रहीस सिंह का ब्लॉग: अपने ही लोगों की विविधता को मिटा रहा चीन

By रहीस सिंह | Published: May 12, 2021 03:00 PM2021-05-12T15:00:06+5:302021-05-12T15:01:45+5:30

चीन अपने देश के विभिन्न हिस्सों में प्रचलित परंपराओं और वैचारिक स्वतंत्रताओं का हनन करने में संकोच नहीं करता तो फिर दूसरे देशों की पहचान मिटाने की कोशिश में कोई संकोच कैसे कर सकता है.

Rahees Singh blog about China erasing the diversity of its own people | रहीस सिंह का ब्लॉग: अपने ही लोगों की विविधता को मिटा रहा चीन

(फाइल फोटो)

कभी-कभी विचार आता है कि यदि चीन वैश्विक महाशक्ति बन जाए तो क्या होगा? क्या वह दुनिया के उदारवाद, लोकतंत्र और बहुलतावाद को खत्म करने की कोशिश करेगा? क्या वह दुनिया को चीनी उपनिवेशवाद में तब्दील करने की कोशिश करेगा? हालांकि भविष्य के लिए इस प्रकार के पूर्वानुमान अर्द्धसत्य जैसे ही होते हैं इसलिए स्पष्ट उत्तर नहीं दिया जा सकता. लेकिन यह सच है कि चीन इतना क्रूर और तानाशाह देश है कि यदि वह और अधिक शक्ति अर्जित करने में कामयाब हो जाता है तो ऐसे कदम उठाने में परहेज नहीं करेगा. 

गौर से देखें तो चीनी शासक अपने ही देश के हिस्सों और अपने ही समुदायों की स्वायत्तता को खत्म कर रहे हैं. उनका एक ही सूत्र वाक्य है कि अन्य परंपराओं व नियमों को सोशलिज्म विद् चाइनीज कैरेक्टरिस्टिक्स द्वारा आच्छादित कर देना. इससे लोगों के मौलिक विचार, सामाजिक-सांस्कृतिक बहुलता और मूल्य समाप्त हो जाएंगे. यानी स्वतंत्रता की समाप्ति. यह पैटर्न 17वीं-18वीं शताब्दी के यूरोपीय उपनिवेशवाद से भी खतरनाक है. क्या इस पर वैश्विक बहस नहीं होनी चाहिए?

गौर से देखें तो चीन ने पिछले लगभग सात दशकों में तिब्बत को इसी पैटर्न पर परिवर्तित किया. आज का तिब्बत 1950 के दशक का तिब्बत नहीं है. चीन ने बेहद युक्ति-युक्त ढंग से तिब्बत की मौलिक सांस्कृतिक व आध्यात्मिक व्यवस्था को समाप्त कर दिया जिससे तिब्बत सही अर्थों में अपना अर्थ खो बैठा. अब वह हांगकांग में भी इसे ही दोहराना चाहता है ताकि उसके मौलिक चरित्र और मूल्यों को खत्म किया जा सके. 

ऐसे में एक बात समझ में नहीं आती कि साम्यवादी चीन और उसके शासकों को डरपोक माना जाए या साहसी? क्या चीन वास्तव में अपने चरित्र और व्यवस्था को लेकर हमेशा डरा रहता है? इस संदर्भ में बिना गहरी पड़ताल के किसी निष्कर्ष पर तो नहीं पहुंचा जा सकता. यदि चीन डरपोक नहीं है तो वह तिब्बत या हांगकांग अथवा कोई अन्य हिस्सा हो, चीन उसके मौलिक चरित्र यानी बहुलतावाद, स्वतंत्र राजनीतिक व सांस्कृतिक चिंतन तथा परंपराओं से डरता क्यों है? 

इसके साथ ही एक सवाल यह भी है कि हांगकांग के मामले में अब जब चीन 1997 की शर्तों का अनुपालन नहीं कर रहा है जिसके मुताबिक हांगकांग 2047 तक अपने मौलिक स्वरूप को बनाए रख सकता है तो मतलब यह हुआ चीन अंतरराष्ट्रीय नियमों, संधियों और प्रोटोकॉल्स को अपने हिसाब से मानता और छोड़ता है. इस स्थिति में चीन या तो अराजकतावादी कहा जाएगा अथवा तानाशाह. लेकिन इसे देखते हुए अंतरराष्ट्रीय समुदाय की तरफ से कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं होती? संयुक्त राष्ट्र कहां है? अंतरराष्ट्रीय समुदाय और संस्थाओं के इस व्यवहार को देखकर तो कोई भी इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है कि वे चीन द्वारा आच्छादित हो चुके हैं. यह खतरनाक स्थिति है.

बहरहाल, इस समय हांगकांग में चीन उसके मौलिक स्वरूप को समाप्त करने की रणनीति पर तेजी से काम कर रहा है. वह अब ‘एक देश-दो व्यवस्था’ (वन कंट्री-टू सिस्टम) ही स्थिति में नहीं रहना चाहता बल्कि एक देश-एक व्यवस्था को स्थापित करना चाहता है. ध्यान रहे कि 1997 में ब्रिटेन ने हांगकांग को चीन को हस्तांतरित करते समय यह गारंटी हासिल की थी कि चीन ‘वन कंट्री-टू सिस्टम’ के तहत कम से कम 2047 तक लोगों की स्वतंत्रता और अपनी कानूनी स्थिति को बनाए रखेगा. हालांकि चीनी हरकतों के खिलाफ 2014 में हांगकांग के लोकतंत्रवादियों ने ‘अंब्रेला मूवमेंट’ चलाया था जो 79 दिनों तक चला था.
 
इसके बाद हांगकांग में लगातार लोकतंत्रवादी आंदोलनरत हैं. बीजिंग का तानाशाह इससे भयभीत दिख रहा है. इस डर के कारण ही बीजिंग हांगकांग को ऐसा कोई अवसर प्रदान करना नहीं चाहता जिससे हांगकांग को स्वतंत्र होने का एहसास हो सके चीन इस दिशा में काफी हद तक सफल भी है क्योंकि हांगकांग में जो एक्जीक्यूटिव सिस्टम है, वह बीजिंग के प्रति जवाबदेह है, न कि हांगकांग की जनता के प्रति. हांगकांग के एक्जीक्यूटिव सिस्टम को हांगकांग के समाज में कुछ बुनियादी और गहरी समस्याएं दिखती हैं जिन्हें वह सोशलिज्म विद चाइनीज कैरेक्टरिस्टिक्स के जरिए दूर करना चाहता है.

चीन एक ऐसा देश और उसके वर्तमान राष्ट्रपति शी जिनपिंग एक ऐसे शासक हैं जो असीमित महत्वाकांक्षाओं के साथ आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन एक डर के साथ. इसलिए वे न तो उदार मूल्यों वाली व्यवस्था पर भरोसा करते हैं, न ही उदार मूल्यों वाले देश पर. यही कारण है कि वे उदारवादी विश्ववादी व्यवस्था के युग में, जिसे आगे बढ़ाने का कार्य अर्थव्यवस्था कर रही है, उसमें सैन्य और सुरक्षा को अधिक महत्व देना चाहते हैं. यान चीनी इस मंत्र पर चलता है कि अकेले अर्थव्यवस्था फायदेमंद नहीं है बल्कि सुरक्षा कहीं ज्यादा जरूरी है.

Web Title: Rahees Singh blog about China erasing the diversity of its own people

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