मालदीव के बाद श्रीलंका में भी चीन को झटका
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: December 18, 2018 04:39 AM2018-12-18T04:39:38+5:302018-12-18T04:39:38+5:30
चीन को एक और बड़ा झटका लगा है. श्रीलंका में उसके चहेते महिंदा राजपक्षे को आखिरकार हटना पड़ा
(राजेश बादल)
चीन को एक और बड़ा झटका लगा है. श्रीलंका में उसके चहेते महिंदा राजपक्षे को आखिरकार हटना पड़ा. राष्ट्रपति की मेहरबानी से वे जबरन प्रधानमंत्नी बन बैठे थे. दो बार संसद में विश्वास मत हारे. हाईकोर्ट में हारे. अंतत: सुप्रीम कोर्ट ने भी राष्ट्रपति के फैसले को असंवैधानिक माना.
क्या ही विचित्न दृश्य दिखाई दे रहा है. जो कभी प्रधानमंत्नी नहीं था, वह इस्तीफा देने का नाटक कर रहा है और जो प्रधानमंत्नी पद से हटा ही नहीं था, वह अब उसी पद की फिर शपथ ले चुका है. इस पर हिंदी की यह कहावत सटीक बैठती है कि राष्ट्रपति मैत्नीपाला श्रीसेना को थूक कर चाटना पड़ा. शुक्रवार को उन्होंने गरजते हुए ऐलान किया था कि वे रानिल विक्रमसिंघे को कभी प्रधानमंत्नी नहीं बनाएंगे. अब वही रानिल विक्रमसिंघे डंके की चोट पर मुल्क के प्रधानमंत्नी हैं तो सवाल और सबक क्या हैं? सवाल यह भी है कि राष्ट्रपति ने ऐसा क्यों किया? एक निर्वाचित प्रधानमंत्नी को रातोंरात बर्खास्त करके उसके स्थान पर ऐसे शख्स को क्यों लाए, जो देश का राष्ट्रपति रह चुका हो और खुद उनका प्रतिद्वंद्वी रहा हो. इतना ही नहीं संविधान के संरक्षण की जिम्मेदारी संभालते हुए उन्होंने वह कदम क्यों उठाया, जिसका अधिकार उन्हें संविधान से नहीं मिला है.
इसका उत्तर किसी रहस्य के पर्दे में नहीं है. राष्ट्रपति या तो किसी दबाव में थे या कोई लालच था अथवा दोनों ही कारण थे. संक्षेप में कहानी दोहराता हूं. कुछ बरस पहले राजपक्षे और श्रीसेना एक ही पार्टी में थे. जब महिंदा राजपक्षे ने लिट्टे का सफाया किया, तब वे चीन की गोद में जाकर बैठ गए. उन्हें लगता था कि लिट्टे की जड़ें तमिलनाडु में हैं इसलिए भारत समर्थन नहीं देगा. आंशिक तौर पर बात सच थी. चीन की मदद से लिट्टे का सफाया हुआ तो दक्षिणा में चीन ने श्रीलंका का अंगूठा मांग लिया. राजपक्षे ने हंबनटोटा बंदरगाह चीन को सौंप दिया. ठीक उसी तर्ज पर जैसे पाकिस्तान ने बलूचिस्तान में ग्वादर बंदरगाह चीन को समर्पित कर दिया था. इसके अलावा महिंदा राजपक्षे जब अगला चुनाव लड़े तो कहा जाता है कि चीन ने उनका पूरा चुनाव खर्च उठाया.
लेकिन राजपक्षे हार गए और कभी उनके सहयोगी रहे मैत्नीपाला श्रीसेना राष्ट्रपति बन बैठे. तब तक श्रीसेना की छवि भारत समर्थक मानी जाती थी. उन्होंने भारत समर्थक रानिल विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्नी नियुक्त किया. चंद रोज बाद सियासी समीकरण बदले. चीन के दबाव में श्रीसेना महिंदा राजपक्षे से दोस्ती की पुरानी डगर पर चल पड़े. उन्होंने रानिल को प्रधानमंत्नी पद से हटा दिया. कुछ बरस पहले ही श्रीसेना ने प्रधानमंत्नी को बर्खास्त करने का अपना अधिकार बाकायदा संविधान संशोधन करके लौटा दिया था. इस नाते चुने हुए प्रधानमंत्नी को हटाना असंवैधानिक था. श्रीसेना और राजपक्षे दोनों के लिए यह गंभीर सदमा था.
सबक चीन के लिए है. मालदीव में भी उसने लोकतांत्रिक ढांचे में दखल देने की कोशिश की. उसमें भी उसे मुंह की खानी पड़ी. अब श्रीलंका में भी उसे बड़ा झटका लगा है. अपने आर्थिक विस्तार की जल्दबाजी में चीन जिस तरह खिलवाड़ कर रहा है, वह अब छोटे देश समझने लगे हैं. वे चीन की चालों से दूर रहना चाहते हैं और भारत के साथ भरोसेमंद रिश्ते कायम करना चाहते हैं. अफसोस यह है कि भारतीय विदेश नीति को इन दिनों लकवा लग चुका है और पास पड़ोस के घटनाक्रम से कोई पाठ सीखने की चाहत भारत के भीतर नहीं दिखाई दे रही है. वर्तमान प्रधानमंत्नी बार-बार चीन जा रहे हैं, अनौपचारिक चर्चाएं कर रहे हैं मगर चीन के रवैये में कोई सुधार नहीं दिख रहा है. यह इस बात का भी संकेत है कि भारत के साथ चीन के संबंध बीते बरसों में कोई बहुत आगे नहीं बढ़े हैं. दूसरी ओर पाकिस्तान और चीन केवल भारत विरोध को आधार बनाकर एशिया महाद्वीप की राजनीति को अस्थिर करने के आत्मघाती रास्ते पर चल पड़े हैं. इसके दूरगामी परिणाम खतरनाक हो सकते हैं.