ब्लॉग: राजनीतिज्ञों की बेचैनी बढ़ाते आरक्षण आंदोलन

By Amitabh Shrivastava | Published: November 18, 2023 02:39 PM2023-11-18T14:39:00+5:302023-11-18T14:40:07+5:30

महाराष्ट्र में अब धनगर समाज के आंदोलन को किसी तरह शांत किया तो पिछड़ी जाति वर्ग (ओबीसी) ने अपना मोर्चा खोल लिया। उसके पीछे कोई अलग नेता नहीं, बल्कि शिंदे सरकार के ही मंत्री हैं।

Reservation movement increasing the anxiety of politicians | ब्लॉग: राजनीतिज्ञों की बेचैनी बढ़ाते आरक्षण आंदोलन

फाइल फोटो

Highlightsसामाजिक आंदोलन बिना राजनीतिक संरक्षण के अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाताचाहे बात मध्यस्थता की हो या फिर नैतिक समर्थन कीधनगर समाज के आंदोलन को शांत किया तो पिछड़ी जाति वर्ग (ओबीसी) ने अपना मोर्चा खोल लिया

इस बात को मानने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि कोई भी सामाजिक आंदोलन बिना राजनीतिक संरक्षण के अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाता। चाहे बात मध्यस्थता की हो या फिर नैतिक समर्थन की। किंतु पिछले कुछ दिनों से जिस तरह से मराठा आरक्षण आंदोलन व्यापक समर्थन से दिनोंदिन मजबूत होता जा रहा है, उससे राजनेताओं की बेचैनी बढ़ती जा रही है।

वहीं, दूसरी ओर धनगर समाज के आंदोलन को किसी तरह शांत किया तो पिछड़ी जाति वर्ग (ओबीसी) ने अपना मोर्चा खोल लिया। उसके पीछे कोई अलग नेता नहीं, बल्कि शिंदे सरकार के ही मंत्री हैं। इन सभी के बीच लिंगायत समाज और मुस्लिम भी बड़े आंदोलन के लिए अपनी बारी के इंतजार में हैं। लिहाजा राजनीतिक परिदृश्य में चिंता के बादल आसानी से छंटते नजर नहीं आ रहे हैं।

गुरुवार को महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना प्रमुख राज ठाकरे का मराठा आरक्षण आंदोलन का नेतृत्व कर रहे मनोज जरांगे के खिलाफ आया बयान अचानक ही नहीं आया। कभी जालना जिले की अंबड़ तहसील के अंतरवाली सराटी पहुंच कर मनोज जरांगे को समर्थन देने वाले ठाकरे का ढाई माह में हृदय परिवर्तन आश्चर्यजनक है और उनकी राजनीति की दृष्टि से चिंताजनक भी है।

अब ठाकरे मराठा आरक्षण की चिंता से अधिक जरांगे के पीछे कौन है, इस बात की खोजबीन में जुट गए हैं। कुछ इसी अंदाज में राज्य के उपमुख्यमंत्री अजीत पवार हैं, जो खुलकर तो सामने नहीं आ रहे हैं। मगर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष टिप्पणियों से भी चूक नहीं रहे हैं। 

वहीं, कांग्रेस नेता विजय वडेट्‌टीवार सीधे तौर पर जरांगे को लेकर मराठा समाज को सलाह देने से चूक नहीं रहे हैं। इन सब के ऊपर राज्य सरकार के मंत्री और बड़े ओबीसी नेता छगन भुजबल ने शुरुआत से ही मुकाबला करने की ठान ली है। शुक्रवार को अंबड़ तहसील में सभा कर उन्होंने अपनी ताकत का अहसास कराया। उन्होंने जरांगे को लेकर खुलकर बयानबाजी की। 

उनके संबोधन से ओबीसी और सरकार दोनों के दृष्टिकोण पर प्रश्न खड़े हुए हैं। ताजा घटनाक्रमों से स्पष्ट है कि मनसे से लेकर राकांपा और कांग्रेस से लेकर भाजपा तक सभी दलों में कहीं न कहीं अंदरूनी बेचैनी है। यह असामान्यता केवल वर्तमान को लेकर नहीं है, बल्कि भविष्य की चिंताओं को लेकर अधिक है। महाराष्ट्र में आने वाला साल 2024 चुनावों का साल होगा। लोकसभा चुनाव के बाद विधानसभा चुनाव होंगे। 

राज्य के अनेक इलाकों में महानगर पालिका के चुनाव भी होंगे। इस दृष्टि से समाज में राजनीतिक दलों के खिलाफ ताजा वातावरण अच्छा नहीं माना जा सकता है। मराठा समाज आम तौर पर राजनीति में अच्छा रसूख रखने वाला है। इसी बात के चलते हर दल के पास अपने-अपने मराठा नेता भी हैं, जो क्षेत्र स्तर से लेकर राज्य स्तर तक स्थितियों को संभालते हैं। उनके सहारे चुनाव में एक बड़ा वोट बैंक निर्णायक भूमिका में खड़ा होता है। 

इसी प्रकार ओबीसी समाज भी अपनी एकजुटता से अनेक स्थानों पर चुनावी फैसलों को बदलने की क्षमता रखता है। इसलिए दोनों ही समाजों में राजनेताओं को लेकर अस्पृश्यता की भावना का पैदा होना स्वाभाविक चिंता का विषय है। वह भी एक आंदोलन के रूप में यदि तैयार हो रही तो और खतरनाक साबित हो सकती है। 

ये सभी मोर्चे नेताओं को न तो मंच साझा करने दे रहे हैं और न ही अपनी रणनीति में हिस्सा बनने दे रहे हैं। उनकी बात को आगे बढ़ाने का सवाल ही नहीं उठता है। यदि सरकार से मांग की जा रही है तो आंदोलन में विपक्ष को भी दूध का धुला नहीं माना जा रहा है।

यहां तक कि छोटे दल भी आंदोलनों में कहीं से अपनी जगह बना पाने में विफल हैं। स्पष्ट है कि ऐसे में आंदोलन का सीधा संवाद सरकार से है और लड़ाई भी सरकार से ही है। दोनों के बीच किसी भी तरह के बिचौलिए की जगह नहीं है। यही मुश्किल है और यही माथे पर बल पड़ने का बड़ा कारण है।

यूं तो अगस्त और अक्तूबर के दो दौर के हुए मराठा आरक्षण आंदोलन की शुरुआत में लगा था कि यह केवल सत्ताधारी दलों से ही संघर्ष चलेगा। किंतु जैसे-जैसे आंदोलन गर्माता गया, वैसे-वैसे आफत राजनीतिक दलों की बढ़ती गई।

दरअसल, सभी प्रकार के आरक्षण चाहे मराठा हो या फिर मुस्लिम, सभी के आंदोलनों के अतीत में राजनीतिक दलों की समर्थक भूमिका दिखाई दी है। सभी ने आश्वासन दिया और कालांतर में वह बेमायने साबित हुए। किसी के लिए आम सहमति तैयार नहीं हुई तो किसी को कानूनी जामा पहनाने में समस्याएं आईं। इसलिए वर्तमान माहौल में हर राजनीतिक दल की भूमिका व विश्वसनीयता कठघरे में आ खड़ी हुई है। इसलिए अब आश्वासन-समर्थन तो दूर, कोई उनसे सीधी चर्चा के लिए भी तैयार नहीं है।

मजबूरी यह है कि राजनीतिक दल आंदोलनों के समर्थन के लिए पहुंच रहे हैं और अपनी उपस्थिति का संज्ञान न लिये जाने का गम नहीं मना रहे हैं। बीते दिनों हुए मराठा आंदोलन ने तो आक्रामकता दिखाते हुए नेताओं की आवाजाही पर भी रोक लगा दी थी। जिसका उन्हें अप्रत्यक्ष समर्थन ही मिला। इसके चलते ही राजनेताओं की चिंताएं लगातार बढ़ रही हैं और निराकरण नहीं होने की स्थिति में उन्हें आंदोलनों पर अप्रत्यक्ष हमलों का सहारा लेना पड़ रहा है।

यह तय है कि आने वाले समय में समस्याओं का हल स्थाई नहीं निकाला गया तो परेशानियां और बढ़ सकती हैं। मराठा समाज के साथ धनगर समाज और उसके बाद लिंगायत एवं मुस्लिम भी अपनी मांगों को लेकर आंदोलन का रुख अपना सकते हैं। यह अप्रत्याशित स्थिति, विशेष रूप से चुनावों के समय राजनीतिक दलों की बड़ी मुश्किल है। किंतु इसके जिम्मेदार भी वही हैं। समाज को वोट बैंक समझ कर समस्या का स्थाई समाधान नहीं ढूंढ़ना इन आंदोलनों की असली जड़ है।

अनेक सरकारों के आने-जाने के बावजूद केवल आश्वासनों पर समाज को चलाना भविष्य के लिए संकट के संकेत हैं। फिलहाल आंदोलनों को तोड़ने के लिए राजनीतिक पैंतरों का इस्तेमाल आरंभ किया जा चुका है। किंतु उनको जवाब तत्काल मिल रहा है, इसलिए वैमनस्य के सहारे हल निकालने से बेहतर सद्‌भाव के साथ पुख्ता हल ढूंढ़ना सभी के लिए अच्छा होगा। अन्यथा चुनाव के पहले और बाद में भी आंदोलन चलते रहेंगे। समाज से उभरे मोर्चे राजनीति के फेरे से बचकर अपनी लड़ाई लड़ते रहेंगे।

Web Title: Reservation movement increasing the anxiety of politicians

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