करुणानिधि के आईने में लोकतांत्रिक राजनीति

By अभय कुमार दुबे | Published: August 15, 2018 12:11 PM2018-08-15T12:11:27+5:302018-08-15T12:11:27+5:30

अगर हम ईमानदारी और उदारता से काम लें तो ऐसे करुणानिधि के जीवन और कृतित्व से सीख कर अपने समाज और लोकतंत्र का काफी भला कर सकते हैं।

Abhay Kumar Dube Opinion on Democratic politics in Karunanidhi's perspective | करुणानिधि के आईने में लोकतांत्रिक राजनीति

करुणानिधि के आईने में लोकतांत्रिक राजनीति

अभय कुमार दुबे

करुणानिधि चले गए, लेकिन वे अपने पीछे कई सबक छोड़ गए हैं। सोलह साल की उम्र से जिसने राजनीति शुरू कर दी हो और 94 साल की उम्र तक करता रहा हो, जो रोज कुछ-न-कुछ लिखता था, जिसकी कलम ने शिवाजी गणोशन और एमजीआर जैसे फिल्मी सितारों को पैदा किया हो, जो अपनी भाषा तमिल के प्रगल्भतम वक्ताओं में से एक था, जिसने उम्र भर एक कार्यकर्ता आधारित प्रदेशव्यापी पार्टी का नेतृत्व किया और पांच बार मुख्यमंत्री बन कर एक सुप्रशासित और सुनियोजित प्रदेश का ढांचा तैयार किया, ऐसी शख्सियत अब शायद ढूंढने से भी नहीं मिलेगी। अगर हम ईमानदारी और उदारता से काम लें तो ऐसे करुणानिधि के जीवन और कृतित्व से सीख कर अपने समाज और लोकतंत्र का काफी भला कर सकते हैं।

मेरे विचार से करुणानिधि के राजनीतिक जीवन से पहला और सर्वप्रमुख सबक यह मिलता है कि लोकतांत्रिक राजनीति किसी भी किस्म के अतिवाद से अपना मेल नहीं बैठा सकती। अतिवादी लोग हों या उनकी जत्थेबंदियां हों, उन्हें लोकतांत्रिक राजनीति के केंद्र में आने के लिए अपने अतिवाद को धीरे-धीरे मध्यम मार्ग पर लाना ही पड़ता है। उनके सामने दो विकल्प होते हैं। पहला, वे अपने अतिवाद को पूरी तरह से छोड़ कर ‘परिणामवादी’ (एक तरह के अवसरवादी) हो जाएं; और दूसरा, अतिवाद को छोड़ने की प्रक्रिया में भी वे अपने विचार धारात्मक केंद्र के महत्वपूर्ण पहलुओं को किसी-न-किसी प्रकार कायम रखते हुए पूरी रचनात्मकता के साथ मध्यमार्ग पर चलें। दोनों तरह के उदाहरण हमारे सामने हैं।

एक जमाने के अति-क्रांतिकारी दलित पैंथर आजकल हिंदुत्व की गोद में बैठे हुए सत्ता का सुख भोग रहे हैं। दूसरा उदाहरण करुणानिधि का है। कभी ई.वी. रामास्वामी नायकर पेरियार के शिष्य रहे करुणानिधि अपनी राष्ट्रीयता भारतीय बताने के बजाय द्रविड़ बताते थे।  लेकिन, वही करुणानिधि जब अंतिम यात्र पर गए तो उनके शरीर पर तिरंगा लिपटा हुआ था, और स्वयं उनकी एक देवता की तरह पूजा हो रही थी। ब्राह्मणों और पुराणपंथी हिंदू धर्म के व्रत-उपवास-कर्मकांड-दान-धर्म को गालियां देने में अपना समय खराब करने के बजाय करुणानिधि ने एक ऐसी राजनीति का शीराजा खड़ा किया जिसके केंद्र में सामाजिक न्याय था। इस राजनीति के कारण ही आज का तमिलनाडु दो फीसदी ब्राह्मणों के उस प्रभुत्व से मुक्त है जिसके खिलाफ पेरियार ने आंदोलन चलाया था।
 
करुणानिधि के राजनीतिक जीवन का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण सबक यह है कि सामाजिक न्याय की राजनीति करते हुए भी कुशल प्रशासक और दूरंदेश राज्य-निर्माता हुआ जा सकता है। इस तरह का संदेश करुणानिधि का जीवन ही नहीं, बिहार के नेता कपरूरी ठाकुर और करुणानिधि से भी पहले तमिलनाडु के ही के. कामराज का जीवन और कृतित्व भी देता है। कपरूरी ने बिहार में सामाजिक न्याय की राजनीति को अपने विशिष्ट फामरूले से समृद्ध ही नहीं किया, वे प्रशासन के मामले में भी किसी द्विज नेता से उन्नीस नहीं थे। इसी तरह कामराज कमजोर समझी जाने वाली नाडर जाति से आने और पढ़ाई-लिखाई में पीछे रहने के बावजूद अपनी प्रशासनिक कुशलता, राजनीतिक चतुराई और निष्ठा के लिए जाने जाते थे। करुणानिधि भी इसी परंपरा के सशक्त हस्ताक्षर थे। उनमें और आज के जमाने के सामाजिक न्याय के महारथियों के बीच यही सबसे बड़ा अंतर है। 

बिहार में लालू यादव और उ.प्र. में यादव-जाटव नेतृत्व के वाहकों ने कमजोर जातियों की चुनावी गोलबंदी तो की, लेकिन वे पूर्ण बहुमत प्राप्त करने के बावजूद अपने प्रदेशों को अच्छी सरकार देने में नाकाम रहे। उत्तर प्रदेश की भी यही हालत हुई। सत्तर और अस्सी के दशक में उत्तर प्रदेश जाने वाले गैर-उत्तर भारतीयों को यह प्रदेश कुल मिला कर पसंद आता था। लेकिन नब्बे के दशक के बाद जैसे ही सामाजिक न्याय के महारथियों के हाथ में इसकी सत्ता आनी शुरू हुई, इस प्रदेश की यह खुशनुमा छवि बदलनी शुरू हो गई। उसके उलट जब करुणानिधि के हाथ में तमिलनाडु की सत्ता आई तो सारे भारत के अन्य हिस्सों को प्रशासन के लिहाज से उस सामाजिक उथल-पुथल का एहसास भी नहीं हुआ, जो दरअसल तमिलनाडु में हो रही थी। यह कहा जा सकता है कि करुणानिधि ने तमिलनाडु को एक बेहतर प्रशासन दिया, विकास का एक ढांचा बनाया, आर्थिक खुशहाली दी और साथ में सामाजिक न्याय के प्रश्न पर कोई समझौता भी नहीं किया।
 
तीसरा बड़ा और दिलचस्प सबक करुणानिधि के जीवन से यह सीखा जा सकता है कि परिवार और राजनीति की मांगों के बीच तालमेल कैसे बैठाया जाए। करुणानिधि ने तीन शादियां कीं। उनका परिवार बहुत बड़ा है। शायद ही किसी को करुणानिधि से अपेक्षाकृत कम प्रेम और स्नेह मिलने की शिकायत रही हो। अपनी मृत्यु से दस साल पहले ही उन्होंने अपने उत्तराधिकारी की शिनाख्त कर ली थी। उनके दो बेटे, स्टालिन और अलागिरी राजनीति में थे। करुणानिधि ने स्टालिन को चुना। लेकिन तब तक उन्होंने स्टालिन को पार्टी में कोई महत्वपूर्ण पद नहीं दिया जब तक उन्होंने विधानसभा के तीन चुनाव नहीं जीत लिए। परिवार की तरफ से दबाव होने के बावजूद उन्होंने अपनी प्यारी बेटी कनिमोझी को कोई भी बड़ा पद देने से परहेज किया। वे जानते थे कि कनिमोझी की दिलचस्पी राजनीतिक पेचीदगियों में नहीं है। खुद कनिमोझी भी राजनीति में अपनी कम रुचि के बारे में बताती हैं। अलागिरी उनकी निगाह में हमेशा से ही तमिलनाडु के एक ऐसे नेता थे जिसका प्रभाव मदुरै के आसपास ही सीमित था। लेकिन वे स्टालिन को चुनौती न दे पाएं, इसलिए उन्होंने अपने जीवन में ही उन्हें पार्टी से अलग करके भविष्य में किसी भी तरह के विभाजन के अंदेशे को खत्म कर दिया। अब उनके देहांत के बाद गेंद पूरी तरह से स्टालिन के पाले में है। अगर उनमें दम होगा, तो वे एक स्थापित कार्यकर्ता आधारित पार्टी के नेता के तौर पर एक बिखरी हुई अन्नाद्रमुक के मुकाबले जल्दी ही राजनीतिक बढ़त हासिल कर लेंगे। 

करुणानिधि के जीवन और कृतित्व से एक और सबक यह लिया जा सकता है कि जब राजनीतिक समय विपरीत हो जाए, तो किस तरह टिकना चाहिए। एमजीआर की जबर्दस्त लोकप्रियता ने करुणानिधि को पूरे तेरह साल तक सत्ता से बाहर रखा, लेकिन करुणानिधि ने अपनी और अपनी पार्टी की प्रासंगिकता बनाए रखी। चूंकि एम.जी.रामचंद्रन  इंदिरा गांधी से जुड़ने के बाद कांग्रेस के साथ गठजोड़ में चले गए थे, इसलिए उन्होंने गठजोड़ राजनीति के मैदान में विचारधारात्मक रूप से विपरीत भाजपा के साथ गठजोड़ करने में कोई हिचक नहीं दिखाई। इस प्रक्रिया में उन्होंने केंद्रवादी कांग्रेस के मुकाबले उस समय संघवाद का झंडा बुलंद करने वाली भाजपा के साथ गठजोड़ किया, लेकिन आज की केंद्रवादी भाजपा के मुकाबले वे  परिस्थिति बदल जाने के कारण संघवादी दिख रही कांग्रेस के साथ खड़े नजर आए। हिंदी के समर्थक करुणानिधि को खलनायक के रूप में याद करते हैं। उन्होंने पहले 1938 में ¨हंदी विरोधी आंदोलन में भाग लिया और फिर 1963 में हिंदी विरोधी आंदोलन का नेतृत्व किया। लेकिन इन हिंदी समर्थकों को याद रखना चाहिए कि करुणानिधि और उनके गुरु अन्ना दुरै ने सुनिश्चित किया था कि उस हिंसक आंदोलन के दौरान दक्षिण भारतीय हिंदी प्रचारिणी सभाओं के पूरे तमिलनाडु में फैले हुए अनगिनत दफ्तरों पर एक भी हमला न होने पाए। इसके पीछे तर्क यह था कि वे हिंदी और उसके प्रचार के नहीं बल्कि उसे थोपने के विरोध में हैं। कहना न होगा कि करुणानिधि के पास हम सबके लिए कोई न कोई सबक था।

Web Title: Abhay Kumar Dube Opinion on Democratic politics in Karunanidhi's perspective

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