Bhagwat Geeta: कालजयी श्रीमद्भगवद्गीता उस महाभारत का अंश है जिसे भारतीय चिंतन की परंपरा में इतिहास में परिगणित किया गया है. यह महान रचना इस अर्थ में विशिष्ट है कि इसके रचयिता महर्षि वेदव्यास स्वयं उन घटनाओं के साक्षी और भागीदार भी थे जिनका वर्णन उन्होंने अपनी रचना में किया था. आगे चलकर भारत की सभी मुख्य भाषाओं में यह अमर गाथा निरंतर गाई जाती रही और भारतीय सर्जनात्मक प्रतिभा द्वारा महाभारत से सामग्री को लेकर प्रचुर संख्या में उपन्यास, नाटक और काव्य रचे जाते रहे हैं. गीता की विचारधारा सदियों से देश-विदेश में मानवीय चिंतन को प्रभावित करती आ रही है.
अब तक विश्व की विभिन्न भाषाओं में गीता के तीन हज़ार से अधिक अनुवाद हो चुके हैं. गीता की व्याख्या के लिए अनेक महत्वपूर्ण भाष्य शंकराचर्य, रामानुजाचार्य, माधवाचार्य, अभिनव गुप्तपादाचार्य, संत ज्ञानेश्वर तथा स्वामी रामसुख दास आदि अनेकानेक आचार्यों और संतों ने ही नहीं लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, संत विनोबा भावे आदि अनेक राष्ट्रप्रेमी नेताओं ने भी रचे हैं.
गीता की संगीतात्मकता, उसकी लयबद्धता और विचार की विशालता ने उसके अनुवाद और पुनराख्यान के लिए प्रेरित किया. कहा गया कि गीता को अच्छी तरह गाना और गुनगुनाना चाहिए – गीता सुगीता कर्तव्या. सारे शास्त्रों को विस्तार में पढ़ने की जगह गीता को हृदयंगम करना ही पर्याप्त है. पर गीता को पढ़ें तो लगता है कि वहां सीधी रेखा में बात आगे नहीं बढ़ती है.
कुछ विचार गीता में कई अध्यायों में इतस्तत: बिखरे मिलते हैं, कुछ बार-बार अनेक स्थलों पर दुहराये गए हैं, कुछ ऐसे भी हैं जो अन्यत्र वेद तथा उपनिषद आदि में विद्यमान हैं. यदि इसमें एक ही शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं तो एक ही अर्थ के लिए कई भिन्न शब्द भी प्रयुक्त मिलते हैं. आत्मा, देही, तथा शरीर आदि शब्दों का प्रयोग इसी तरह का है.
कृष्ण जीवन के अनेकानेक संदर्भों में आज भी प्रासंगिक बनी हुई है. गीता में उपस्थित विमर्श में श्रीकृष्ण विश्लेषण (सांख्य) और संश्लेषण (योग) दोनों पद्धतियों का उपयोग करते हैं. उन्होंने व्यावहारिक कर्म-योग, भावनात्मक भक्ति-योग और बौद्धिक ज्ञान-योग का प्रतिपादन किया है. गीता के पांचवे अध्याय में श्रीकृष्ण शरीर को नौ द्वारों वाली एक पुरी बताते हैं.
गीता द्वारा मानस का विस्तार और यथार्थ का बोध संभव होता है. कर्म का सिद्धांत यह बताता है कि आप वर्तमान परिस्थिति को तो नहीं नियंत्रित कर सकते किंतु उस परिस्थिति के प्रति प्रतिक्रिया कैसे करें यह जरूर चुन सकते हैं. गीता का कर्मवाद यह भी स्पष्ट करता है कि मनुष्य अपनी परिस्थितियों का स्वयं निर्माता भी है.
इसका संदेश यही है कि आप स्वयं अपने जीवन के लिए उत्तरदायी हैं. हमारे बस में मात्र यही है कि हम परिस्थिति के प्रति किस तरह प्रतिक्रिया करते हैं. पर हम समाज के अंग हैं और सबसे अलग-थलग भी नहीं हैं. कर्म की गुणवत्ता उसे करने में नहीं बल्कि उसके पीछे निहित इच्छा के त्याग में है.
त्याग इच्छाओं का अभाव है. गीता इच्छाओं से आसक्ति दूर करना चाहती है न कि कर्म से. लोक-संग्रह के लिए जीवन का ढर्रा बदलना होगा. बंधुत्व का भाव आवश्यक है. अपने स्वभाव के अनुसार कर्म में निरत हो कर मनुष्य को सिद्धि प्राप्त होती है.