गीता प्रेस: संस्कार और अध्यात्म की पाठशाला

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: July 7, 2023 09:31 AM2023-07-07T09:31:30+5:302023-07-07T09:37:13+5:30

गीताप्रेस की गाथा प्रेरक और लंबी है। सौ साल पहले गीता के अनन्य उपासक जयदयाल गोयंदका ने गीता के प्रचार-प्रसार के लिए देश भर में घूम-घूम कर गीता को लोगों के मन-मस्तिष्क तथा घरों तक पहुंचाया, किंतु उन्होंने गीता की मुद्रित प्रतियों की आवश्यकता को समझा इसलिए गोयंदका जी ने कोलकाता के वणिक प्रेस (बानिक प्रेस) से गीता की 500 प्रतियां मुद्रित कराईं।

Geetapress School of Culture and Spirituality | गीता प्रेस: संस्कार और अध्यात्म की पाठशाला

गीता प्रेस: संस्कार और अध्यात्म की पाठशाला

Highlights1922 में कलकत्ता में स्थापित गोविंद भवन के तत्वावधान में गोरखपुर में गीताप्रेस ने रूपाकार ग्रहण किया।गोयंदका जी ने कोलकाता के वणिक प्रेस (बानिक प्रेस) से गीता की 500 प्रतियां मुद्रित कराईं।सत्य और धर्म को मूल लक्ष्य मानते हुए गीताप्रेस की मूल-प्रेरणा, ग्रंथ वाक्य- ‘सत्यंवद, धर्मं चर’ है।

प्रो. राम मोहन पाठकः श्रुति, स्मृति और पुराण की समृद्ध भारतीय ज्ञान परंपरा को पूरी एक सदी से, जीवंत रूप में पीढ़ियों को हस्तांतरित करती प्रकाशन संस्था गीताप्रेस को प्रतिष्ठित ‘महात्मा गांधी शांति पुरस्कार’ प्रदान कर भारत सरकार ने अपने प्रतीक्षित दायित्व का निर्वहन किया है। गीताप्रेस का इतिहास जितना गौरवशाली और उल्लेखनीय है, उतना ही इसका वर्तमान भी। इस संस्था के विगत सौ वर्षों के इतिहास और योगदान का स्मरण सम्पूर्ण समाज के लिए प्रेरणादायक है।

गीताप्रेस का मूल उद्देश्य ‘दैवीय संपदा का प्रसार’ रहा है। बिना किसी लाभ-लोभ के और संकल्प की भावना से प्रेरित-संचालित यह सौ साल पुराना संस्थान बिना किसी दान प्राप्ति के प्रयास या प्रकाशनों में किसी भी प्रकार के विज्ञापन न लेने के अपने संकल्प पर अडिग रहते हुए संकल्प-पथ पर निरंतर नया इतिहास रचने में सफल रहा है।

गीताप्रेस की छवि निरंतर ‘कृतिजीवी’ या सदैव गतिशील-क्रियाशील संस्थान के रूप में है। प्रायः देखा गया है कि प्राचीन संस्थान प्रायः कुछ वर्षों में शिथिल अथवा निष्क्रिय हो जाते हैं पर गीताप्रेस केवल ‘स्मृतिजीवी’ संस्थान के रूप में प्रतिष्ठित नहीं, इसकी जीवंत सक्रियता इसे कृतिजीवी के रूप में प्रतिष्ठित करती है। एक ‘स्मृतिजीवी’ संस्थान की ‘कृतिजीवी’ संस्थान के रूप में मिश्रित प्रतिष्ठा अनूठा उदाहरण है। यहां दोनों का अद्भुत समन्वय है।

गीताप्रेस की गाथा प्रेरक और लंबी है। सौ साल पहले गीता के अनन्य उपासक जयदयाल गोयंदका ने गीता के प्रचार-प्रसार के लिए देश भर में घूम-घूम कर गीता को लोगों के मन-मस्तिष्क तथा घरों तक पहुंचाया, किंतु उन्होंने गीता की मुद्रित प्रतियों की आवश्यकता को समझा इसलिए गोयंदका जी ने कोलकाता के वणिक प्रेस (बानिक प्रेस) से गीता की 500 प्रतियां मुद्रित कराईं। किंतु इसमें अनेक अशुद्धियों के कारण हुई चर्चाओं से प्रेरित या आहत होकर उन्होंने अपने सहयोगियों के सुझाव और प्रयास से 1923 में गीताप्रेस की स्थापना की। 1922 में कलकत्ता में स्थापित गोविंद भवन के तत्वावधान में गोरखपुर में गीताप्रेस ने रूपाकार ग्रहण किया।

सत्य और धर्म को मूल लक्ष्य मानते हुए गीताप्रेस की मूल-प्रेरणा, ग्रंथ वाक्य- ‘सत्यंवद, धर्मं चर’ है। अध्यात्म, चरित्र निर्माण और भारतीय संस्कृति के मूल्यों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए सौ वर्षों से निरंतर क्रियाशील गीताप्रेस को महात्मा गांधी शांति पुरस्कार दिए जाने के अवसर पर गीताप्रेस के लिए महात्मा गांधी के सुझाव स्मरणीय हैं। सात्विक, धार्मिक, शिष्ट, सस्ती धार्मिक पुस्तकों के प्रकाशन के गीताप्रेस के संकल्प का अनुमोदन करते हुए गांधीजी ने गीताप्रेस की पत्रिका ‘कल्याण’ की नीति के बारे में स्वयं से (महात्मा गांधी से) सुझाव मांगने पर कहा था- ‘बाहरी कोई विज्ञापन मत छापना और पुस्तकों की समीक्षा मत छापना।’ गांधीजी के ये मार्गदर्शक सिद्धांत गीताप्रेस की अमूल्य थाती हैं और आज भी इसके प्रकाशनों की अब तक प्रकाशित-वितरित 93 करोड़ पुस्तक-प्रतियों तथा 1 लाख 60 हजार प्रसार वाली प्रतिष्ठित पत्रिका ‘कल्याण’ में कोई भी विज्ञापन प्रकाशित नहीं किए गए।

यद्यपि गीताप्रेस के संकल्पवान संस्थापक जयदयाल गोयंदका थे, पर उनके बाद जब गीताप्रेस का संचालन पूर्ण रूप से ‘भाई जी’ हनुमान प्रसाद पोद्दार के हाथों में आया, तब इस संस्थान का उत्थान हुआ। पोद्दार जी ने गांधीजी के संपर्क में आकर इस संस्थान को धार्मिक, आध्यात्मिक पुनर्जागरण और स्वाधीनता संग्राम के प्रेरणाकेंद्र के रूप में विकसित किया।

धार्मिक, शिष्ट, सात्विक, सस्ती धर्म-अध्यात्म की गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तकों के साथ ही मासिक ‘कल्याण’ (1927 से अब तक) का भारतीय साहित्य में अपना स्थान है। प्रथम संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार के बाद चिम्मन लाल गोस्वामी, स्वामी रामसुख दास, मोतीलाल जालान, रामदास जालान, राधेश्याम खेमका और वर्तमान सहायक संपादक कृष्ण कुमार खेमका तक तत्वचिंतकों की विशिष्ट परंपरा ने ‘कल्याण’ को पठनीय बनाया है।

गीताप्रेस - ‘कल्याण’ की वर्तमान टीम के प्रमुख कृष्ण कुमार खेमका के अनुसार रामचरिमानस की 35 करोड़ और श्रीमद्भगवद्गीता की 16 करोड़ प्रतियां घर-घर में पहुंच चुकी हैं। गीताप्रेस के प्रकाशनों की कोविड काल में बिक्री काफी बढ़ी। 2021-22 में 77 करोड़ पुस्तकों की बिक्री हुई। लोकोपकारी, चरित्र निर्माण संबंधी पुस्तकों के प्रकाशन के साथ ही अब तक ‘कल्याण’ पत्रिका की 17 करोड़ प्रतियां पाठकों तक पहुंच चुकी हैं। देश में फैले 20 विक्रय केंद्रों तथा 250 पुस्तक विक्रेताओं के नेटवर्क को और भी फैलाने का क्रम जारी है। गीताप्रेस के प्रकाशनों की महत्वाकांक्षी ‘डिजिटल प्रकाशन योजना’ के मूर्त रूप लेने पर गीताप्रेस के उद्देश्य और भी सार्थक सिद्ध होंगे। वस्तुतः गीताप्रेस संस्कार की अद्भुत पाठशाला और चरित्र-निर्माण का विलक्षण मंदिर है।

गोरखपुर स्थित गीताप्रेस परिसर एक ‘अध्यात्म तीर्थ’ का रूप ले चुका है। सतत्-निरंतर गतिमान, प्रवहमान अध्यात्म और भारतीय ज्ञानधारा की गंगोत्री-गीताप्रेस वस्तुतः विश्व धरोहर है। ‘यूनेस्को’ से उम्मीद की जानी चाहिए कि गीताप्रेस को ‘विश्व धरोहर’ के रूप में समादर प्रदान कर इसके अनूठे योगदान के औचित्य को वैश्विक सम्मान प्रदान किया जाएगा।

Web Title: Geetapress School of Culture and Spirituality

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