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विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: धर्म को कभी राजनीति का हथियार न बनाएं 

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: June 6, 2019 15:03 IST

भगवान राम करोड़ों-करोड़ों भारतीयों के आराध्य हैं. उनका नाम एक मंत्न की तरह सुरक्षा का भाव जगाता है हम भारतीयों में. उनकी जय बोलकर हम उन मूल्यों-आदर्शो की जय की कामना करते हैं, जो राम के नाम के साथ जुड़े हैं.

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आज के मुहावरे में कहूं तो मेरा उनसे रिश्ता ‘हाय’, ‘हलो’ का ही है. हम एक ही पार्क में घूमने जाते हैं. जब भी आमना-सामना होता है, दुआ-सलाम हो जाती है. दुआ-सलाम यानी मैं ‘गुड मॉर्निग’ कहता हूं, वे भी प्रत्युत्तर में यही कह देते हैं. पर उस दिन अचानक उन्होंने मेरे गुड मॉर्निग कहने के जवाब में ‘जय श्रीकृष्ण’ कहा. मैं भी जय श्रीकृष्ण कह कर आगे बढ़ गया. अब उल्टा हो गया है, मैं उन्हें ‘जय श्रीकृष्ण’ कहता हूं, और वे अक्सर ‘गुड मॉर्निग’ बोल जाते हैं. फिर हम दोनों मुस्करा देते हैं. 

असल में बात है भी अभिवादन की. एक-दूसरे की सलामती की ही तो बात करते हैं हम जब मिलते हैं. आप जय श्रीकृष्ण कहें, गुड मॉर्निग कहें, ‘अस्सलाम अलैकुम’ कहें या जय श्रीराम कहें,  क्या अंतर पड़ता है? हां, जब तक भावना अभिवादन की है, कोई अंतर नहीं पड़ता, पर जब यह अभिवादन नारा बन जाता है तो इसमें से युद्ध-घोष की ध्वनि आने लगती है. तब जय श्रीकृष्ण और गुड मॉर्निग के अर्थ बदले-से लगने लगते हैं.   

मैं बचपन से घर में ‘जय सियाराम’ बोलता-सुनता आया हूं. इसका अर्थ हमेशा अभिवादन और एक-दूसरे के प्रति शुभेच्छा प्रकट करना ही रहा है. इसलिए जब कभी ‘जय श्रीराम’ को युद्ध-घोष की तरह सुनता हूं तो बोलने वाले के प्रति एक संदेह का भाव जगने लगता है. हो सकता है यह संदेह अकारण ही हो, पर सवाल उठता है, हम इस संदेह के उठने का अवसर ही क्यों देना चाहते हैं. यह बात अपनी जगह सही है कि ‘हिंदुस्तान में जय श्रीराम नहीं बोलेंगे तो और कहां बोलेंगे?’ पर सवाल यह भी हो उठता है न, कि राम के नाम पर हम हासिल क्या करना चाहते हैं? 

भगवान राम करोड़ों-करोड़ों भारतीयों के आराध्य हैं. उनका नाम एक मंत्न की तरह सुरक्षा का भाव जगाता है हम भारतीयों में. उनकी जय बोलकर हम उन मूल्यों-आदर्शो की जय की कामना करते हैं, जो राम के नाम के साथ जुड़े हैं. इसीलिए, जब ‘जय श्रीराम’ को लेकर कोई विवाद उठता है तो हैरानी ही होती है. 

इस संदर्भ में ताजा विवाद प. बंगाल में उठा है. वहां की मुख्यमंत्नी ‘ममता दीदी’ को शिकायत है कि कुछ तत्व ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाकर उनके राज्य में अशांति फैलाना चाहते हैं. उनका आरोप यह भी है कि भाजपा के कार्यकर्ता इस नारे के माध्यम से अपने राजनीतिक स्वार्थ साधना चाहते हैं. उनका कहना है कि वे जय श्रीराम के उच्चारण के विरुद्ध नहीं हैं, उनका विरोध इस नारे के राजनीतिक उपयोग से है.  धर्म के नाम पर देश का बंटवारा होने के बावजूद हमने सर्वधर्म समभाव की नीति को अपनाया और अपने भारत को एक ‘धर्म-निरपेक्ष समाजवादी गणतंत्न’ घोषित किया. सच तो यह है कि हमारी धर्म-निरपेक्षता के कारण हमारे संविधान में ऐसा घोषित किया गया है. हमने अपने संविधान के माध्यम से अपनी आस्था, विश्वास को ही पुनघरेषित किया है. इसे पुनर्परिभाषित भी कहा जा सकता है. सर्वधर्म समभाव की इस घोषणा के साथ ही हमने अपने संविधान में इस बात को भी रेखांकित किया कि हमारा धर्म और हमारी राजनीति पृथक रहेंगे. इसीलिए धर्म के नाम पर वोट मांगना हमारे देश में गैरकानूनी है. 

हमारा संविधान इसकी इजाजत नहीं देता. इस अपराध के कारण हमारे कई नेता वोटे देने और चुनाव लड़ने के अधिकार से वंचित भी हो चुके हैं. लेकिन इस सबके बावजूद धर्म को राजनीति का हथियार या आधार बनाने की कोशिशें आए दिन होती रहती हैं. अक्सर धर्म और राजनीति एक-दूसरे में गड्ड-मड्ड हो जाते हैं. होते नहीं, कर दिए जाते हैं. 

अपनी आस्था के अनुसार अपने आराध्य से कुछ मांगना और आशीर्वाद पाना कतई गलत नहीं है, लेकिन अपनी पूजा-अर्चना को, अथवा अपनी भक्ति को, सार्वजनिक करके हमारे राजनेता आखिर क्या पाना चाहते हैं.  चुनाव के समय जिस तरह हमारे राजनेता धार्मिक स्थलों के ‘दौरे’ करने लगते हैं, वह उनकी आस्था नहीं, आस्था के दिखावे का ही उदाहरण है. राजनीतिक हितों के लिए आस्था की यह सौदेबाजी किसी भी दृष्टि से उचित नहीं लगती. 

यही बात ‘जयघोष’ पर भी लागू होती है. ईश्वर का नाम लेना गलत नहीं है. गलत यह तब हो जाता है जब ऐसा करके निहित स्वार्थो को साधने की कोशिश होती है. कोलकाता की सड़कों पर जय श्रीराम का उच्चार करना और इस उच्चार को एक नारा बनाकर राजनीति का दांव खेलना दो अलग बातें हैं. इस नारे पर ममता बनर्जी की प्रतिक्रिया अति लग सकती है, पर देखना यह भी जरूरी है कि यह नारा लगाने के पीछे मंशा क्या है? 

मुंबई के उस बगीचे में गुड मॉर्निग के जवाब में जय श्रीकृष्ण कहने वाला जब मेरे जय श्रीकृष्ण कहने पर मुस्कराता है, तो वह मुस्कान अभिवादन का सबसे अच्छा उदाहरण बन जाती है. हमारे परस्पर-अभिवादन के पीछे और कोई मंतव्य नहीं है. जय श्रीराम का घोष भी ऐसा ही अभिवादन होना चाहिए- एक-दूसरे की सलामती का अभिवादन. दस लाख पोस्ट कार्डो से डाक-विभाग को काम अवश्य मिल जाएगा, पर इसमें राजनीति की गंध ही आएगी, सौहाद्र्र और स्नेह की वह सुगंध नहीं, जो एक भारतीय समाज की आवश्यकता है. आइए, नारा नहीं लगाएं, प्रेम से बोलें जय श्रीराम. आप चाहें तो जय श्रीकृष्ण या गुड मार्निग कह सकते हैं, पर मुस्करा कर कहिए.

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