विजय दर्डा का ब्लॉग: मानवता की आत्मा पर बड़ा जख्म है प्रताड़ना

By विजय दर्डा | Published: June 29, 2020 09:41 AM2020-06-29T09:41:33+5:302020-06-29T09:41:33+5:30

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के ताजा आंकड़े तो उपलब्ध नहीं हैं लेकिन पुराने आंकड़े बताते हैं कि 2001 से 2013 के बीच पुलिस हिरासत में 1275 लोगों की मौत हुई. यानी हर साल 98 लोग हिरासत में मरे.

blog on Tamil Nadu father son died in police custody Who is responsible for that | विजय दर्डा का ब्लॉग: मानवता की आत्मा पर बड़ा जख्म है प्रताड़ना

पी जयराज (पिता बाईं ओर) और उनके बेटे फेनिक्स, जिनकी तमिलनाडु में पुलिस द्वारा कथित तौर पर बुरी तरह पिटाई के बाद मौत हुई (तस्वीर स्त्रोत- ट्विटर)

तमिलनाडु के थुथुकुड़ी में अभी एक ऐसी घटना हुई जिसने हर किसी को सोचने पर मजबूर कर दिया कि हमारे सभ्य समाज से प्रताड़ना नाम का कलंक क्यों नहीं मिट रहा है. हुआ यह कि पी जयराज और उनके बेटे जे बेनिक्स ने अपनी दुकान शाम 7 बजे के बाद भी खुली रखी थी. महामारी के दौरान दुकान 7 बजे के पहले बंद करने के निर्देश थे. इसी बात पर उनकी पुलिस से बहस हो गई. पुलिस बाप-बेटे को थाने ले गई और क्रूर यातनाएं दीं. वे खून से लथपथ हो गए तो घर से दोबारा कपड़ा मंगाया. वह भी खून में सन गया. यह सिलसिला लगतार चलता रहा और दो दिन बाद दोनों की हिरासत में ही मौत हो गई. 

हालांकि इस मामले में कुछ पुलिस वालों के खिलाफ कार्रवाई हुई है लेकिन सवाल यह है कि इस तरह की प्रताड़ना होती ही क्यों है? अब कितनी भी कार्रवाई हो जाए, उन दोनों की जिंदगी तो वापस होगी नहीं! ..और यह कोई अकेला मामला नहीं है. इस देश में कहीं धर्म के नाम पर तो कहीं जाति के नाम पर प्रताड़ना के किस्से सामने आते ही रहते हैं. हिरासत में मौत के कई प्रकरण तो रोंगटे खड़े कर देते हैं. भागलपुर में आंख फोड़ देने की दुर्दात घटना को देश आज भी नहीं भूला है. कहने को भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 हमें सम्मान के साथ जीने का अधिकार देता है. 

यह अधिकार उन्हें भी है जो किसी आरोप में हिरासत में होते हैं या फिर जेल में. जस्टिस वी.आर. कृष्णा अय्यर ने अपनी रिपोर्ट में कहा भी था कि यदि कोई हत्या का आरोपी भी है तो उसे प्रताड़ित नहीं किया जाना चाहिए. कानून उसे उसके किए की सजा देगा. एजेंसियों को उसे प्रताड़ित करने का अधिकार नहीं है. कुछ लोग और खासकर एजेंसियां यह दलील देती हैं कि यदि अपराध के आरोपी पर सख्ती नहीं करेंगे तो क्या वह सच बताएगा? इस दलील से सामान्य लोग भी पिघल जाते हैं. हकीकत यह है कि एजेंसियों के पास कई तरह के तरीके होते हैं जिससे वे सच निकाल सकती हैं. प्रताड़ना तो बहुत क्रूर तरीका हो गया है. हिरासत में मौतें जारी हैं.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के ताजा आंकड़े तो उपलब्ध नहीं हैं लेकिन पुराने आंकड़े बताते हैं कि 2001 से 2013 के बीच पुलिस हिरासत में 1275 लोगों की मौत हुई. यानी हर साल 98 लोग हिरासत में मरे. लेकिन यह आंकड़ा हकीकत को नहीं दर्शाता. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग कहता है कि जेल या न्यायिक हिरासत में साल 2001 से 2010 के बीच 12 हजार 727 लोगों की मौत हुई. जानकार मानते हैं कि भारत में प्रताड़ना के कारण 10 से 15 मौतें हर रोज होती हैं. मैं जिक्र करना चाहूंगा डी.के.बसु केस का जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कई दिशा-निर्देश दिए थे लेकिन उन पर भी अमल नहीं हुआ.

यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि मानवाधिकारों के प्रति हमारा रवैया ठीक नहीं रहा है. मानवाधिकार पर जून 1993 में वियेना में विश्व सम्मेलन का आयोजन हुआ था. उसमें दुनिया के 176 देशों ने हस्ताक्षर किए थे. भारत भी उनमें से एक था. उस विश्व सम्मेलन के निर्देशों के अनुरूप हमारे देश में भी कानून बनाया जाना था लेकिन वह काम आज तक पूरा नहीं हो पाया है. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि पाकिस्तान जैसे देश ने भी प्रताड़ना के खिलाफ कानून बना लिया लेकिन हमारे यहां अब तक नहीं बना. चूंकि कानून नहीं बना इसलिए हम यूएन की ह्यूमन राइट्स कमेटी के सदस्य भी नहीं हैं. इसका सदस्य बनने के लिए देश के अंदर उस तरह का कानून होना चाहिए कि प्रताड़ना बिल्कुल नहीं होगी और मानवीयता का खयाल रखा जाएगा. 

आपने देखा होगा कि जितने लोग भी बाहर भागे हुए हैं, चाहे वो आर्थिक अपराध वाले नीरव मोदी हों या माल्या हों या मुंबई बम ब्लास्ट मामले के नदीम थे या फिर कोई और, उन लोगों ने लंदन में पनाह ली. उन्होंने कहा कि यदि आप हमें भारत भेजेंगे तो हमें प्रताड़ित किया जाएगा क्योंकि भारत में प्रताड़ना रोकने के लिए कोई कानून नहीं है और जेलों में अमानवीय स्थिति है. उनकी इस दलील के कारण ही प्रत्यर्पण नहीं हो पाता है और उन्हें पनाह मिल जाती है.

हमारे यहां ब्रिटिश काल में तो जेल प्रताड़ना के स्थल थे ही, आज भी हालात बहुत बेहतर नहीं हुए हैं. जहां सौ लोगों के रहने की जगह है वहां कई सौ कैदी रह रहे हैं. नेहरूजी ने एक बार कहा था कि हमें जेल जाकर देखना चाहिए कि हमारी जेलें कैसी हैं. दुनिया के विकसित देशों में जेलों की हालत तो ठीक है लेकिन प्रताड़ना के मामले में वे भी कम कुख्यात नहीं हैं. जॉर्ज बुश के कार्यकाल में ग्वांतानामो बे जेल के टार्चर केंद्र के कारण अमेरिका को पूरी दुनिया की आलोचना सहनी पड़ी थी. क्यूबा के पास एक द्वीप पर यह जेल बनी हुई है जहां इराकियों को यातनाएं दी जाती थीं. अमेरिका के लोगों ने भी बुश प्रशासन के खिलाफ पुरजोर आवाज उठाई थी. तालिबान तथा इस्लामिक स्टेट के दौर में यातनाओं का खतरनाक रूप हम देख चुके हैं.

जहां तक हमारे यहां मानवाधिकार को लेकर पुख्ता कानून बनाने की बात है तो डॉ. मनमोहन सिंह ने 2010 में कहा था कि कानून बनना चाहिए क्योंकि हर साल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जेनेवा में जो रिव्यू होता है उसमें हमें जिल्लत सहनी पड़ती है. हमारे एटॉर्नी जनरल उस रिव्यू में भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं और हर बार यही कहते हैं कि हम इस दिशा में काम कर रहे हैं. सवाल यह है कि 2010 से लेकर अभी तक कानून क्यों नहीं बना?

2010 में कैबिनेट का फैसला हो गया था, सेलेक्ट कमेटी ने भी निर्णय ले लिया था लेकिन उस वक्त की प्राथमिकता राइट टू फूड की थी जो पहले पास किया गया. मैं उस समय पार्लियामेंट में था. आपको याद होगा कि 2010 से 2012 के बीच पार्लियामेंट में बहुत व्यवधान चल रहे थे जिसके कारण वह बिल पास नहीं हो पाया. उस समय कमलनाथ संसदीय मामलों के मंत्री थे और मानवाधिकार कानून को प्राथमिकता में भी रखा था लेकिन हो-हल्ले में सब रह गया!

यदि हमारे पास मानवाधिकार को लेकर कड़े कानून हों तो प्रताड़ना पर रोक लगाई जा सकती है लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि हिरासत में हर 100 मौतों पर औसतन केवल 34 पुलिसकर्मियों पर आरोप पत्र दाखिल किए जाते हैं और उसमें से भी केवल 12 प्रतिशत दोषी ठहराए जाते हैं. मैं नहीं कहता कि आरोप वाले सभी पुलिसकर्मी दोषी होते हैं लेकिन वे दोषी नहीं हैं तो मौतों के लिए कोई तो दोषी होगा? हमें ऐसी कारगर व्यवस्था लागू करनी ही होगी ताकि हमें दुनिया के सामने जिल्लत का सामना न करना पड़े. प्रताड़ना मानवता के खिलाफ अपराध है और मानवता की आत्मा पर बड़ा जख्म है.

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