प्रथमदृष्टया तो यह लूला दा सिल्वा की ब्रासीलिया में हैरतअंगेज वापसी और बोलसोनारो की उम्मीदों के विपरीत पराजय इसका तात्कालिक कारण हो सकती है। लेकिन इसके अन्य आयामों को जानने के लिए तो ब्राजील के अंदर झांक कर देखना होगा।
दुनिया में रहने वाले अधिकतर लोग अपने-अपने देश की तरक्की चाहते हैं लेकिन इस तरक्की में वे अपनी हिस्सेदारी भी चाहते हैं। वे भी चाहते हैं देश की उन्नति का थोड़ा सा हिस्सा उनकी जेब में भी जाए और उनका भविष्य भी सुरक्षित दिखे। ब्राजीलियन मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि पिछले कुछ वर्षों में ब्राजील इस तरह के विकास से भटक गया। बोल्सोनारो ने ब्राजील को जिस ट्रैक पर चलाना चाहा उसमें लोगों का भला संभव नहीं हो सका। जब दुनिया वैश्वीकरण के दरवाजे पर खड़ी थी, उस समय लातिन अमेरिकी देशों में पूंजीवादी वर्चस्व के खिलाफ तीव्र प्रतिक्रिया हुई थी। हालांकि ब्राजील उस तरह के प्रतिरोधों से बचा रहा था जिनसे होकर बोलीविया, पेरू, इक्वाडोर, ग्वाटेमाला और मैक्सिको जैसे देश गुजरे थे। इन जनआंदोलनों ने कोलंबिया, वेनेजुएला और ग्वाटेमाला में एक बड़ा परिवर्तन लाने में सफलता भी प्राप्त की थी। इन्हीं आंदोलनों के बीच ब्रासीलिया से युवाओं की एक आवाज आई थी- ‘‘लोग इस देश की व्यवस्था से इतने नाराज हैं, इतने उकता गए हैं कि अब बदलाव चाहते हैं।’’ बोल्सोनारो को ऐसी अभिव्यक्तियों का आकलन करना चाहिए था लेकिन उनकी कुछ वैचारिकी विशिष्टताओं ने उन्हें इस तक पहुंचने ही नहीं दिया। परिणाम यह हुआ कि ब्राजील राजनीतिक आधार पर कई अंतर्विभाजनों से गुजरने लगा। उसका विकास सुस्त पड़ा, मुद्रास्फीति तेज हुई और लोग मूल्य वृद्धि के कारण अनिवार्य कर देने के लिए विवश हुए। बहरहाल ब्राजील इस समय सही अर्थों में लोकतांत्रिक मूल्य और सत्ता की महत्वाकांक्षाओं के बीच टकराव से गुजर रहा है। अच्छी बात है कि ब्राजील दक्षिण अमेरिका की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और दुनिया के सर्वाधिक पोटेंशियल वाले मंच ब्रिक्स का सदस्य है जो ब्राजील को आगे ले जाने में मदद करता रहेगा। लेकिन 21वीं सदी में जहां औद्योगीकरण की फोर्थ जनरेशन एक नई पटकथा लिखने के लिए तैयार हो और जहां विश्वव्यवस्था संक्रमण से बाहर आने की कोशिश में हो अथवा नई बुनियाद रखने की कशमकश से गुजर रही हो, वहां ऐसी घटनाएं किसी भी देश को बहुत पीछे ले जाकर खड़ा कर देती हैं। ब्राजील के नेताओं को इस पर विचार करना चाहिए।