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पुरुष आज भी अहंकार में डूबा है, उसे आईना दिखाना होगा

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: June 20, 2018 16:32 IST

कठुआ, उन्नाव, सूरत, इंदौर, जहानाबाद, गाजियाबाद, बाराबंकी, गुंटूर, ऐसे कितने नाम गिनाए जाएं। भयानक दुष्कर्म की घटनाओं ने समाजशास्त्रियों की रातों की नींद और दिन का चैन उड़ा रखा है।

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- इन्दिरा किसलय

आज तक लड़कियों से पुलिसिया अंदाज में पूछा जाता रहा कि वे कब, कहां, क्यों और कैसे गई थीं। अब यही सवाल लड़कों से किया जाना जरूरी हो गया है। स्त्री विमर्श का ज्वलंत पहलू ये है कि अब पुरुष विमर्श की शुरुआत हो। पुरुष आज भी अपनी शक्तिऔर परमेश्वरत्व के अहंकार में डूबा है। उसे आईना दिखाना होगा।

कठुआ, उन्नाव, सूरत, इंदौर, जहानाबाद, गाजियाबाद, बाराबंकी, गुंटूर, ऐसे कितने नाम गिनाए जाएं। भयानक दुष्कर्म की घटनाओं ने समाजशास्त्रियों की रातों की नींद और दिन का चैन उड़ा रखा है। भयभीत हैं सभी। सम्मान्य रिश्तों से विश्वास गायब होता जा रहा हैं। ‘बेटियां बचाओ’ यह नारा कन्या भ्रूण हत्या के मद्देनजर दिया गया था। पर अब इसका अर्थ है उन्हें लंपट व्याभिचारियों से बचाओ। इन दुर्दात कारनामों के पीछे किसी एक कारक को तलाशना बेमानी है। संक्रमण काल की दुहाई देकर बचने का कोई रास्ता नहीं।

निरंकुश उपभोक्तावाद यानी हजार मुंह वाला जानवर। समाज में बढ़ती हुई अमीर-गरीब की खाई, संसाधनों की भीड़ में खुद को कमतर पाने की खीझ, स्पर्धाजन्य बेचैनी और बेरोजगारी से उपजे संताप तक कारणों का विस्तार है। पुरुष स्त्री को अपने समकक्ष पाकर अधिकांशत: चिढ़ा हुआ है। अश्लील फिल्मी दृश्य और महिलाओं के अल्पवस्त्र, नैसर्गिक रूप से उकसाते हैं। परंतु सबसे प्रमुख कारण, आधुनिक तकनीक का कहर एवं भारतीय समाज द्वारा मान्यताप्राप्त वो छूट जो लड़का होने के नाते माता-पिता द्वारा दी जाती है।

अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सांघातिक असर से मुक्त रखने के युद्ध स्तर पर प्रयास करने होंगे। वर्किग पेरेंट्स, समय न दे पाने का मुआवजा बच्चों को, छोटी सी उम्र में स्मार्टफोन, अन्य गैजेट्स या स्कूटी-बाइक आदि के रूप में देते हैं। ऐसे बच्चे अपना ज्यादातर वक्त, दोस्तों, पड़ोसियों और रिश्तेदारों की सोहबत में बिताते हैं और एकाकी सोच विकसित करते हैं। गैजेट्स के इस्तेमाल पर अंकुश नहीं रख पाते पालक। बच्चे, वक्त से पहले वयस्क हो रहे हैं और वयस्कों की वासना भी जागृत हो रही है। अश्लील साइट्स देखकर वे दैहिक परिवर्तनों के चलते शिकार ढूंढने लग जाते हैं। फिर छ: माह की दुधमुंही बच्ची से लेकर नब्बे वर्षीय वृद्धा तक उनकी शिकार बन जाती हैं। बेनुगाह बच्चियों की जिंदगी तबाह हो जाती है। वे घर और बाहर अवमानना का विष पीकर जीवनयापन करती हैं।

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आज तक लड़कियों से पुलिसिया अंदाज में पूछा जाता रहा कि वे कब, कहां, क्यों और कैसे गई थीं। अब यही सवाल लड़कों से किया जाना जरूरी हो गया है। शिक्षा संस्थानों में मोबाइल पर प्रतिबंध भी आवश्यक है। साथ ही के।जी। से लेकर कॉलेज तक मॉरल साइंस की शिक्षा अनिवार्यत: दी जाए। फैशन या आधुनिकता के नाम पर पब, डिस्कोथेक, रेव पार्टी, रेन डांस, लेट नाइट पार्टीज, हुक्का पार्लर आदि में बच्चों की भागीदारी पर अंकुश रखें। माता पिता की जिम्मेदारी है कि वे असीमित स्वतंत्रता न दें बच्चों को! साथ ही बहन का भाई, पत्नी का पति के प्रति भी दायित्व होता है कि वे असामान्य लक्षणों की अनदेखी न करें।

दुष्कर्म पर भारी सजाओं का प्रावधान हैं। कानून कई हैं, पर अकेले कानून से हम ये उम्मीद नहीं कर सकते कि दुराचरण खत्म हो जाएगा। मौजूदा सरकार ने अध्यादेश लाकर 12 वर्ष से कम उम्र की बच्चियों के साथ दुष्कर्म करने वालों के लिए छह माह में न्याय देने का वादा और फांसी की सजा सुनाई हैं। निर्भया कांड के बाद देशव्यापी आंदोलन हुआ, मोमबत्तियों के उजाले समाज के अंधेरे कोनों तक नहीं पहुंच पाए। निर्भया कोष की स्थापना हुई पर कितनी पीड़िताओं को मदद मिली? सार्वजनिक परिवहन में जीपीएस और पैनिक बटन अनिवार्य किया गया पर अकेले दिल्ली ने इसे समझा। शेष राज्यों में ढाक के तीन पात। कानून तो पूरा काम तब करेगा जब एफआईआर दर्ज होगी। अधिकांश मामलों में एफआईआर दर्ज ही नहीं होती। बात हर घर से शुरू होनी चाहिए। पापियों का फांसी तक पहुंचना इतना आसान नहीं। कई पेंच होते हैं।

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फेसबुकिया आक्रोश से भी काम न बनेगा। स्त्री विमर्श के तहत नारे, झंडे उठाने से भी कुछ न होगा। जरूरत है कुछ अंशों में प्रकृति की व्यवस्था को समझने की। कहा जाता है कि अल्पवस्त्र का कारण कहां लागू होता है जब दूधमुंही बच्चियों का शोषण किया जाता है! पर सच का एक पहलू ये भी है कि क्षीणवस्त्र सार्वजनिक स्थानों पर न पहने जाएं। सुरक्षा के लिए पर्स में पेप्पर स्प्रे रखें। जूडो कराटे सीखें। समय का भान भूलकर देर रात को घर से बाहर न निकलें न सफर करें। अति आवश्यक होने पर ही रात में निकलें। समाज में सभी भरोसे के काबिल नहीं होते। समाज में कोई भी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता। माता-पिता, टीचर, संस्थान प्रमुख या अन्य। सतत जागरूकता की जरूरत हैं। आज भिखारी के पास भी स्मार्ट फोन हैं और ईएमआई की सुविधा ने हर गैजेट तक सभी को पहुंच बना दी है। कानून से ज्यादा आत्मरक्षार्थ उपायों की जरूरत हैं। स्त्री विमर्श  का ज्वलंत पहलू ये है कि अब पुरुष विमर्श की शुरुआत हो। पुरुष आज भी अपनी शक्तिऔर परमेश्वरत्व के अहंकार में डूबा है। उसे आईना दिखाना होगा।

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