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राजनीति में शिष्टता को ताक पर न रखें नेता

By पवन के वर्मा | Updated: September 9, 2018 07:38 IST

2019 के आम चुनावों की ओर बढ़ते हुए, भाषायी बदहजमी के उदाहरणों के बढ़ने की संभावना है।

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पवन के. वर्मा

तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) एक लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित नेता हैं। इस हफ्ते उन्होंने तेलंगाना विधानसभा भंग करने की सिफारिश की और इसे राज्यपाल द्वारा स्वीकार कर लिया गया है। जिस संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने विधानसभा भंग करने के अपने फैसले की घोषणा की, उसमें उन्होंने राहुल गांधी पर सीधा हमला किया और उन्हें ‘देश में सबसे बड़ा मसखरा’ करार दिया।

केसीआर को अपनी बात रखने का अधिकार है, लेकिन जिस तरह से उन्होंने इसे व्यक्त किया, उससे मुझे बुनियादी आपत्ति है। हालांकि आज की लोकतांत्रिक राजनीति प्रतिस्पर्धा - और कटुतापूर्ण - हो चुकी है, लेकिन सार्वजनिक अभिव्यक्ति के लिए अपेक्षित नियंत्रण को पूरी तरह से अनदेखा करने के लिए क्या नेता स्वतंत्र हैं? राजनीतिक नेताओं का अन्य लोगों के साथ मतभेद हो सकता है - और लोकतंत्र में यह न केवल अपरिहार्य है, बल्कि शायद वांछनीय भी - लेकिन यह उन्हें एक-दूसरे से र्दुव्‍यवहार करने का अधिकार नहीं देता है। दूसरी पार्टी या उसके नेता का विरोध करना एक बात है, लेकिन असंयमित भाषा का सहारा लेकर व्यक्तिगत हमला करना सर्वथा अलग बात है। ‘मसखरा’ शब्द स्पष्ट रूप से अपमानजनक है और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में एक लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित नेता को ऐसे शब्द का प्रयोग करना शोभा नहीं देता है।

चंद्रशेखर राव ने कांग्रेस पार्टी या राहुल गांधी से कैसी प्रतिक्रिया की अपेक्षा की थी? एक स्थानीय कांग्रेस नेता ने इस जाल में फंसते हुए केसीआर को बड़ा मसखरा कह डाला, जो हिटलर की तरह बर्ताव करता है। इस तरह के संभाषण में हर कोई एक-दूसरे को ‘सबसे बड़ा मूर्ख’ ‘बेवकूफ’ या ‘जोकर’ कह सकता है। इस तरह जल्द ही बहस निचले स्तर पर उतर सकती है और उसमें अपशब्दों का इस्तेमाल हो सकता है। राजनीतिक बहस का यह नीचे की ओर जाता स्तर घूंसेबाजी पर भी जाकर खत्म हो सकता है।

जिस मूल बात को मैं उठाने की कोशिश कर रहा हूं वह किसी एक पार्टी या एक नेता से संबंधित नहीं है। मेरी चिंता भारत में भाषणों की खराब होती गुणवत्ता के बारे में है। राजनीतिक वर्ग के लोग निस्संदेह इस अपराध के सबसे बड़े दोषी हैं, और इस अर्थ में केसीआर अपवाद नहीं हैं। इसके पहले भाजपा के एक वरिष्ठ नेता की कांग्रेस अध्यक्ष पर की गई हाल ही की ओछी टिप्पणी का एक अन्य केंद्रीय मंत्री ने समर्थन किया था। क्या ऐसी भाषा का  प्रयोग करके उन्होंने अपनी राजनीतिक प्रोफाइल को चमकदार बनाया है और क्या भाजपा के प्रवक्ताओं ने इसके बचाव की कोशिश करके अपनी पार्टी की गरिमा बढ़ाई है? ऐसे और भी दोषी हैं और वे सभी राजनीतिक दलों से हैं।

नागरिक ऐसे संभाषणों के मूकदर्शक हैं। नेता उनके वोट चाहते हैं, लेकिन इस तरह की भाषा का प्रयोग करके वे शायद ही लोगों का सम्मान हासिल करते हों। हमारे देश में एक समय था, जब सबसे कड़वी राजनीतिक शत्रुता को भी सभ्य तरीके से व्यक्त किया जाता था। इससे उनके हमले की धार कुंद नहीं होती थी, बल्कि इसके विपरीत व्यंग्य और कटाक्ष के उपयोग से उसकी मारक क्षमता और बढ़ जाती थी। राजनीतिक मतभेद के बावजूद, सार्वजनिक जीवन में एक निश्चित मर्यादा का पालन करने की उम्मीद की जाती थी। नेताओं से आज यह सवाल पूछने की जरूरत है कि क्यों राजनीति ऐसे निचले बिंदु पर पहुंच गई है जहां अमर्यादित भाषा में व्यक्तिगत हमले उसका अंग बन गए हैं? क्या ऐसी भाषा का प्रयोग करने वाले मानते हैं कि लोग इसे मंजूर करते हैं? सच कहूं तो मुङो ऐसा नहीं लगता। या वे सोचते हैं कि चूंकि वे सत्ता में हैं इसलिए उन्हें किसी को कुछ भी कहने का अधिकार हासिल है? मुझे लगता है कि ऐसा ही है। लेकिन नागरिकों के लिए समय आ गया है कि वे ऐसे नेताओं को बताएं कि उनकी अभद्रता सहन करने योग्य नहीं है और इसके लिए उन्हें दंडित किया जाएगा।

2019 के आम चुनावों की ओर बढ़ते हुए, भाषायी बदहजमी के उदाहरणों के बढ़ने की संभावना है। गुस्सा बढ़ेगा, नफरत भरे भाषण बढ़ेंगे, व्यक्तिगत हमलों की संख्या बढ़ेगी। झूठ और सच के बीच का अंतर धुंधला होता जाएगा। लेकिन कहीं न कहीं एक मूक प्रार्थना किए जाने की जरूरत है कि विवेक को पूरी तरह से ताक पर न रख दिया जाए। एक नेता का दूसरे नेता को ‘सबसे बड़ा मसखरा’ कहना बहुत बुरा है। एक पूरे देश को राजनीति के नाम पर दुर्भावनापूर्ण तमाशे में तब्दील कर दिया जाना अक्षम्य है। हम सभी को - और खासकर हमारे राजनीतिक वर्ग को - यह याद रखने की जरूरत है कि हम एक परिष्कृत और प्राचीन सभ्यता के वारिस हैं और मूर्खता करने वाले केवल मुट्ठी भर नेताओं के हाथों का खिलौना हमें नहीं बनना है।

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